अपने आप को अंग्रेज कहलवाना कई भारतीयों को बहुत रास आता है. इस कारण वे अंग्रेजी बोलना, कंठ लगोंट एंठना, दीर्घशंका के बाद कागज से पोंछना आदि को परिष्कृत होने की निशानी समझते है. किसी भी भाषा/संस्कृति से मेरा विरोध नहीं है, लेकिन अपनी भाषा/संस्कृति को इस तरह से हीन समझने वाले से बहुत कडा विरोध जरूर है.
छायाचित्र: लॉर्ड मेकाले (थामस मेकाले) जिन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित ब्रेनवाशिंग द्वारा भारतीयों को अंग्रेजी हुकूमत की शाश्वत गुलामी में रखने के लिये एक सफल रणनीति की रचना की.
आज बहुत से भारतीय पश्चिम का तलुवा जो चाटते हैं, इसके पीछे एक कारण है — लॉर्ड मेकाले की शिक्षा व्यवस्था. उन्हों ने अंग्रेजी सरकार को निम्न प्रस्ताव दिया था जो स्वीकृत किया गया:
It is impossible for us, with our limited means, to attempt to educate the body of the people. We must at present do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons, Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, in morals, and in intellect. To that class we may leave it to refine the vernacular dialects of the country, to enrich those dialects with terms of science borrowed from the Western nomenclature, and to render them by degrees fit vehicles for conveying knowledge to the great mass of the population. Macaulay’s “minute on education” arguing for the use of English in India
भावानुवाद इस प्रकार होगा:
हमारे सीमित साधनों द्वारा (हिन्दुस्तान की) इस विशाल जनराशि को शिक्षित करना असंभव होगा. अत: हमें भरसक कोशिश करनी होगी कि (हिन्दुस्तानी) लोगों का ऐसा एक वर्ग तय्यार किया जाये जो हमारे एवं हमारे करोडों (हिन्दुस्तानी) दासों के बीच कडी का काम करे — ऐसा एक वर्ग जो रंग एवं खून से हिन्दुस्तानी हैं लेकिन जो अपनी रुचि, राय, नैतिक मूल्य, एवं मानसिक चिंतन से पूरी तरह अंग्रेज हैं. इस देश की जनकीय भाषाओं को समृद्ध करने का काम हम उन पर छोड सकते हैं. ये लोग पश्चिमी ज्ञानविज्ञान की अवधारणाओं को वैसा का वैसा देशज भाषाओं में सशक्त तरीके से प्रचार करेंगे.
यह है भारत में अंग्रेजी माध्यम में पढाई आरंभ करने का मर्म. यह इसलिये चालू किया गया था जिससे कि कुछ लाख काले अंग्रेज हर साल पैदा किये जाये जो करोडों भारतीयों को हमेशा हमेशा के लिये अंग्रेजों की गुलामी में रख सके. इस विषचक्र को तोडने के लिये अंग्रेजी की पढाई बंद करने से कुछ नहीं होगा बल्कि हल अंग्रेजी माध्यम पढाई के भारतीयकरण करने के द्वारा होगा. ऐसा भारतीयकरण जहां बच्चे अंग्रेजी में दक्ष होते हुए भी मन से पश्चिम की नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की आराधना करते है.
भारतीय संस्कृति आज तक अविजित है। सिन्धु सभ्यता का ढांचा आज भी उस की रीढ़ बना हुआ है। और अंग्रेजी का भारतीयकरण भी शुरू हो चुका है। अधिक चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। अपनी संस्कृति का त्याग करने वालों को जल्दी ही पछताना होगा। हाँ, सत्ता के ठेकेदारों को इस की सुध पता नहीं कब आएगी? उन्हें जगाते रहने का सतत् अभियान जरूरी है।
अंग्रेजी का ज़ोर कुछ इस कदर सिर चढ कर बोलता है कि मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चों के अब हत्थु,मुइय्या,पैय्या जेसे शब्द खो गये है हैंडी ,लैग्गु बन कर रह गये हैं। चावल की जगह मां पूछती है राइस खाऒगे? सुन कर कोफ्त होती है समझ नहीं आता दोष किसे दे ?आधुनिकता को,मानसिकता को या उस बनावटीपन को जिसमें कहीं भी आत्मीयता नहीं लगती।
दिनेश जी ने बहुत सही बात कही है। पर अपने को किसी तरह बचाये रखना ही काफी नहीं है; हमारा विकास भी होना चाहिये, हम जहाँ हैं वहाँ से आगे भी बढ़ें।
kya is baar hindi blogger samaj bada din manaye ga aur nayae saal per ek dusrae ko shubhkamna daega ? agar haan toh pareshani inglish nahin aap kii dohrii mansikta hae
शास्त्रीजी,
मैकाले पर काफ़ी समय पहले मैने एक लेख लिखा था, अगर आपके पास समय हो तो उसे पढें:
साभार,
नीरज
शास्त्रीजी,
क्षमा करें, पिछली बार की टिप्पणी में इस कडी को देना भूल गया था । ये रही वो कडी:
http://antardhwani.blogspot.com/2007/04/blog-post.html
सारथी जी,लेख मे बहुत सटीक विवरण दिया है। मेरा भी मानना है कि जिस देश में अपनी भाषा के प्रति प्रेम व सम्मान नही वह मानसिक रूप से हमेशा गुलाम ही रहेगा। आज की राजनैतिक पतन का कारण भी यही है और इन सब के जिम्मेवार हमारे राजनेता ही ज्यादा हैं।…सभी राज्य या तो अपनी भाषा बोलते हैं या फिर अंग्रेजी। हम अपनी राट्रीय भाषा को भूल ते जा रहें हैं।अब तो हम जैसे हिन्दी भाषाइयों को बहुत कोफ्त होती है जब देखते हैं कि दिनों दिन अग्रेजी का प्रचार प्रसार बढ़्ता ही जा रहा है और हिन्दी मृत्यू के कगार की ओर निरन्तर बढती जा रही है।यदि हम भारतीय अभी भी नही जागे तो वह दिन दूर नही जब अग्रेजी पूरी तरह हमारी मानसिकता पर अधिकार जमा लेगी।
शास्त्री जी,
आजकल ‘अंग्रेज़ियत’ में एक कडी और जुड गई है – अंग्रेज़ी सीखी सो सीखी – कोई गम नहीं। दुनिया में सबसे स्पष्ट उच्चारण वाले भारतीय गिने जाते हैं – अब इन बेचारे काले गोरों को भी अंग्रेज़ों की तरह लहज़ा बदल कर बोलने से बडप्पन लगता है।
हिन्दी के तमाम चैनलों की कमाई और लोकप्रियता यही साबित कर रही है कि हिन्दी में है दम। बस , कर्णधारों को ये बात समझ में आनी चाहिये। हिन्दी फिल्मो से फेम और कैश कमाने वाले सितारों को समझ आनी चाहिए।