आज अंग्रेजी हम हिन्दुस्तानियों के सर पर चढ कर ऐसा बोल रही है कि लगभग हर हिन्दी प्रेमी को लगने लगा है कि हिन्दी कभी भी अपने देश में राज नहीं कर पायेगी. लेकिन यह गलत सोच है. निराशावाद है. यदि 1857 में जब फिरंगी लुटेरे हिन्दुस्तान में अपनी शक्ति के शीर्ष पर थे तब लोग इसी तरह निराशावादी होते तो हम आज भी गुलाम होते. हमारे पूर्वजों को लगभग 140 साल और लडना पडा. इन 140 सालों में लाखों लोगों को लुटेरी गोरी सरकार ने गोली मार कर, फांसी देकर, युद्ध के द्वारा, एवं अन्य तरीकों से मार डाला. आजादी का कोई भी रास्ता सामने नहीं दिख रहा था. लेकिन लोग लडते रहे.
इसी तरह आज सचमुच में हिंदी के राज करने का रास्ता स्पष्ट नहीं दिख रहा है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम हार मान लें. जिस तरह से लगभग 1800 के आरंभ से ही लोग तन मन धन से देश की आजादी के लिये जुट गये थे, उसी तरह आज हजारों ऐसे लोगों की जरूरत है जो हिन्दी को अंग्रेजी की दासता से आजाद करने के लिये तन मन धन से जुट जायें.
चिट्ठा जगत इस तरह के एक आंदोलन को छेडने के लिये एक बहुत उपयुक्त माध्यम है. सबसे बडा फायदा यह है कि खर्चा कम है, जीवन हानि की संभावना भी नहीं है. अत: राजारंक, स्त्रीपुरूष, नौकरीशुदा-बेकार, जाल-पटु या जालशिशु, हर कोई यहां इस आंदोलन की कडी बन सकता है. यदि आजादी की 60वी वर्षगांठ पर यदि पचास भी चिट्ठाकर इस लक्ष्य के लिए अपने को समर्पित कर देंगे तो निश्चित ही यह आंदोलन आगे बढेगा. हिन्दी का प्रचार प्रसार होगा. पचास जल्दी ही पांचसौ हो जायेंगे, और फिर पांच हजार. एक दिन आयगा जब आजाद-हिन्दुस्तान के समान हिन्दी भी आजाद हो जायगी एवं राज करेगी — शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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शास्त्रीजी,
बहुत नेक विचार हैं, ईश्वर करे हम सब लोगों के प्रयास सफ़ल हों ।
साभार,
उत्तम विचार. बधाई.
शास्त्री, हम सभी की दिली ख्वाहिश भी यही है। हिंदी यकीनन एक दिन पूरे हिंदुस्तान पर राज करेगी। लेकिन ऐसा जबरदस्ती थोपकर नहीं हो सकता। लोग स्वेच्छा से इसे अपनाएंगे। यह अपनी अंतर्निहित शक्ति से वह स्थान हासिल करेगी जिसकी ये हकदार है।
क्या बात है. उत्तम शब्दावली है. जालपटु और जालशिशु.
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कर मूल.
बहुत ही नेक विचार है। अगर सब मिल कर करें तो ये नामुमकिन नही है।
अजी! आज भी हिन्दी ही तो राज कर रही है। यदि विदेशी मूल की होते हुए भी सोनिया गांधी जी ने हिन्दी सीख कर हिन्दी में भाषण देना शुरू नहीं किया होता तो वे आज भारत की ‘राजमाता’ के दर्जे पर नहीं पहुँच पाती। यदि जयललिता जी भी आज हिन्दी में भाषण दे रही हैं, तो उनको राष्ट्रीय राजनीति में सफलता अवश्य मिलेगी।
रही सरकारी कागजादों, उच्च शिक्षा, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि में अंग्रेजी के बाहुल्य की तो उसका तकनीकी कारण है। देवनागरी को उसके मूल रूप में लौटा लाएँ, बस! फिर यह अंग्रेजी से भी सरल होगी। और विश्व पर राज करेगी।
हरिराम जी आप के विचार ध्न्य हे,आप ने लिखा हे…रही सरकारी कागजादों, उच्च शिक्षा, इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि में अंग्रेजी के बाहुल्य की तो उसका तकनीकी कारण है। आप बातऎ गे यह तकनीकी कारण सिर्फ़ उन्ही देशो मे क्यू हे,जो कभी गुलाम थे,आप विश्व के अन्य देशो मे देखो .. जापान,फ़्रन्स,जर्मनी,इतली,रुस,ओर भी बहूत से देश हे,जापान ओर जर्मनी ने कितनी उन्नति की हे,जहा उन देशो ने हमारी तरह से तकनीकी कारणो का बाहाना बना कर अंग्रेजी बेशाखी का साहारा नही लिया,न ही किसी एरा गेरा को राजमाता बनाया हे,
शास्त्रीजी,माफ़ी चाह्ता हू आप से,ओर हरिराम जी आप से भी माफ़ी चहूगा अगर आप को मेरी किसी बात से ठेस पहुचे.
शास्त्रीजी,
आपकी आशावादिता को शत-शत नमन! ऐसा ही आशावादी दृष्टिकोण हिन्दी को उसके आसन पर विराजित करायेगा। इसी तरह की आशा के साथ विचारपूर्वक किया गया उद्योग ही हर सफलता का गुप्त रहस्य है।
हिन्दी अवश्य राज करेगी। एक तरह से देखा जाए, तो उसकी शुरूआत हो भी गयी है। हम जो आपके लेख यहां इस रूप में पढ रहे हैं, यह इसी शुरूआत को ही दर्शाता है। एक अच्छे लेख के वास्ते आपको बहुत बहुत बधाई।
आमीन!