20 रुपये का कुर्ता कैसे विदेश हो आया !

मैं ने 1970 में कंठ लंगोट त्याग दिया क्योंकि मुझे लगा कि इस विदेशी लंगोट को परिष्कृत होने की निशानी मानना मानसिक गुलामी की निशानी है. नौकरी लगने के कई साल बाद 1981 में मैं वजीफे पर पत्रकारिता में उच्चतर ट्रेनिंग के लिया सिंगापुर गया. यह मेरी पहली विदेशयात्रा थी. उन्होंने अपनी नियमावली पहले से भेज दी थी जिसमें शर्त थी कि अधिकतर कार्यक्रमों में सिर्फ सूट पहन कर ही प्रवेश कर सकते हैं. मैं ने जाने से मना कर दिया, लेकिन वे लोग चाहते थे कि मैं किसी भी तरह वहां जाऊं.

मेरा चयन काफी विशेष था. वरिष्ठ पत्रकारों के लिये आयोजित इस ट्रेनिंग में 35 साल से ऊपर की उमर के ही लोग लिये जाते थे. लेकिन लेखन के क्षेत्र में मेरे योगदान के कारण नियम में ढील करके 27 साल की उमर में मुझे यह वजीफा दिया गया था, अत: वे किसी भी हालत में मेरी उपस्थिति चाहते थे. आपस में सलाह मश्विरा करने के बाद मुझे सूचित किया कि यदि मैं अपने स्वयं का “देशीय” परिधान पहनूं तो सूट-लंगोट की जिद नहीं की जायगी.

उन दिनों मेरी तनख्वाह काफी सीमित थी अत: फुर्ती से महाविद्यालय के सामने वाली सडक पर 20 रुपये में खादी के जो कुर्ते बिकते थे उन में से 5 खरीद लिये. यह मेरे जीवने मे वस्त्रो पर किया गया सबसे बडा निवेश निकला. सिंगापुर हवाईअड्डे से लेकर वहां के निवास के पूरे एक महीने स्थानीय लोग मेरे खादी के कशीदाकारी किये कुर्ते को ध्यान एवं आदर से देखते थे. ट्रेनिंग खतम होने पर मेरे हिन्दुस्तानी परिधान की विशेष तारीफ हुई एवं चार कुर्ते विदेशी मित्रों ने धरवा लिये. इसके बाद बहुत सी विदेश यात्रायें कीं, लेकिन मेरा परिधान यही रहा.

हमें भारतीय वस्त्रों को गर्व के साथ पहनना चाहिये. शुरू शुरू में लोग इसका मजाक उडायेंगे (यह लज्जजनक काम अधिकतर भारतीय लोग करते हैं, विदेशी नहीं), लेकिन हिम्मत रखिये, एक दिन लोग आपकी नकल करेंगे.

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Author: Super_Admin

6 thoughts on “20 रुपये का कुर्ता कैसे विदेश हो आया !

  1. अत्यन्त प्रेरणास्पद !!

    आपका यह निरीक्षण भी निर्विवाद है कि भारतीय परिधानों का मजाक उडाने का लज्जाजनक काम भारतीय लोग ही करते हैं, विदेशी नहीं!

  2. सच बहुत ही प्रेरणादायक है । और ये हम ही है जो अपनी संस्कृति को कम समझते है।

  3. शास्त्री जी, वैसे कुर्ता आपकी तस्वीर में आप पर फबता भी खूब है. 🙂

    मगर इन नेताओं को कुर्ता पहन कर जिस तरह संस्कृति को बदनाम करते देखा है, इसे संस्कृति की रक्षा का प्रतीक मानने का मन नहीं करता.

    संस्कृति की रक्षा तो आचरण से, वचन से, भावना से और करमों से होती है-फिर इससे क्या फरक पड़ता है कि हम कंठ लंगोट पहने या कुर्ता?

    मेरा तो यह विचार होता है कि जहाँ जाना है और अगर वहाँ का कोई ड्रेस कोड है, तो उसे अपनाने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये. अगर कोई कोड नहीं है तो निश्चित ही जो आपको पसंद आये वो करना चाहिये.

    कुछ रोज पहले ही यहाँ स्वामी नारायण के भव्य मंदिर का उदघाटन कनाडा के प्रधान मंत्री ने किया. साथ में प्रिमियर और अनेंकों कनेडियन मंत्री मौजूद थे. सभी नें मंदिर में घुसने के पहले अपने जूते उतारे और हाथ धोये जबकि उनकी संस्कृति में वो चर्च में जूते पहन कर जाते हैं. यह देखकर सभी को अच्छा लगा. उन्होंने हम हिन्दुओं की भावनाओं की कद्र की. साथ ही इससे उनकी संस्कृति को भी कोई ठेस नहीं पहुँचीं वरन उसका स्थान बढ़ा ही.

    मैं आपके विचारों का विरोध नहीं कर रहा बल्कि सिर्फ अपने विचार रख रहा हूँ.

  4. आपने सही कहा, असल में देशी परिधान को लेकर हीनभावना स्वयं हमारे मन में ही होती है। मेरे पिताजी धोती-कुर्ता पहना करते हैं, स्कूल में पहले शास्त्री थे तथा बाद में प्रोन्नति पाकर प्रवक्ता बने। मैंने एक बार उनसे पूछा कि जब उन्होंने पतलून-कमीज त्याग कर कुर्ता-धोती पहनना शुरु किया तो क्या उन्हें अजीब नहीं लगा तथा लोग हँसे नहीं तो उन्होंने कहा कि यह सब भावना हमारे मन में ही होती है। यदि हम खुद अपने परिधान के प्रति हीनभावना रखकर गर्व से पहने तो लोग भी उसके प्रति अपने विचार बदल देंगे।

    उनका दूसरा तर्क है कि एक सामान्य साफ-सुथरे धोती-कुर्ता में जो व्यक्तित्व मेरा है, उसके स्तर का पश्चिमी परधान में प्राप्त करने के लिए बहुत महंगा सूट तथा बहुत सा झंझट करना होगा।

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