वे बोले,
रेलगाडी के पहिये
मेरी प्रेरणा के
स्रोत हैं.
देखिये न,
वे सदा आगे को
बढते रहते हैं,
फिर भी अपनी धुरी से
अलग न हटते
सजा
“हुजूर”
चोर बोला,
मुझे सरकारी वकील नहीं
आपका निर्णय चाहिए.
अपना कानूनी हक नहीं
बल्कि सजा चाहिये.
कम से कम
कुछ दिन बिना
फिकर की
रोटी चाहिये.
दोनों कविताएं पसंद आई।
जब रचना इतनी प्रेरक हो तो
अधीरता भी बढ़ती जाती है मन के कोलाहल
में आतुरता भरने लगती है…
सच को जानता हर मानव पंथी है पर
उसमें स्वयं उतर जाना कोई चाहता ही नहीं…।
बहुत अच्छी कविता है…।बधाई!!!