(कम से कम चार सहस्त्र सालों से ठप्पा हिन्दुस्तान की निशानी है) ठप्पा शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है. इस लेख में मेरा तात्पर्य लकडी के ठप्पों से है जिनकी मदद से कपडों पर विभिन्न प्रकार के चित्र एवं बेलबूटे छापे जाते रहे हैं.
ऐसा अनुमान है कि कम से कम 4000 वर्षों से हिन्दुस्तानी कपडों का निर्यात होता आया है. ईसाईयों के धर्मग्रंथ बाईबिल में हवाला मिलता है कि तमाम प्रकार के व्यापारी लोग 1000 ईस्वी पूर्व जहाजों पर हिन्दुस्तान से बादशाह सुलैमान के लिये तमाम तरह की सामग्री ले जाते थे. भारतीय कपडे, सुगंधद्रव्य, मसाले, एवं अन्य कई व्यापारिक साधनों के कारण मध्यपूर्वी देशों के साथ काफी आदानप्रदान चलता था.
भारतीय कारीगर पत्थरों एवं लकडी में बारीक चित्र एवं बेलबूटे खोदने में बहुत आगे थे. पत्थरों का उपयोग भवन निर्माण के लिये एवं लकडी का उपयोग दरवाजे, खिडकियां, घरेलू उपकरण व रंगसाजों के लिये ठप्पे बनाने के लिये होता था.
जिस तरह से आप रबर की सील से कागज पर अपना नामपता छाप देते हैं उसी तरह रंगसाज इन ठप्पों की सहायता से वस्त्रों पर एक से एक रंगबिरंगे एवं आकर्षक बेलबूटे एवं चित्र छापते थे. आजकल इनका उपयोग कम हो गया है, लेकिन याद रहे कि कपडों पर छपाई के आधुनिक यंत्रों के अविष्कार के कम से कम 3500 साल पहले हिन्दुस्तान में इस कला की नींव पडी थी. हिन्दी जालजगत में इस विषय पर दोचार जालस्थलों या चिट्ठों के द्वारा इस कला के इतिहास को जीवित रखने में एक बहुत बडी पहल हो सकती है.
(इस चित्र का उपयोग सारथी के जालपते के साथ आप कहीं भी कर सकते हैं. उच्च क्वालिटी के मूल चित्र के लिये आप हमसे संपर्क कर सकते हैं जो तुरंत भेज दिया जायगा)
आज ऎसा ज्ञान. चलिये ये भी ले ही लिया.
लेख अच्छा लगा।
ज्ञान ग्रहण किया महाराज.. 🙂
अच्छी और रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद.
बढ़िया जानकारी
रोचक जानकारी है. आपका लगाया चित्र काफी प्रासंगिक लगा.
अच्छी जानकारी दी है।