Photograph By rosefirerising
ताडपत्र एवं भोजपत्र नाम सब ने सुन रखा है, लेकिन यदि मैं बताऊं कि बचपन में हमारी पाठ्य पुस्तकें ताडपत्र पर हुआ करती थीं तो आप को ताज्जुब होगा लेकिन यह सत्य है. केरल में आज भी अक्षरमाला सिखाने वाले गुरुकुलों में ताडपत्र चलते हैं (लेकिन आज की अर्थव्यवस्था एवं अंग्रेजी-केंद्रित शिक्षा की मार से ये गुरुकुल लुप्त होते जा रहे हैं). मेरी पढाई ऐसे एक गुरुकुल में हुई थी. संकृति से जुडने के लिये मेरे दोनों बच्चों को भी ऐसे गुरुकुल में भेजा गया था.
ताड (खजूर) के पेड की बहुत सी किस्में होती हैं. इनके तने, पत्ते, फल, एवं रसों से बहुत सी चीजें बनाई जाती हैं. चौडे पत्ते वाले कई किस्म के ताड के पत्तों को सुखा कर ताडपत्र बनाया जाता है. सही तरीके से सुखाया एवं संभाला जाये तो यह हजारों साल सुरक्षित रह सकता है, नहीं तो सिर्फ कुछ दिनों का मेहमान होता है.
ताड दक्षिण एशिया में बहुतायत से पाया जाता था, चौडे पत्तों को सुखा कर लेखन सामग्री (पत्र) बनाना कठिन नहीं था, अत: ताडपत्र का प्रयोग इन देशों मे पिछले कम से कम 4000 साल से होता आया है. मिस्र (ईजिप्ट) के आसपास के प्रदेशों में एक प्रकार के दलदली जमीन में पैदा होने वाले लम्बे पत्तों का प्रयोग होता था. इनको पेपीरस कहते हैं तथा अंग्रेजी का वाक्य “पेपर” का उद्भव इस से हुआ है.
अनुमान है कि हिन्दुस्तान में 5,000,000 से 10,000,000 (जी हां पचास लाख से एक करोड) के बीच ताडपत्र पर लिखे पुस्तक अभी भी अस्तित्व में है. इन में से अनुमानत: 1,000,000 की सूची विभिन्न संस्थाओं ने बना ली है, लेकिन ये ताडपत्र अभी भी सुरक्षित नहीं हैं. बचे हुए पुस्तकों को लुप्त होते अधिक साल नहीं लगेंगे, अत: हम सब को अपनी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के लिये कदम उठाना चाहिये. उत्तर भारत के पुरातन परिवारों में इस तरह की काफी पुस्तकें हैं जिनको नई पीढी ने नहीं देखा है अत: पाठकों से निवेदन है कि वे अपने बुजुर्गों से पूछें कि उनके पास इस तरह के ग्रंथ हैं क्या. यदि हों तो तुरंत ही उनकी स्पष्ट प्रतिलिपि बना कर उस धरोहर को सुरक्षित कर लें.
नोट: आज से सारथी एक “विश्वकोश” की शकल ले रहा है. विषयाधारित/विषयकेंद्रित् चिट्ठों के बार में मैं ने जो कहा था अब मैं खुद उस दिशा में बढ रहा हूँ.
इस दिशा में लिखे गये इस प्रथम लेख को मैं “नारदमुनि” को समर्पित करता हूँ क्योंकि मेरे सफल चिट्ठाकार बनने के पीछे नारद संकलक एवं उसकी टीम का बहुत अधिक प्रोत्साहन रहा है.
ताड़-पत्र के बारे में जानकारी रोचक लगी….अगर हम इस तरह का कोई संकलन देखना चाहें तो कहां से देखें….शास्त्री जी, अगर की कोई नज़र में हो तो आप ही किसी पोस्ट में उस के दर्शन करवा दें। क्योंकि हम तो बिना कुछ करे कराए पकी पकानी खिचड़ी खाने के आदि से हो गये हैं। इस पर लिखते किस रोशनाई से थे, यह सब भी आगे कभी बताईए। सचमुच, हमारे पूर्वज भी हम से कितना आगे थे ।
अच्छा तो, शास्त्री जी, हम भी आ रहे हैं सारथी पर….इसे विश्वकोष का रूप देने के लिए बधाईंयां स्वीकार करें।
आप का संकल्प परवान चढ़े। आज का यह आलेख आधा पढ़ते पढ़ते यह आभास हो गया था कि यह स्थाई रूप से संग्रहणीय है। बिलकुल ‘शब्दों का सफर’ की तरह’। इस तरह के काम स्थाई महत्व के होते हैं,और इन में से ही कुछ ऐतिहासिक भी।
“ताड (खजूर) के पेड की बहुत सी किस्में होती हैं. इनके तने, पत्ते, फल, एवं रसों से बहुत सी चीजें बनाई जाती हैं. चौडे पत्ते वाले कई किस्म के ताड के पत्तों को सुखा कर ताडपत्र बनाया जाता है.”
यह तो किसी कल्पवृक्ष से कमतर नही !
शुभकामनाएं!
रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी। इस तरह के लेख तो साहित्य, समाज, ज्ञान-विज्ञान के दूत होते हैं। अति सुंदर।
आप एक आदर्श बन कर ब्लॉगजगत के मंच पर अपना स्थान पा चुके हैं और पा रहे हैं.. हमारी शुभकामनाएँ
शास्त्री जी को नए संकल्प की बधाई। हम सब आपके साथ हैं। ताड़पत्र पर बेशकीमती जानकारियों के लिए आभार।