यह जंग कायरों के लिये नहीं है !!

1990 की बात है, मैं काउंसलिंग पर उच्चतर अध्ययन के लिये वजीफे पर अमरीका के न्यूयार्क में पढने के लिये गया था. इस दैत्याकार शहर में दुनियां भर के विविध लोगों का बहुत बडा जमघट है, एवं “सारी दुनियां देख लीजिये एक नजर में” को काफी कुछ सही कर देता है.

SasBahuSmaller

छायाचित्र: ग्वालियर किला, सासबहू छोटा मंदिर. प्राचीन भारतीय विकास, वास्तुशिल्प, मूर्तिकला, सौन्दर्यशास्त्र, तकनीकी, एवं विज्ञान का एक उत्कृष्ट उदाहरण (बिना अनुमति छायाचित्र का पुनरूपयोग वर्जित है)

मैं ने कई दशाब्दियों पहले ही कंठ लंगोट को त्याग दिया था एवं कुर्ते का उपयोग करने लगा था. प्लेन से उतरते ही मेरे भारतीय मित्रों ने मेरे कुर्ते पर आपत्ति जताना शुरू कर दिया एवं कंठलंगोट धारण करने की जिद होने लगी. यदि कोई शर्टसूट एवं कंठलंगोट का उपयोग करना चाहे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन यदि वे भारतीय परिधान को आदिम एवं पाश्चात्य परिधान को परिष्कृत कहने की धृष्टता करे तो मुझे बहुत आपत्ति है. अपने इस नजरिये के कारण मैं ने इन दोनों चीजों को मना कर दिया.

अगले दिन एक खाने पर नेवता था. कई अमरीकी लोग भी थे. जब मैं हाथों से खाने लगा तो कई भारतीय मित्रों को मेरे इस “आदिम” आदत पर बडी “शरम” आई. लेकिन अमरीकी मित्रों का नजरिया इससे स्वस्थ था. कई अमरीकी लोगों ने सीधे पूछा कि मैं कांटे छुरी का प्रयोग जानता हूं क्या तो मैं ने जवाब दिया कि मैं उनके उपयोग में दक्ष हूं लेकिन आदिम/परिष्कृत के संघर्ष के कारण शुद्ध हिन्दुस्तानी तरीके से खा रहा हूं. जहां भारतीयों को इस बात पर शरमा आ रही थी वहीं मेरी इस बात पर अमरीकी मित्रों ने मुझे बहुत अधिक आदर से देखा.

बहुत से भारतीयों को भारत, भारतीय भाषा, संस्कार, संस्कृति आदि के बारें में हीन भावना इसलिये है क्योंकि हिन्दुस्तान के काले-अंग्रेजों ने उनको यकीन दिला दिया है कि हिन्दुस्तान में जो कुछ है वह आदिम है तथा अंग्रेज यदि दिशा फिरने के बाद अपने आप को धोने के बदले कागज से पोंछ लेता है तो वह परिष्कृत होने की निशानी है. वे यह भूल जाते हैं कि घर का पालतू कुत्ता भी दीर्घशंका के बाद अपने आसन को (एवं अपने हाथ को) पानी से नहीं धोता है. अब सवाल यह है कि इन दोनों मे से अधिक परिष्कृत कौन है.

भारत एवं भारतीय संस्कृति के बारे में हमें हीन भावना से छुटाकारा पाने के लिये जंग की तय्यारी करनी होगी. कायर सिर्फ मैदान छोडते हैं, विजय नहीं पाते.

 

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Author: Super_Admin

15 thoughts on “यह जंग कायरों के लिये नहीं है !!

  1. असल में जीना अपने अनुसार और अपनी शर्तों पर हो तो मजा है। बाकी यह जरूर है कि अपनी मान्यताओं पर मनन और उनका वैलिडेशन होते रहना चाहिये।

  2. आपसे पूर्ण सहमति है । अन्धा अनुकरण गलत है परन्तु यदि किसी और समाज की कोई बात अनुकरणीय हो अनुकरण करने में कोई बुराई नहीं है ।
    घुघूती बासूती

  3. @sanjay tiwari
    सिर्फ एतिहासिक शोधचित्रों को कापीराईट किया है. लेकिन जो भी एक पत्र लिखेगा उसे इससे पांच गुना क़्वालिटी का चित्र भेज दिया जायगा

  4. please put a copy right mark on the photo mnay users who cant read hindi come to the site while surfing for photos and images and use it . sir just a suggestion only

  5. नकलची सदा पीछे चलने के लिये अभिशप्त होता है।

    भारत को महात्मा गांधी एवं आप जैसे स्वाभिमानी और मौलिक चिन्तक ही सही राह दिखा सकते हैं।

  6. आपसे पूरी तरह सहमत हूं। कोलकाता और नई दिल्ली जैसे महानगरों में पहली बार मुझे धोती-कुर्ते में देखकर पहले से परिचित लोगों ने खूब चुटकी ली थी और जो परिचित नहीं थे, वे पूजा कराने वाले पुरोहित समझकर नमस्ते करते थे।

    हालांकि अब सार्वजनिक रूप से धोती-कुर्ते पहनना छूट गया है, लेकिन शर्म-संकोच बिल्कुल नहीं है पहनने में। कांटे-चम्मच के बजाय हाथ से खाने की आदत अब भी बनी हुई है। तमाम अंग्रेजीदां लोगों के बीच हिन्दी में अपनी बात रखने में कभी हीन भावना महसूस नहीं हुई।

    यह तो है कि भारत के ज्यादातर लोग एक अजीब किस्म की हीन भावना से ग्रसित हैं और वे जब किसी को अपने भारतीयपन के साथ चिपटे देखते हैं तो उसका मजाक बनाने में पीछे नहीं रहते।

    हमें यह दिखाना होगा कि अपने भारतीयपन को बनाए रखते हुए भी हम शिक्षा, समृद्धि और सत्ता के मामले में उन नकलची और हीन ग्रंथियों वाले लोगों से आगे हैं, तभी यह मानसिकता बदल सकेगी।

  7. शास्त्री जी,
    मैंने खुद यह पाया कि विदेशों मे बसे बहुत भारतीय हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। इसके विपरीत मैं उन्हें यही समझाता हूँ कि तुम भारतीय संस्कृति का चेहरा हो – अतः अपनी संस्कृति को अपनाओ।

    खुद अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैं हमेशा कुर्त्ता-पायजामा ही पहनता हूँ। फलस्वरूप वहाँ के लोग जब मुझसे प्रभावित होते हैं तो वे भी भारतीय जीवन-शैली को अपनाते है!

    आशा है मेरे कुछ पाठक मित्र इस तथ्य की गहराई को समझ पाएँगे कि हम दुनिया कि कुछ सबसे समृद्ध संस्कृतियों में से एक का भाग हैं। हम अगर इस धरोहर के उत्तराधिकारी हैं तो इस धरोहर के संरक्षक भी हम ही हैं।

    कमाल है शास्त्री जी, यह तो खुद पूरा लेख बन गया।
    सविनय
    संजय गुलाटी मुसाफिर

  8. आज के संदर्भ मे पहनावे का कोई महत्व नहीं है । मै ऐसे बहुत से भारतीयों को जानती हूँ जिनका पहनावा पूरी तरह भारतीये होता है पर उनके विचार बिल्कुल विदेशी होते है । वेशभूषा केवल एक आवरण है , जरुरी है की आप की सोच कैसी है । अपनी संस्कृति तो बहुत बड़ी है और इसे आप कुरते , पाजामे और साडी मै नहीं समेट सकते । संस्कृति तो “ये मन आचार अथवा रुचियों का परिष्कार है ” । अपने मन मे भारतीये परिधान , Hindi भाषा के प्रति अगर सम्मान है तो हम कोई भाषा बोले , कोई परिधान पहने , क्या फरक पडेगा । sir अगर आप रूस जाये तो कोट पेंट अवश्य ले जाये , कुरते पाजामे मे ठिठुरन के सिवा कुछ नहीं हासिल होगा !!

  9. @rachna

    मेरा मुख्य विषय कुर्ता या पजामा नहीं बल्कि लोगों की “सोच” एवं हीन भावना है.

    “आज के संदर्भ मे पहनावे का कोई महत्व नहीं है ।”

    आपका यह कथन सही नहीं है !!!

  10. पहनावे का असर ज़रूर होता है।
    ज़रा पुलिस की वर्दी और कुरता-धोती-पायजामा पहन कर देंखें, दोनों में अनुभूति अलग ही होगी।

  11. आदमी की पह्चान उस की मात्रभाषा ओर उस का पहराबा हे,जो अपनी पहचान खो दे वो आदमी तो हे लेकिन….गुलाम,जिस का आपना कुछ नही,

  12. सहमत हूं आपसे । मैने कॉलेज के ज़माने में कुर्ता पहनना शुरु किया मगर राष्ट्रीय या भारतीयता के आग्रह के कारण नहीं बल्कि अपनी पीछे से घिस चुकी पैंट को दिखने से बचाने और शर्म से बचने के लिए। यही अंतिम उपाय था मेरे पास…..

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