परिवार का प्रभाव व्यक्ति के स्वभाव एवं चरित्र पर किस प्रकार पडता है इसकी चर्चा आजकल सारथी पर हम कर रहे हैं. मैं ने बार बार यह बात कही है कि व्यक्ति का व्यवहार उसके चरित्र पर निर्भर करता है. चरित्र अपने आप पैदा नहीं होता है बल्कि यह मुख्यतया परिवार द्वारा बच्चे में पैदा की जाती है.
मित्रगण एवं समाज भी व्यक्ति के चरित्र को ढालते हैं लेकिन यह परिवार की जिम्मेदारी है कि एक बच्चे की तामसिक वृत्तियों को समझ कर उसे ऐसी तालीम दें कि उसके सात्विक गुण हमेशा उस पर हावी हों. यह न भूलें कि इस कलियुग में समाज में बहुमत का झुकाव हमेशा तामसिक वृत्तियों की तरफ रहेगा. अराजकत्व उनका नारा होगा.
कल मैं ज्ञान जी का लेख महेश चंद्रजी से मुलाकात पढ रहा था जिस में एक नवजवान की चर्चा आई है. एक बुजुर्ग एवं बीमार व्यक्ति ने अपने ऊपर का बर्थ लेकर नीचे का बर्थ उनको दे देने का अनुरोध किया तो उस जवान ने फटाक से मना कर दिया. कारण? उसके परिवार ने उसे कमजोर एवं बडे बूढों पर दया करना नहीं सिखाया है.
जब गलत व्यवहार दिखता है तो लोग तुरंत नियम/कानून कडे करने की बात करते है. नियम और कानून गलत व्यवहार के लिये सजा देकर ऐसे व्यवहार को कम कर सकते हैं, लेकिन सद्व्यवहार या सद्चरित्र नहीं पैदा कर सकते. उसके लिये यह जरूरी है कि परिवार बाल्यकाल से (भारतीय अवधारणा के अनुसार, गर्भ धारण करने के पहिले से) उस व्यक्ति की सात्विक प्रवृत्तियों को पोषित करना होगा. नियम और कानून सबसे अधिक उस समाज में प्रभावी होते हैं जहां लोग तामसिक के बदले सात्विक प्रवृत्तियों को पसंद करते है. इस मामले में सबसे बडा रोल परिवार का होता है.
.
ज्ञान जी का वह चिठा मैंने भी पढा है -अपने बडों का सम्मान भारतीय तहजीब का एक अनिवार्य अंग है .
सारथी जी, कभी सोचता हूं कि मुझमें खुद में कितना तमस है। कितना उसमें मेरा है और कितना पीढ़ियों का दिया। फिर लगता है कि ईश्वर ने जब मुझे फ्री-विल का उपहार दिया है तो मुझे अपने व्यवहार की जिम्मेदारी लेनी चाहिये।
आपका कहा सही है – अपने बच्चों में संस्कार तो हमें देने ही चाहियें।
बच्चे घर परिवार से ही सिखते है.
सही कहा बच्चे घर-परिवार से सीखते हैं। किन्तु बाद में किस परिवेश और संगत में हैं, वहां का असर भी सिर चढकर बोलता है।
आप का विश्लेषण सही है। संस्कार ही न मिलें तो संस्कृति कैसे संरक्षित होगी और परिवार से मिले संस्कार ही सब से मजबूत होते हैं। आज हर चीज को नियम कानून से ठीक करने की बात की जाती है । लेकिन परिवार पर किसी का ध्यान नहीं है।
एक संस्मरण जो कल एक बुजुर्ग सज्जन से सुना कि वे भी महेश चन्द्र जी की तरह ही कहीं फंसे थे, उन्हें भी वैसा ही उत्तर मिला जैसा महेश जी को मिला था। उन ने मिडल बर्थ पर तपाक से चढ़ने के बजाय उस युवक को कहा- भैया आपको तकलीफ हो सकती है, क्या है न कि मेरी उमर हो गयी है। और कभी कभी नीन्द में मूत्र निकल जाता है। वह युवक फौरन बर्थ बदलने को तैयार हो गया।
सारे संस्कार परिवार से ही मिलते हैं। उसके बाद प्रभाव पड़ता है कि आपकी मित्र मंडली कैसी है। बहुत सही मुद्दा उठाया आपने। आशा है लोग कुछ सीखेंगे।