ईस्वी 1800 का काल यूरोप में नास्तिकों एवं अराजकत्ववादियों के लिये स्वर्णयुग था. लगभग सभी सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं को ध्वस्त करने की कोशिश वहां हर जगह हो रही थी. लेकिन उनको सबसे अधिक कठिनाई ईश्वर के अस्तित्व को नकारने में हो रही थी क्योंकि ऐसा करने के लिये उनके पास कोई ठोस धार्मिक, दार्शनिक, या वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं था. लेकिन चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत ने उन सब की हैसियत बदल दी. ईश्वर के विरुद्ध वे जीत गये थे एवं वे ईश्वर की ताबूत में आखिरी कील ठोकने में सफल हो गये थे. अब सृष्टि के लिये एक ऊपरी शक्ति पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं थी. लेकिन क्या यह सच था?
विज्ञान हर चीज को प्रयोगों की मदद से देखता है, जांचता है एवं निष्कर्ष पर पहुंचता है. सिद्धांत कितना भी आकर्षक हो, कितने ही बडे व्यक्ति ने प्रतिपादित क्यों न किया हो, वह तब तक एक तथ्य नहीं बन पाता जब तक उसके लिये प्रायोगिक प्रमाण न मिल जाये.
डार्विन के प्रसिद्ध सिद्धांत को लगभग 150 साल होने को आ रहे है. मजे की बात यह है कि सिद्धांत अभी भी सैद्धांतिक अवस्था में ही है. बल्कि कई वैज्ञानिकों ने यह मांग करना शुरू कर दिया है कि 150 वर्ष के अनुसंधानों के आधार पर इसका स्थान सिद्धांत से कुछ और नीचे पहुंचा देना चाहिए. कारण कई है: जिन फॉसिलों को प्रमाण माना गया था उन में से अधिकतर फर्जी निकले. जो असली निकले उनकी व्याख्या गलत निकली. कई तथाकथित प्रमाण छल पर अधारित थे, महज छद्म प्रमाण थे. कुल मिला कर यदि डार्विन के समय 100 प्रमाण थे तो अब उनकी संख्या 10 रह गई है. ईश्वर की ताबूत का आखिरी कील अभी नहीं ठोका गया है. अभी तो ताबूत तय्यार ही नहीं हुआ है.
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कुछ अधूरा सा लगा आपका लेख.
ईश्वर मुझसे कुछ कराना चाहते हैं तो फटाक से नहीं करा लेते। वे मुझमें वे गुण विकसित होने की परिस्थितियाँ पैदा करते हैं और मुझमें वह समझ देते हैं। मैं विकासवाद को इन अर्थों में लेता हूं।
हिन्दू धर्म में माँ सरस्वती इस प्रकार से कार्य करती हैं। क्रिश्चियानिटी के विषय में मुझे मालूम नहीं।
विकास ईश्वर का ही एक आयाम है।
शायद इस चिट्ठी की बातें न तो प्रमाणिक हैं न ही ठीक।
डार्विन एक महानतम वैज्ञानिकों में से एक हैं। वे स्वयं पादरी बनना चाहते थे इसलिये उन्होने Origin of Species प्रकाशित करने में देर की। उनका जीवन संघर्षमय रहा। यदि आप Irving Stone की The Origin पढ़ें तो उनके बारे में सारे तथ्य सही परिपेक्ष में सामने आयेंगे।
इस बारे में, अमेरिका में तीन बार मुकदमा चला। पहला तो १९२० के दशक में था। इसमें फैसला Origin of Species के विरुद्ध रहा। यह अमेरिका के कानूनी इतिहास के शर्मनाक फैसलों में गिना जाता है। इसके बाद दो और फैसले पिछले २५ सालों में हुऐ हैं जिसमें फैसला Origin of Species के पक्ष में हुऐ हैं।
कुछ समय पहले हिन्दी चिट्टजगत पर भगवान और विज्ञान के बारे में चर्चा हुई थी। मैं इस पर लिखूंगा। मैं इसका भी जिक्र करना चाहूंगा कि गैलिलिओ को नज़रबन्द करवाने में पोप की अहं भूमिका थी जिस पर २०वीं शताब्दी में पोप ने माफी भी मांगी।
विज्ञान और धर्म दो अलग अलग क्षेत्र की बातें हैं। मेरे विचार से दोनो को जोड़ना ठीक नहीं।
मैं agnostic हूं यदि मेरे विचारों से दुख पहुंचा तो क्षमा प्रार्थी हूं।
@उन्मुक्त
प्रिय दोस्त, मैं घोर आस्तिक हूँ, लेकिन उसके साथ साथ Rationalism के प्रति समर्पित हूँ. अत: मेरी किसी भी बात के विरोध से मुझे किसी तरह से दुख नहीं होता है. हर विषय पर खुल कर चर्चा होनी चाहिये. यदि मेरा आस्तिक विश्वास आपके अज्ञानवाद के सामने तर्कसंगत तरीके से नहीं खडा हो पाता तो उसका मतलब है कि मेरा विश्वास गलत है. अत: मैं तो हमेशा चर्चा का स्वागत करूंगा.
हां जब तक मेरी कलम में स्याही है, मैं इन विषयों पर लिखूंगा जरूर. आप टिप्पणी जरूर करना !
सस्नेह, शास्त्री
मुझे इस लेख से बहुत कुछ नया जानने को मिला है.. उन्मुक्त जी ने भी कुछ जानकारियां दीं जो मेरे लिये नयी थी.. आप सबको साधुवाद.. पर शास्त्री जी का लेख कुछ अधूरा सा लगा..
आदरनीय शास्त्री जी ,
मैं कोई पुराना चित्ठाबाज़ तो नही हूँ मगर अल्प समय मे आपके मानवीय गुणों ने मुझे प्रभावित किया है ,मगर मुझे यह असुविधाजनक अंदेशा भी रहा है की आपका कोई प्रायोजित मकसद भी है .मुझे यह भी डर था की आप देर सवेर अपने ब्लॉग पर डार्विन को घसीटेंगे जरूर और सच मानिए मेरा संशय सच साबित हो गया .डार्विन के बारे मे उन्मुक्त जी के विचारों से सहमत होते हुए मैं यह जोड़ना चाहता हूँ कि उनकी पुस्तक डिसेंट ऑफ़ मैन ने सचमुच मनुष्य के पृथक सृजन की बाइबिल -विचारधारा पर अन्तिम कील ठोक दी थी .तब से बौद्धिकों मे डार्विन के विकास जनित मानव अस्तित्व की ही मान्यता है .इस मुद्दे पर मैं आपसे दो दो हाथ करने को तैयार हूँ .आप कृपया यह बताये कि डार्विन के किस तथ्य को बाइबिल वादियों ने ग़लत ठहराया है ?एक एक कर कृपया बताएं ताकि इत्मीनान से उत्तर दिया जा सके .हिन्दी के चिट्ठाकार बंधू भी शायद गुमराह होने से बच सकें .
@Arvind
प्रिय अरविंद जी चर्चा में आपका स्वागत है. आने वाले दिनों में मैं डर्विनिस्म के बारे मे बहुत कुछ लिखूंगा. दो तीन बातें याद रखें
प्रायोजित मकसद सिर्फ यह रहा है कि सत्य एवं स्नेह बढे. बाईबिल एवं उसके अनुयाईयों के विरुद्ध लिखने के पहले स्नेहवश कई चिट्ठाकार मुझसे पूछ लेते हैं कि मुझे दुख तो नहीं पहुंचेगा. मेरा उत्तर हमेशा यही रहा है कि युक्तिसंगत बात शालीनता से लिखी जाये तो मुझे कोई दुख नहीं होगा.
बाकी अगले लेख में !! विचारों मे साम्य हो या मतभेद, सारथी पर अपनी कृपादृष्टि बनाये रखें.
यह एक अनंत बहस है। हर कोई अपनी मन्यता से कस कर जुडा हुआ है।
मैंने एक बार अपने एक लेख
http://sanjaygulatimusafir.blogspot.com/2007/10/blog-post.html
मे लिखा था कि ईश्वर प्रकृति की भी प्रकृति का नाम है!
बाकी तो –
जाकी रही भावना जैसी
प्रभु मूर्ति देखी तिन तैसी
ईश्वर तो हर जगह है, सबमें है – कहीं विश्वास की तरह, तो कहीं अविश्वास की तरह। और माया देखो, दोनों ही रूप में वह मन को बलवान ही करता है – भावना के अनुरूप।
ह्म्म! लट्ठमलट्ठा तो हो ही रहा है, लेकिन यहाँ बेवजह नही हो रहा, सूत भी है, कपास भी है। लगे रहो…
मैने सभी धर्मों को पढा है, और समझने की कोशिश की है, लेकिन कभी भी मै किसी एक धर्म को अच्छा या दूसरे को बुरा नही मानता, सबके अपने अपने विचार है। लेकिन अब मेरे को लगता है इस ब्लॉग पर ये सब भी शुरु होगा। खैर आपका ब्लॉग है, आप जो चाहे सो लिखें। लेकिन लट्ठमलट्ठा का अंदेशा मेरे को पहले भी था, आगे आने वाले वक्त मे भी दिख रहा है।
आल द बैस्ट।