स्त्रियों को बेदर्दी से अनावृत करते नियम

आजनिम्न लेख  मिर्ची सेठ भाई सुन रहें हो तो कुछ इस तरफ भी ध्यान …" ने  उन्मुक्त जी के एक लेख एकान्तता और निष्कर्ष: आज की दुर्गा  की ओर मेरा ध्यान अकर्षित किया  जिसे पढ कर मैं चौंक गया. हिन्दुस्तान के एक सरकारी दफ्तर में एक स्त्री को लिखित में जिन प्रश्नों का जवाब देना पडा वे ये है:

* रजोधर्म की आखिरी तिथि क्या है?
* क्या वे गर्भवती हैं?
* उनका कभी गर्भपात हुआ है कि नहीं, इत्यादि।

WomanSlave_PDF [चित्र: स्त्रियों को जब गुलामी में बेचा जाता था तब इस तरह से उनको पूरी तरह अनावृत करके सामूहिक तौर पर जानवरों के समान जांचा जाता था. मूल चित्र में स्त्री पूरी तरह अनावृत है एवं चित्र इससे काफी बडा है]

किसी एक स्त्री ने इन प्रश्नों का जो लिखित जवाब दिया था उसमें तकनीकी गलती निकाल कर उसे नौकरी से निकाल दिया था. सवाल यह है कि हमारे अपने आजाद हिन्दुस्तान में क्या स्त्रियों को अपने एकांतता (right to privacy)  की गारंटी नहीं है क्या? जिस तरह से स्त्रियों को अनावृत करके जानवरों के समान उनकी नुमाईश की जाती थी वैसा अब भी चलेगा क्या?

आज ऐसे हजारों कानून बच गये हैं जिनको हम आजाद भारतीयों ने नहीं बल्कि हमारे देश के विदेशी लुटेरों ने बनाया था. प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें. आज हिन्दुस्तान हमारा अपना देश है, अत: हमारा कोई भी नियमकानून ऐसा नहीं होना चाहिये जो हमारे स्वाभिमान को नीचा दिखाता हो. (कृपया मूल लेख को जरूर पढें).

 

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Author: Super_Admin

13 thoughts on “स्त्रियों को बेदर्दी से अनावृत करते नियम

  1. आज जब हम अपने घरों में झांक कर देखते हैं या अपने आस-पास देखते हैं तो लगता है जैसे समाज में सुधार हो रहा है.. मगर तभी कुछ ऐसी घटनाऐं सामने आती हैं जो हमारे भ्रम को चकनाचूर कर डालती है..
    कभी-कभी उसी भ्रम में जीना अच्छा भी लगता है, पर हम नहीं जी सकते हैं.. हमें सच्चाई पता जो है..

  2. सरकारी दस्तावेज़ मे ऐसी पूछताछ!!!
    अफ़सोसजनक ही नही बल्कि दुखद है
    इसके खिलाफ़ तो आवाज़ बुलंद करने की ज़रुरत है!

  3. उन्मुक्त जी ने जो इस तरफ़ रोशनी डाली है, उनका बहुत आभार.
    शास्त्री सर आपके सशक्त लेखन ने उसे और “ज्वलंत” बना दिया है.

    आपका कहना है
    “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.”
    इससे मैं सहमत अवश्य हूँ , पर कुछ और भी कहना चाहता हूँ – आशा है आप इज़ाज़त देगें…

    मुझे लगता है की कानून का अध्ययन तो शायद कम ही लोग कर पायें.

    और कानून बनाना और समझना बेहद तकनीकी कार्य है, इसलिये जब नया संविधान बना तब तकनीकी कारणों से विदेशी प्रभाव भी अवश्य था, परंतु मेरा सवाल यह है की – क्या “विदेशी लुटेरे” हमारी सोचने की क्षमता, या दूसरों का आदर करने की भावना को भी साथ ले गयें हैं??

    शास्त्री सर, यदि आपके पास समय हो, और आपको सवाल उचित लगे, तो थोड़ा बताइयेगा की क्या ऐसा हो सकता है, की यह सब शायद केवल इसलिये हो रहा है, की प्रत्येक व्यक्ति (सभी से निवेदन है की वे ध्यान दें – “व्यक्ति”, ना की पुरूष, या औरत) कुछ भी नहीं करना चाहता, जब तक की उसके अपने ऊपर ना बन आये.

    सब – चाहे वो पुरूष (या औरत रहें हैं) जिन्होंने यह फार्म भरवाये – या वे महिलायें जिन्होंने यह फार्म भरे – उन्होंने इसे accept किया, जब तक की किसी की यह “मुसीबत” नहीं बना. क्यों ????

    क्यों हम सब ऐसे होते जा रहें हैं की सब कुछ बरदाशत है – बशर्ते की वो हमारे साथ ना हो रहा हो??? या गलत भी है, तो केवल (फार्म भरते समय) कुछ मिनट की असुविधा ही तो है – क्यों इस “बड़े” system के खिलाफ़ आवाज उठायी जाये – गलती सहन करो और आगे “प्रगति” करो ..
    क्यों ऐसी दौड़ है?? और इस तरह से कौनसी मंज़िल पर “हम” पहुँचेंगे ??

    और यही “सहते रहना”, इस system को “बड़ा” बनाता है – वरना तो विदेशी तो कब के चले गये – अब समाज हमारा ही है, मगर क्या हम समाज को अपना मानते हैं??? अगर हाँ, तो फिर क्यों नहीं इसे अच्छा बनाने के लिये कुछ सार्थक कदम लेते – क्यों सह कर “आगे” बढ़ते रहने की दौड़ है, या फिर और भी दुखद और शर्मनाक, की ऐसे बेहुदे “कानुन” के दम पर शतरंज का खेल – इसे बहाना बना कर, किसी को निकालो, किसी को भर्ती करो…

    क्यों अपनी गलती हम विदेशियों पर, या कानून पर डाल रहें हैं?
    आपकी बात अवश्य सही है और उन्मुक्त जी का बेहतरीन लेख भी स्प्ष्ट करता है की संविधान का “अनुच्छेद २१ स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार की बात करता है पर एकान्तता की नहीं।” कानुन में सुधार का कार्य तो निरंतर आवश्क होता है.

    “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.”
    कानून में बदलाव बेहद जरूरी है.
    पर मैं सोचता हूँ की ऐसे तकनीकी इलाज से ज्यादा जरूरी है, छोटे-छोटे कदम, जो हम और आप सब ले सकते हैं
    1. आपकी आवाज़ कीमती है – अगर आप को कुछ गलत दिखे, तो उसको गलत अवशय बतायें और शिकायत दर्ज करने का जो भी तरीका समाज के अनुकुल है, सभ्य है – उसे अपनाते हुये शिकायत दर्ज़ करें. चुप ना बैठें.
    2. आपका साथ कीमती है – दुर्भाग्यवश आज समाज ऐसा है, की हो सकता है एक व्यक्ति की आवाज़ कमज़ोर पड़ जाये, या वो थक जाये – इसलिये कल बेहतर हो – कल आपके साथ, या आपके किसी जानने वाले के साथ, या किसी के भी साथ वो गलत ना हो, तो इसके लिये यह आवशयक है, की आप साथ दें – इसमें ज्यादा समय नहीं लगता – और जितने लोग साथ आते हैं, उतना कम समय लगता है और “बात” मज़बूत बनती है.

    छोटी-छोटी चीज़ें करने से भी बहुत बदलाव सम्भव है – हर चीज़ में सुप्रीम कोर्ट को काम करना पड़ा या हर चीज़ की जिम्मेदारी कानून के अध्ययन पर डाली गई, तो बदलाव आने में बहुत देर लगेगी और कहीं वो “गलती” तब तक आप को भी चोट ना पहुँचा दे.

    इसी केस को ले लिजीये – यदि किसी ने इसके खिलाफ़ पहले आवाज़ उठायी होती – और दूसरों ने साथ दिया होता – तो मैं मानता हूँ की बहुत पहले ऐसा शर्मनाक फार्म हट गया होता – ना यह गंदा शतरंज का खेल होता – ना किसी को सुप्रीम कोर्ट का किमती वक्त लेना पड़ता, और ना किसी को इतना परेशान हो कर न्याय के लिये भागना पड़ता ..

    कोई तकनीकी या बहुत बड़ी चीज़ें नहीं हैं यह सब, मगर ना जाने क्यों मेरा मन कहता है की यह छोटी-छोटी चीज़ें बहुत मदद कर सकती हैं.

  4. उन्मुक्त जी ने जो इस तरफ़ रोशनी डाली है, उनका बहुत आभार.
    शास्त्री सर, आपके सशक्त लेखन ने उसे और “ज्वलंत” बना दिया है.

    आपका कहना है
    “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.”
    इससे मैं सहमत अवश्य हूँ , पर कुछ और भी कहना चाहता हूँ – आशा है आप इज़ाज़त देगें…

    मुझे लगता है की कानून का अध्ययन तो शायद कम ही लोग कर पायें.

    और कानून बनाना और समझना बेहद तकनीकी कार्य है, इसलिये जब नया संविधान बना तब तकनीकी कारणों से विदेशी प्रभाव भी अवश्य था, परंतु मेरा सवाल यह है की – क्या “विदेशी लुटेरे” हमारी सोचने की क्षमता, या दूसरों का आदर करने की भावना को भी साथ ले गयें हैं??

    शास्त्री सर, यदि आपके पास समय हो, और आपको सवाल उचित लगे, तो थोड़ा बताइयेगा की क्या ऐसा हो सकता है, की यह सब शायद केवल इसलिये हो रहा है, की प्रत्येक व्यक्ति (सभी से निवेदन है की वे ध्यान दें – “व्यक्ति”, ना की पुरूष, या औरत) कुछ भी नहीं करना चाहता, जब तक की उसके अपने ऊपर ना बन आये.

    सब – चाहे वो पुरूष (या औरत रहें हैं) जिन्होंने यह फार्म भरवाये – या वे महिलायें जिन्होंने यह फार्म भरे – उन्होंने इसे accept किया, जब तक की किसी की यह “मुसीबत” नहीं बना. क्यों ????

    क्यों हम सब ऐसे होते जा रहें हैं की सब कुछ बरदाशत है – बशर्ते की वो हमारे साथ ना हो रहा हो??? या गलत भी है, तो केवल (फार्म भरते समय) कुछ मिनट की असुविधा ही तो है – क्यों इस “बड़े” system के खिलाफ़ आवाज उठायी जाये – गलती सहन करो और आगे “प्रगति” करो ..
    क्यों ऐसी दौड़ है?? और इस तरह से कौनसी मंज़िल पर “हम” पहुँचेंगे ??

    और यही “सहते रहना”, इस system को “बड़ा” बनाता है – वरना तो विदेशी तो कब के चले गये – अब समाज हमारा ही है, मगर क्या हम समाज को अपना मानते हैं??? अगर हाँ, तो फिर क्यों नहीं इसे अच्छा बनाने के लिये कुछ सार्थक कदम लेते – क्यों सह कर “आगे” बढ़ते रहने की दौड़ है, या फिर और भी दुखद और शर्मनाक, की ऐसे बेहुदे “कानुन” के दम पर शतरंज का खेल – इसे बहाना बना कर, किसी को निकालो, किसी को भर्ती करो…

    क्यों अपनी गलती हम विदेशियों पर, या कानून पर डाल रहें हैं?
    आपकी बात अवश्य सही है और उन्मुक्त जी का बेहतरीन लेख भी स्प्ष्ट करता है की संविधान का “अनुच्छेद २१ स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार की बात करता है पर एकान्तता की नहीं।” कानुन में सुधार का कार्य तो निरंतर आवश्क होता है.

    “प्रबुद्ध भारतीयों की जिम्मेदारी है कि वे इन कानूनों का अध्ययन करके उनको आजाद भारत के लिये संशोधित करने की दिशा में कार्य करें.”
    कानून में बदलाव बेहद जरूरी है.
    पर मैं सोचता हूँ की ऐसे तकनीकी इलाज से ज्यादा जरूरी है, छोटे-छोटे कदम, जो हम और आप सब ले सकते हैं
    1. आपकी आवाज़ कीमती है – अगर आप को कुछ गलत दिखे, तो उसको गलत अवशय बतायें और शिकायत दर्ज करने का जो भी तरीका समाज के अनुकुल है, सभ्य है – उसे अपनाते हुये शिकायत दर्ज़ करें. चुप ना बैठें.
    2. आपका साथ कीमती है – दुर्भाग्यवश आज समाज ऐसा है, की हो सकता है एक व्यक्ति की आवाज़ कमज़ोर पड़ जाये, या वो थक जाये – इसलिये कल बेहतर हो – कल आपके साथ, या आपके किसी जानने वाले के साथ, या किसी के भी साथ वो गलत ना हो, तो इसके लिये यह आवशयक है, की आप साथ दें – इसमें ज्यादा समय नहीं लगता – और जितने लोग साथ आते हैं, उतना कम समय लगता है और “बात” मज़बूत बनती है.

    छोटी-छोटी चीज़ें करने से भी बहुत बदलाव सम्भव है – हर चीज़ में सुप्रीम कोर्ट को काम करना पड़ा या हर चीज़ की जिम्मेदारी कानून के अध्ययन पर डाली गई, तो बदलाव आने में बहुत देर लगेगी और कहीं वो “गलती” तब तक आप को भी चोट ना पहुँचा दे.

    इसी केस को ले लिजीये – यदि किसी ने इसके खिलाफ़ पहले आवाज़ उठायी होती – और दूसरों ने साथ दिया होता – तो मैं मानता हूँ की बहुत पहले ऐसा शर्मनाक फार्म हट गया होता – ना यह गंदा शतरंज का खेल होता – ना किसी को सुप्रीम कोर्ट का किमती वक्त लेना पड़ता, और ना किसी को इतना परेशान हो कर न्याय के लिये भागना पड़ता ..

    कोई तकनीकी या बहुत बड़ी चीज़ें नहीं हैं यह सब, मगर ना जाने क्यों मेरा मन कहता है की यह छोटी-छोटी चीज़ें बहुत मदद कर सकती हैं.

  5. @durga
    sabke paas kehaan itna taaim haen kii auro kee sochae .
    aap ne bhi is vishay ko tabhi padha jab shastri jee ne likha , kya aapne unmukt jee ka blog dekha .
    @sameer
    sadhuvaad kee hakdaar toh meri post bhi hae per aap pehle hee unmukt jee kee post per comment kar chukae haen is liyae hame naa bhi saduvaad de koi baat nahin
    @othe bloggers
    awaj kaun buland karga kya koi bahaar se aayega , unmukt ne kar to dee aap sab apnee sahmatee kee ek tipaani vahaan bhi dete

  6. @भाई सुन रहें हो तो कुछ इस तरफ भी ध्यान दे दे
    मैं ज्यादा ब्लौग नहीं पढ़ पाता हूँ – इसलिये उन्मुक्त जी का ब्लौग नहीं देख पाया.
    मुझे नहीं पता की कौन कौन अच्छा लिखता है.

    हाँ, शास्त्री सर के साइट के सहारे जरूर धीरे धीरे अच्छे ब्लौग का पता लग जायेगा.
    आपका ब्लौग भी मैंने देखा था.

    जहाँ तक आपका कहना है “sabke paas kehaan itna taaim haen kii auro kee sochae .”
    तो यही मैं कहना चाहता हूँ की इसमें औरों की नहीं – “आपकी”, “मेरी”, “हम सब” की बात है.
    और “सब” साथ दें तो ज्यादा वक्त नहीं लगता.
    यह औरों के लिये नहीं – “अपने” लिये ही time निकालना है.
    आप “अपने” लिये time नहीं निकालेंगे, तो कोई “और” भी नहीं निकालेगा.

  7. लिंक देने के लिये धन्यवाद।
    इस लिंक के कारण बहुत से लोगों ने मेरा वह लेख पढ़ा जो कि उन्होने नहीं पढ़ा था।
    आभार

  8. बहुत ही घटिया बेसिर पैर की बात नजर आती है इन सब जानकारी से भला नौकरी का क्या संबंध…उन्मुक्त जी का चिट्ठा भी पढ़ा अभी-अभी और उनकी आवाज में सुना भी…मन बहुत खराब हो गया सुन कर…न ही विश्वास हो रहा है…

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