उन्नीससौ साठादि के आरंभ की बात है. मै शालेय विद्यार्थी था. सोवियत संघ एवं उसके प्रचार तंत्र का सारी दुनियां में बोलबाला था. मनुष्य को पहली बार अंतरिक्ष में भेज कर विज्ञान की दौड में सोवियत संघ सबसे आगे पहुंच गया था. अचानक सोवियत संघ के तब के नायक ख्रुश्चेव ने एक विस्फोटक प्रस्ताव रखा:
“हमारे यात्रियों ने अंतरिक्ष में हर जगह ढूढा, लेकिन इश्वर को वहां कहीं भी नहीं देखा”
सारी दुनियां के आस्तिक हिल गये, क्योंकि यह उनके लिये एक भावनात्मक चुनौती थी. अचानक एक दिन एक आम आदमी ने उसका जवाब दिया:
“जनाब, कल हमारे बगीचे की मिट्टी में बसने वाल एक केंचुआ पहली बार मिट्टी के बाहर आया और अपने दुम पर खडा हो गया. उसने चारों ओर नजर डाली एवं बोला कि मुझे ख्रुश्चेव नाम कोई व्यक्ति न दिखा. निराश होकर वह फिर से मिट्टी के नीचे अपनी अंधेरी दुनियां में वापस चला गया”.
“आदरणीय महाशय, उस अज्ञान केंचुवे ने आपके बारे में जो कहा, एवं आपने ईश्वर के बारे में जो कहा इन दोनों में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है”.
कई बार आम आदमी बहुत बडी फिलॉसाफिक समस्याओं का हल चार पंक्तियों सुझा देता है. समझने वाले के लिये इशारा काफी होता है.
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क्या जबरदस्त मारा है! शास्त्रीजी मैं तो सोचता था कि आप मात्र सीरियस छाप मनई होंगे। पर यह पोस्ट तो बहुत मजा दे गयी। भगवान को तो भूलते नहीं, अब ख्रुश्चेव को भी नहीं भूलेंगे! 🙂
बड़ी सरलता से आपने भी जटिल दार्शनिक बात को समझा दिया. ‘कहाँ ढूँढे रे बंदे वो तो तेरे पास है’मेरी बुद्धि मे यही बात बैठी है. दूसरा यह कि कभी कभी बड़ी जटिल समस्याओं का समाधान भी छोटी छोटी आसान बातों मे ही मिल जाता है.
हम इशारों इशारों में ही समझ गये.
ईश्वर अगर है तो वह शक्ति है, अदृश्य है, प्रकृति की शक्तियों में निहित है। ख्रुशचेव की तरह के जो लोग ईश्वर के वजूद को खंडित करना चाहते हैं, वे भी असल में एक तरह के अंधविश्वास के शिकार हैं।
रख के दिया , न केवल दिया बल्कि हिला दिया!!
आदरणीय शास्त्रीजी
यह तो खुश्चेव के प्रश्न का सही जवाब नहीं हुआ। मैं आस्तिक तो नहीं पर नास्तिक भी नहीं। पर जब भी विद्वानों से इस तरह के प्रश्न किये हैं तन इसी तरह के उलूल झूलूल जवाब मिले।
खुश्चेव का प्रश्न गलत तो नहीं था!!!
@सागर
प्रिय सागर मेरा उद्देश्य प्रश्न का ज्वाब देना नहीं ब्ल्कि यह बताना था कि प्रश्न सही नहीं था.
Gazab! bahuhut accha.
ख्रुशचेव भी निरा अहमक निकला, अंधेरों में बंद केंचुओ से उलझने चला। जिन्हें अंधेरे पसंद हैं उन्हें वहीं रहने दे भाई, उजाले इनसे बर्दाश्त नहीं होते
वाह मजेदार प्रसंग सुनाया शास्त्री जी। हवा और सुगंध हमें दिखाई नहीं देती तो वैसे ही क्या हम उसके अस्तित्व से इनकार कर सकते हैं। जिसकी नाक बन्द होगी वह सुंगझ सूंघ नहीं सकता इसी तरह जिसने अपने मन के दरवाजे बन्द कर रखे हैं वह भी ईश्वर को महसूस नहीं कर सकता।
बड़ा मजेदार रहा यह प्रसंग भी. देर से देखा मगर आनन्द उठाया.
कचुआ बाहर आया और बोला ……………………………….. हा हा /बहुत बढिया