सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा — सच???

पिछले दिनों रवीश कुमार ने सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा नामक एक काव्य अपने चिट्ठे कस्‍बा पर प्रस्तुत की जो अधिकतर पाठको के लिये बहुत तकलीफदेह बन गया. कविता इस तरह है:

  • मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा
    सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा
    जो भी लिखूंगा सारा का सारा बेहतर लिखूंगा
    पंत की तरह आधा बेहतर आधा कूड़ा नहीं लिखूंगा।
    मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा
    सारे विषय और सारे विश्लेषण पर लिखूंगा
    प्रेमचंद, प्रभा खेतान के लिए कुछ नहीं छोडूंगा
    इतना लिखूंगा कि आलोचक को भी कहना पड़ेगा
    तुमने भी जो कुछ भी लिखा अच्छा लिखा है
    कम से कम पंत की तरह कूड़ा नहीं लिखा है।
    मैं हिंदी का सबसे नामवर कवि बनने वाला हूं
    नामवर मेरी कविता का पाठक बनने वाले हैं
    मैं नामवर को जान कर कविता लिखने वाला हूं
    अपने लिखे के आस पास कूड़ेदान नहीं रखने वाला हूं
    दुनिया मेरे साहित्य को धरोहर कहती रहेगी
    मैं अपने लिखे के कूड़े को सोना समझता रहूंगा
    बात नामवर की हो या कहें उसे वाजपेयी
    मैं एक दिन सबसे अच्छी कविता लिखूंगा।

पाठकों को हुई तकलीफ स्वाभाविक है क्योकि काव्य की जिस विधा का उपयोग लेखक ने किया है वह हिन्दी में आम नहीं है — कम से कम चिट्ठों पर एवं चिट्ठा-कविताओं में तो नहीं. लेकिन एक अच्छे एव मानसिक रूप से सामान्य लेखक की कलम से जब इस तरह की कविता आई तो पाठकों को कुछ समय रुक कर चिंतन करना चाहिये था कि इस काव्य की कुन्जी क्या है. उनको तनिक यह सोचना चाहिये था कि कहीं यह सारी गलतफहमी इस कुन्जी के न मिलने के कारण तो नहीं है.

टिप्पणीकारों मे sajeev sarathie ने ठीक यही किया, एवं बोल भी दिया कि भैया अपने को कुन्जी नहीं मिली. उन्होंने लिखा: “बहुत अजीब लगी …. सच कहूँ तो समझ ही नही पाया कुछ”. यह है सही प्रतिक्रिया. इसी विधा में संजय बेंगाणी ने लिखा: “अगर यह व्यंग्य है तो अच्छा व्यंग्य है, अगर यह खुद पर लिखी कविता है तो बहुत बुरी कविता है.”. मैं दोनों लेखकों का अभिनन्दन करता हूं कि उन्होंने अपने लिये अज्ञात एक साहित्य विधा मे लिखी गई कविता के प्रति सहिष्णुता एवं संयम का प्रदर्शन किया.

और भी कई पाठक थे जो इस प्रकार के असमंजस में थे, लेकिन जब उन्होंने इस विचित्र सी दिखने वाली कविता पर मेरी सकारात्मक टिप्पणी पढी तो जल्दबाजी में कोई भी नकारत्मक टिप्पणी करने के बदले ईपत्र द्वारा सीधे मुझसे सम्पर्क किया एवं पूछा कि मैं ने क्यों ऐसी टिप्पणी लिखी. मैं उन पत्र-लेखकों का आभारी हूं. मेरी पहली टिप्पणी थी: “हल्के फुल्के चिंतकों/रचनाकारों पर गजब का satire लिखा है आप ने — शास्त्री जे सी फिलिप” पत्र लेखकों में से एक व्यक्ति ने मझे लिखा

  • “ये आप की टिप्पणि है और हम आपकी बहुत इज्जत करते है,पर ये आपके नाम के अनुरूप नही है या शायद आप जानते ही ना हो कौन है सुमित्रा नंदन पंत, निराला, महादेवी ये हिन्दी कविता के स्तंभ है. सुरज को किसी की रोशनी की जरुरत नही होती,पर अगर कोई जुगनू, पतंगा, भुनगा, डींग मारने लगे तो परवा भी नही होती पर आप जैसा सज्जन अगर उन्हे हल्के फुल्के चिंतकों/रचनाकारों बताये तो या तो आप अज्ञानी है या फ़िर हम सब की तौहीन पर उतारु पाखंडी राजनेता जो अब अपना चोला उतार रहा है जो अब तक बगुला भगत बना हुआ था”.

मैं इस लेखक का नाम नही प्रगट करूगा क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरा अनादर करने के बदले बहुत आदर के साथ मेरे प्रति अपनी कुण्ठा का प्रदर्शन एक निजी पत्र में किया है. अब प्रबुद्ध पाठक इस कविता का मर्म समझ लें जो इस प्रकार है:

  • इस कविता में कवि अपनी भावना नहीं लिख रहा है. वह उन लोगों पर व्यंग कर रहा है जो सिर्फ कल लेखन की दुनियां में आये है, लेकिन स्थापित लेखकों को नीचा देख कर अपने आप के बारे में सोचते हैं कि वे इन स्थापित लेखकों से अच्छा लिख लेंगे. इसमें प्रथम-पुरुष इस कविता का लेखक नहीं बल्कि वे अहंकारी नौसीखिये लेखक हैं जिनकी सोच यहां रेखांकित की गई है. यह व्यंग की एक विधा है जिसे satire/irony कहा जाता है.
  • हल्के फुल्के लेखकों की सोच को लेखक ने इस कविता में व्यक्त किया है. यह समझ लें तो नीरिजा जैसे लोगों ने जल्दबाजी में जो लिखा है वह कितना गलत है यह समझ में आ जायगा.
  • हल्के फुल्के लेखक पंत या निराला नहीं हैं, बल्कि वे नौसीखिये लेखक हैं जिनके मन के अहंकार को लेखक ने अपनी इस कविता के द्वारा प्रदर्शित किया है. मेरी टिप्पणी अहंकार के इस प्रदर्शन की satire/irony विधा में आलोचना,
    एवं नौसीखिये लेखकों के विरुद्ध है, न कि हिन्दी के महान लेखकों के विरुद्ध.
  • कृपया टिप्पणी करने से पहले यह समझ लें कि यह किस विधा की कविता है, एवं कौन है जो हिन्दी के इन महान हस्तियों के विरुद्ध इस कविता में बोल रहा है.

अब विधा समझे बिना (एवं इस काव्य में प्रथम पुरुष कौन है इसे समझे बिना) जल्दबाजी में की गई नीरिजा की टिप्पणी जरा देखिये:

  • जुगनू करने चला रोशनी,क्या वो सूरज बन पायेगा
    दिन मे निकल गया गर बाहर भस्म वही हो जायेगा
    इच्छाये तो है तेरी,पर अपनी यू औकात तो देख
    समझ रहा जिसको तो कविता कूडे से है बदतर लेख
    साईकल सीखा नही सही से,हवाई जहाज उडायेगा
    कुये का मेढक है तू बेटा,कोलम्बस नाम धरायेगा
    जब तू लिखेगा तब देखेगे,अबी तो बेटा चलना सीख
    कन्धे से उतार जुआ,मैदान मे आकर मिलना सीख
    कमंद बाधनी आई नही और गांव मे डंका पीट रहा
    बिच्छू काटे का पता नही और साप का मन्तर सिखा रहा
    पंत की बाते छोड तू बेटा,दो लाईने ही जोड दिखा
    उपर से तू ठीक भले हॊ,दिल मे सबको तेरे कोढ दिखा
    लिखेगा अच्छा सब मानेगे,पर बुरा तो लिखना छॊड जरा
    संकीर्ण विवार से निकल के बाहर,दिल तो सबसे जॊड जरा
    पजामे से बाहर निकल रहा,तू नाडा बांधना तो सीख जरा
    फ़टे मे दूसरो के खुब डाल टांग,पर अपनी तो हालत देख जरा

यह रवीश कुमार के अहंकार का मूल्यांकन नहीं है बल्कि नीरिजा की जल्दबाजी का प्रदर्शन है. उनका अपना चिट्ठा है गुलद्स्ता लेकिन फिलहाल इसमें एक भी फूल (लेख/चिट्ठा) नहीं है. यदि अभी से इतनी असहिष्णुता उनकी कलम में है, तो जब गुलदस्ता सजेगा तो किस तरह के फूल होंगे यह हम सब समझ सकते हैं.

मेरे माननीय मित्र किसी सहित्य/काव्य विधा को न समझते हों तो कोई ताज्जुब नहीं है. हम में से कोई भी सर्वज्ञ नहीं है. नई विधा अचानक दिख जाने पर हरेक को असमंजस होता है. लेकिन प्रिय मित्र कम से कम जल्दबाजी में सार्वजनिक रूप से अशोभनीय टिप्पणी कर अपने अज्ञान को प्रगट न करें. छोडा गया तीर व बोला गया वाक्य वापस नहीं लिया जा सकता है. हां सार्वजनिक रूप से की गई गलत टिप्पणी जब आपके नाम (एवं छाया चित्र के साथ) के साथ किसी चिट्ठे पर प्रगट होती है तो अफसोस करने के लिये एवं हाथ मलने के लिये आपके पास बहुत समय बच जाता है. आपकी टिप्पणी को देख जगहसाई जो होती है वह अलग.

— शास्त्री जे सी फिलिप

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Author: Super_Admin

9 thoughts on “सुमित्रानंदन की तरह मैं कूड़ा नहीं लिखूंगा — सच???

  1. चलिये आपने अच्छी तरह से स्थिती स्पष्ट कर दी है. साधूवाद.
    अब मैं अपनी स्थिती स्पष्ट कर दूँ. मैने रविशजी को दो पंक्तियाँ लिखी. काम के बीच में लिखता हूँ इसलिए संक्षेप में ही लिख पाता हूँ.
    पहले लिखा, “अगर यह व्यंग्य है तो अच्छा व्यंग्य है” इसे ऐसे लिखना चाहिए था की इसे एक व्यंग्य के रूप में देखें तो…अच्छा व्यंग्य है.
    फिर लिखा, “अगर यह खुद पर लिखी कविता है तो बहुत बुरी कविता है”. यह दरअसल उनकी कविता की समीक्षा है जिसे ऐसे लिखा जाना चाहिए था कि अगर इसी खुद पर ही लिखी हुई कोई कविता माने तो एक कविता के रूपमें बहुत ही बुरी कविता है. क्षमा करना रविशभाई. मगर कविता अजिब लगी 🙂

  2. शास्त्री जी; आपको जिसने भी ये ई-पत्र लिखा मैं उसकी कड़ी भर्त्सना करता हूं क्योंकि आप इस चिठ्ठा जगत में तो बाद में आये हैं, हम तो पहले ही आपको, आपकी हिन्दी के प्रति सेवाओं और आपके हिन्दी के गहन अध्ययन को जानते हैं.

    मैंने भी एक नई सी ही विधा में हिन्दी के अच्छे लेखक एवं कूड़ा लेखन पर एक लेख लिखा है. http://hindigear.com/?p=25. हमने इस पोस्ट में ये कामना की है कि अगर कोई लेखक कूड़ा लिख जाये तो वो कूड़ा लेखन कूड़ाघर में जाये, उस लेखक को पसंद करने वाले तक न पहुंचे. न किसी लेखक के फैन को शर्मसार होने का मौका मिले.

  3. अब ये satire के रुप में लिखा गया है या sarcastic के रुप में ये तो लेखक ही बता पाएंगे। और रही बात नीलिमा जी कि तो वो भी अपनी बात ही खुद से रखे तो जायदा बेहतर हो । मैं इस बारे में कोई टिका टिपण्णी नही करना चाहता हू ।

    लेकिन लेखक का मौन रहना कुछ समझ में नही आया

    Rajesh Roshan

  4. शास्त्रीजी, लोगों को शायद घटनाक्रम की जानकारी नहीं होगी, अन्यथा यह बहुत ही चुभने वाला व्यंग्य है।

  5. शास्त्री जी यद्यपि मुझे काव्य आदि का ज्ञान नहीं है, तो भी कविता पड़ते ही मैं उसका मर्म समझ गया था लेकिन बाकी लोग पता नहीं क्यों नहीं समझे। खैर उम्मीद है अब मामला साफ हो गया होगा।

  6. शास्त्री जी,
    आपसे मै पूरी तरह सहमत हूं। रवीश जी की कविता एक तीखा व्यंग्य है।

  7. do read William Makepeace Thackeray if you are interested in reading satire. I would like to defer on the claim of it being sarcastic, it was classical satire — it lacked overt satire but then it did hit the right spot.

  8. अपनी लिखी गई बातों पर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं, समीझाएं पढ़कर अच्छा लगा। आलोचनाओं के प्रति इतनी लोकतांत्रिकता और सहिष्णुता कम नजर आती है। मैंने भी नामवर के मज़ाक का मज़ाक उड़ाया। आपने भी वही किया। व्यंग्य कामयाब रहा। यही मकसद था। कि आप इसे लताड़े मगर समझें भी। अजीब कविता को अजीब ही कहा जाना चाहिए।

    मैं कभी महान कवि नहीं हो सकता। महान पत्रकार और लेखक भी नहीं। यह घोषणा किसी ज्योतिष ने नहीं की है। बल्कि मेरा फैसला है। मैं सामान्य रहते हुए सामान्य और सहज लिखना चाहता हूं। कृपया मेरे लिखे हुए को इसी नज़र से देखिये। मगर पढिये ज़रूर। अच्छा लगता है। बहस की संभावना एक और रचना पैदा करती

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