इस हफ्ते कई सशक्त कवितायें देखनेपढने का अवसर मिला. इन में से निम्न कविताओं ने मुझे बहुत स्पर्श किया. ये मुख्यतया सामाजिक या व्यक्तिगत जीवन पर आधारित रचनायें हैं एवं जीवन की कई मूलभूत समस्याओं को स्पर्श करती हैं. यदाकदा एकाध उत्तर मिल जाता है, कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, कई का उत्तर देना/पाना कुछ कठिन है. यह है मानव जीवन.
कृपया इन चिट्ठों पर जाकर रचनाकारों का उत्साहवर्धन करना न भूलें. सारथी सिर्फ इन तक आपको ले जाने का एक साधन मात्र है.
बंद तिजोरियों को सोने और रुपयों की
चमक तो मिलती जा रही है
पर धरती की हरियाली
मिटती जा रही है
अंधेरी तिजोरी को चमकाते हुए
इंसान को अंधा बना दिया है
प्यार को व्यापार
और यारी को बेगार बना दिया है
(यारी को बेगार बना दिया)
हां बाबुजी मै वेश्या हूँ,
जो अपनी मजबूरी मे,
अपनी जिस्म को नीलाम करती हूँ,
पर पुछो, अपने समाज के सभ्य लोगो से,
उनकी क्या मजबुरी है,
जो अपनी भूख मिटाने के खातिर,
इस गंदी दलदल मे चले आते हैं
(हाँ बाबूजी, मै वेश्या हूँ)
पँख गर मेरे पास हैं तो
मंजिल उड़ान ही होगी ना?
फिर उड़ने से
क्यों हिचकता है?
गिरने से
डर क्यूँ लगता है?! (झिझक)
जिन रास्तों की कोई मंजिल ना हो,
उस रास्ते पर चलने का मजा कुछ और होता है।
ख्व़ाब तो अन्तहीन होते हैं,
फिर भी उनका रोज टूटना और रोज बुना जाना होता है।।
(हार का जश्न)
शीशे के घर में रहकर ना –
पत्थर -पत्थर तोल परिंदे !!
बन्दर के हाथों में मत दे –
झाल -मजीरा -ढोल परिंदे !!
(हम फकीरों की गली में झांकिए)
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बेहतरीन कविताये है
कविता सभी लिखते हैं, पर भाव कोई कोई ही पिरो पाता है!