कल चिट्ठाकार (http://groups.google.com/group/Chithakar?hl=hi) के सद्स्यों को हिन्दी का एक नमूना मिला जो इस प्रकार है: “…अधिभरण का गतीक्रम देखेँ और अपने सभी अधिभरणोँ की पहुँच एक सहज अंतरण प्रबंधक
झरोखा से प्राप्त करेँ..”
मुझे कम से कम पांच भाषाओं की अच्छी जानकारी है, एवं कम से कम पांच और से अकसर पाला पडता है. लेकिन इन में किसी भी भाषा में इस प्रकार की कृत्रिम भाषा से सर नहीं मारना पडता है. क्या कारण है कि सिर्फ हिन्दी लिखते/बोलते समय लोग इन्सानी भाषा बोलने के बदले इस तरह की क्लिष्ट भाषा बोलते हैं. इस ब्रह्मांड का कौन सा गृह है जहां आम आदमी इस तरह की हिन्दी बोलता है???
कुछ साल पहले एक लेख पढते समय निम्नलिखित वाक्य मेरी नजर में आया: “उसके वक्षस्थल पर सर्प लुंठित होने लगे”. सीधे सीधे “छाती पर सांप लोटने लगे” बोलने के बदले इस तरह की “लुंठित” भाषा बोलने से किसी का कल्याण नहीं होता है. बल्कि इस तरह की हिन्दी हिन्दुस्तान का भला करने के बदले आम लोगों को एवं गैर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी की तरफ खीच कर ले जाती है जहां संगणक, जाल, एवं जाल-भृमण से सम्बन्धित सारे विवरण एक दम सरल भाषा में उपलब्ध है. सारथी एवं पाणिनि का अभियान यह है: हिन्दी एक बहुत ही सरल, सहज, एवं ललित भाषा है. इसे ऐसा ही रखना हो तो पहले हर विषय पर सरल/सहज हिन्दी शब्दावली का प्रचार करना होगा. यह असाध्य बात नहीं है — सिर्फ हिन्दी के विशाल शब्द-भण्डार से इन शब्दों को ढूंढ कर इन्हें लोगों के बीच जनप्रिय करना होगा.
कृपया इस अभियान में जुट जाईये. हमारे ई-समूह “पाणिनि” के सदस्य बनिये एवं सरल हिन्दी के प्रचार में हाथ बटाईये. सदस्यता के लिये दहिनी बगल-पट्टी पर अपना ईपता दर्ज कीजिये. (यह ईपता पूर्ण रूप से गुप्त रहेगा, एवं किसी भी तरह का दुरुपयोग नहीं होगा, न किसी और को दिया जायगा).
— शास्त्री जे सी फिलिप
बहुत खूब शास्त्री जी; एकदम सही कह रहे हैं आप.
भाषा तो बस अभिव्यक्ति का माध्यम है, सामने वाले के पास हमारी बात एकदम उसी तरह से पहुंच जाय जो हम चाहते हैं, बस यहीं पर भाषा का काम खत्म हुआ.
इसे एकदम सरल और सहज होना चाहिये, बिल्कुल बहते पानी की तरह.
दरअसल, हम अनुवाद करते समय अंग्रेज़ी का मूल अनुवाद करने लगते हैं। हमे संदेश के भाव समझ कर उस का अनुवाद करना चाहिये। वेसे “हिंगलिश” अब हमारी मातृ भाषा बन चुकी है।
“…मुझे कम से कम पांच भाषाओं की अच्छी जानकारी है, एवं कम से कम पांच और से अकसर पाला पडता है. लेकिन इन में किसी भी भाषा में इस प्रकार की कृत्रिम भाषा से सर नहीं मारना पडता है. क्या कारण है कि सिर्फ हिन्दी लिखते/बोलते समय लोग इन्सानी भाषा बोलने के बदले इस तरह की क्लिष्ट भाषा बोलते हैं. इस ब्रह्मांड का कौन सा गृह है जहां आम आदमी इस तरह की हिन्दी बोलता है???…”
आह! आपने तो तीर सीधे दिल में उतार दिया! सचमुच ऐसी भाषा बोलते नहीं मिलेगा.
दर असल कुछ लोग हिन्दी का मतलब अग्रेजी के अनुवाद को ही समझते है या फ़िर कुछ लोग जो अपने को प्रगतिशील हिन्दी के अग्रदूत समझते है जो लुंठित जैसे शब्द प्रयोग करते है या पम्प की जगह वायू ठूसक यंत्र,ट्रेन को लोह पथ गामिनी कहने वाले वास्तव मे ये हिन्दी के रास्ते के रोडे है
कई बार अंग्रेजी का सीधा सीधा शब्दानुवाद करने से भी ऐसी भाषा बन जाती है। इसलिए बेहतर यही होगा कि प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया जाए।
यह वाक्य ऑपेरा की हिन्दी साईट से लिये गये थे.
खुशी की बात है की हिन्दी की साईटे बढ़ रही है. इसी साईट की समीक्षा हिन्दी में यहाँ पढ़ सकते है.
http://www.tarakash.com/content/view/278/252/
मैं आपकी बात का समर्थन करता हूँ। कृत्रिम भाषा से हिन्दी का हित नहीं होता है।
हमें हिन्दी में ऎसे ही सहज,सरल और ललित शब्दों की आवश्यकता है जो आम बोलचाल में प्रयुक्त हो सकें…
यह समय ललित के खंडन का समय है । बाजार, संस्कार, मीड़िया और द्रुतगति से किसी लक्ष्य को लपक लेने की मानसिकता से मनुष्य के मन-आत्मा से लास्य गायब होते जा रहा है । सो भाषा का लालित्य भी क्षीण होते जा रहा है । पहले समाज, घर, परिवार और कामकाज के स्थलों में एक भाषिक आचरण संहिता की उपस्थिति या चौकीदारी हुआ करती थी । अतः भाषा और भाषा का लालित्य सभ्यता की निशानी जैसा था । अब कई भाषा के परस्परानुभव और विदेशी भाषाओं के तथाकथित रूतबे ने कम से कम भारतीय मनीषा को भी अपने लपेट में ले लिया है । यह समकालीन युवाओं को देखकर तो कहा ही जा सकता है । पर इसे निरंतर प्रयासों से बचाया जा सकता है । बात अभी बिगड़ी नहीं है ।