बचपन से ही भाषा के प्रति मेरी काफी रुचि रही है. धन्य हों मेरी हिन्दी अध्यापिकायें महादेवी गुप्ता एवं शकुंतला दुग्गल जिन्होंने मेरी भाषा की नीव डाली.
स्नातकोत्तर पठन के बाद शोध छात्र बन गया, लेकिन साथ ही पत्रकारिता का एक छात्र भी बन गया. वहां हम को बारबार बताया जाता था कि ऐसा लिखों कि पाठकों में से गधे से गधा भी विषय को समझ सके. इस कारण मैं ने अपने लिये एक ऐसा विशाल शब्द भंडार एकत्रित करना आरंभ किया जिसके द्वारा हर आशय को सरल से सरल शब्दों में प्रगट किया जा सके.
संयोग से 1990 में हंस नामक पत्रिका मेरे हाथ लगी एवं जल्दी ही मैं ने उसका आजीवन चन्दा भेज दिया. इसके लेखकों में से कई की विशेषता है कि हर अभिव्यक्ति के लिये वे सरल से सरल हिन्दी शब्द चुन कर लाते हैं. मैं ने ऐसे शब्दों को एक छोटी सी डायरी में लिख कर अपनी जेब में रखना, एवं समय मिलने पर उस सूची को फेरना शुरू कर दिया. आज मुझे गर्व है कि किसी भी विषय पर लिखनेबोलने के लिये मुझे हिन्दी में पर्याप्त शब्द मिल जाते हैं. वाकई में इस हंसे ने मुझे उडने के लिये पंख दिये. एक बार आप भी आजमा कर देखें.
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सही कहते हैं। सतत स्तरीय पढ़ते रहें – पूरी चेतनता से। भाषा स्वत: उत्तरोत्तर समृद्ध होगी।
हम तो इसे पढ़्ते ही हैं.
आपका सुझाव याद रहेगा । सहयोग देते रहें ।
सविनय
संजय ग़ुलाटी मुसाफिर
सहमत!! साहित्यिक पत्र पत्रिकाएं पढ़ने से फ़ायदा होता ही है!!
जब हम छोटी उम्र के थे तभी से बड़े भाई साहब के लाए गए साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं को पढ़ने का चस्का जो लगा था, वो आज तक कायम है!!
सच मे आपके अध्यापक धन्य हो गए जिन्हे आप जैसा शिष्य मिला. अध्यापक के लिए उत्तम शिष्य मिलना ऐसे जैसे साधना सफल हो गई हो.