किसी भी भाषा या संस्कृति से मेरा कोई विरोध नहीं है. लेकिन भारतीय संस्कृति को आदिम एवं पाश्चात्य संस्कृति को परिष्कृत करार देने की आदत का मैं घोर विरोध करता हूं. मेरे दो मित्रों ने इस विषय पर बहुत ही विश्लेषणात्मक तरीके से लिखा है जो इस प्रकार है:
छायाचित्र:ग्वालियर किले पर चौबीस तीर्थंकरों की अतिविशाल मूर्तियां हैं जो सैकडों साल पहले ठोस पत्थर में उकेरी गई थी. यह वास्तुशिल्प हमारे आदिम होने की पहचान है या तकनीकी रुप से परिष्कृत होने की?? क्या उस काल में पश्चिम ने ऐसा कुछ किया था? पूर्वी देशों की संस्कृति हमेशा पश्चिम से अधिक परिष्कृत एवं विकसित रही है.
"कोलकाता और नई दिल्ली जैसे महानगरों में पहली बार मुझे धोती-कुर्ते में देखकर पहले से परिचित लोगों ने खूब चुटकी ली थी और जो परिचित नहीं थे, वे पूजा कराने वाले पुरोहित समझकर नमस्ते करते थे। हालांकि अब सार्वजनिक रूप से धोती-कुर्ते पहनना छूट गया है, लेकिन शर्म-संकोच बिल्कुल नहीं है पहनने में। कांटे-चम्मच के बजाय हाथ से खाने की आदत अब भी बनी हुई है। तमाम अंग्रेजीदां लोगों के बीच हिन्दी में अपनी बात रखने में कभी हीन भावना महसूस नहीं हुई।
"यह तो है कि भारत के ज्यादातर लोग एक अजीब किस्म की हीन भावना से ग्रसित हैं और वे जब किसी को अपने भारतीयपन के साथ चिपटे देखते हैं तो उसका मजाक बनाने में पीछे नहीं रहते। हमें यह दिखाना होगा कि अपने भारतीयपन को बनाए रखते हुए भी हम शिक्षा, समृद्धि और सत्ता के मामले में उन नकलची और हीन ग्रंथियों वाले लोगों से आगे हैं, तभी यह मानसिकता बदल सकेगी।" सृजन शिल्पी
"मैंने खुद यह पाया कि विदेशों मे बसे बहुत भारतीय हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं। इसके विपरीत मैं उन्हें यही समझाता हूँ कि तुम भारतीय संस्कृति का चेहरा हो — अतः अपनी संस्कृति को अपनाओ। खुद अपनी विदेश यात्राओं के दौरान मैं हमेशा कुर्त्ता-पायजामा ही पहनता हूँ। फलस्वरूप वहाँ के लोग जब मुझसे प्रभावित होते हैं तो वे भी भारतीय जीवन-शैली को अपनाते है!
"आशा है मेरे कुछ पाठक मित्र इस तथ्य की गहराई को समझ पाएँगे कि हम दुनिया कि कुछ सबसे समृद्ध संस्कृतियों में से एक का भाग हैं। हम अगर इस धरोहर के उत्तराधिकारी हैं तो इस धरोहर के संरक्षक भी हम ही हैं।" संजय गुलाटी मुसाफिर
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किसी भी भाषा या संस्कृति से किस को विरोध हो सकता है। विरोध करने वाले या तो स्वयं राजनीति कर रहे होते हैं या फिर वे किसी न किसी राजनीति का शिकार हो चुके होते हैं। हमारी अपनी संस्कृति के अनेक तत्व ऐसे हैं जिन्हें हम फैशन का शिकार हो कर त्याग चुके हैं। जब कि वास्तविकता यह है कि वे उपयोगी होते हैं और हम उन के लाभ से वंचित हो जाते हैं। मसलन पगड़ी और साफा हम ने लगभग त्याग दिया है, जब कि ये न केवल सिर को अनेक मुसीबतों से बचाते हैं और शरीर की सुन्दरता में भी वृद्धि करते हैं। इसी प्रकार मांग में सिन्दूर, माथे पर बिन्दी या तिलक, गले में दानों की माला आदि जो श्रंगार हैं पिछड़ेपन के प्रतीक अथवा धार्मिक चिन्ह मान कर त्याग दिया गया है। हम अपनी संस्कृति की धुलाई करते जा रहे हैं। नतीजा सामने है। हम हमारे भारतीय होने की पहचान ही खोते जा रहे हैं।
सहमत, पूर्णत: सहमत। आपसे भी, उल्लिखित टिप्पणीकारों से भी और दिनेशरायजी से भी।
शास्त्रीजी, आज चिट्ठे की टेम्पलेट में बहुत सी चीज़ें कम हैं?
किसी भी भाषा या संस्कृति का विरोध हर हाल मे ग़लत है. जंहा तक हिन्दी भाषी या भारतीय होने की बात है इसमे हिन् भावना या शर्म-संकोच की कोई जगह नही है इसके उलट ये तो गर्व करने की बात है.
और मुझे लगता है कि इस मानसिकता के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नही है और अगर कुछ है भी तो ये शायद पहले से ठीक ही हो रही है.
ये तस्वीरें मेरे पास पहले से है. मैं तो इनका उपयोग कर ही सकता हूँ?
मैं तो इतना ही कह सकता हूँ कि जब मुझे कुछ अच्छा बदलाव करना हो तो मैं दाएँ-बाएँ न देखकर सीधा खुद की तरफ देखता हूँ। मैं बदलूँगा तो समाज बदलेगा।
संजय गुलाटी मुसाफिर
“तमाम अंग्रेजीदां लोगों के बीच हिन्दी में अपनी बात रखने में कभी हीन भावना महसूस नहीं हुई।”
आपका यह विचार सही है लेकिन आज कल कुछ महानगरों मे अपनी भाषा को व्यवसाय में प्रयोग करना बहुत दिक्कत देता है यह भी सही है . मेरा मानना यह है की जो अपनी संस्कृती की इज्जत नही करता वह कभी भी किसी और की दिल से इज्जत नही कर सकता, वह हमेशा एक बनावटीपं से घिरा
“तमाम अंग्रेजीदां लोगों के बीच हिन्दी में अपनी बात रखने में कभी हीन भावना महसूस नहीं हुई।”
आपका यह विचार सही है लेकिन आज कल कुछ महानगरों मे अपनी भाषा को व्यवसाय में प्रयोग करना बहुत दिक्कत देता है यह भी सही है . मेरा मानना यह है की जो अपनी संस्कृती की इज्जत नही करता वह कभी भी किसी और की दिल से इज्जत नही कर सकता, वह हमेशा एक बनावटीपं से घिरा
असहमति का कोई कारण नजर नहीं आता।
क्या मैं आपके पत्र और यातिश को माध्यम बनाकर एक प्रश्न कर सकता हूँ – उन सभी से जो यह कहते हैं कि अपनी भाषा में व्यापार करना बहुत मुश्किल है!
सवाल है – चीन देश में व्यापार करना हो तो कौन सी भाषा का उपयोग करेंगे और क्यों? दोस्तो मुश्किल ही तो है नामुमकिन तो नहीं।
जब आप और मैं – Internet, Email आदि नए शब्द अपने शब्दकोष में अभ्यास से जोड सकते हैं तो संजाल, पत्राचार क्यों नहीं। अभ्यास ही तो पैदा करना है, शुरूआत ही तो करनी है।
पपूर्णतया सहमत