??????विजयशंकर चतुर्वेदी
शास्त्री जेसी फिलिप ने एक पोस्ट में मैसूर से श्रीलंका तक प्रचलित फणम या पणम सिक्कों का ज़िक्र किया था। उनकी यह पोस्ट काफी जानकारियां देती है. उसमें मैं भी कुछ जोड़ना चाहूंगा. (दुनियां के सबसे छोटे सिक्के!, ट्रावन्कोर सिल्वर फणम (फन नहीं)!)
ऋगवैदिक काल में व्यापार पर जिस समूह का एकाधिकार था उसे ‘पणि’ कहकर पुकारते थे। प्रारंभ में व्यापार विनिमय द्वारा होता था लेकिन बाद में निष्क नामक आभूषण का प्रयोग एक सिक्के के रूप में होने लगा था. लेकिन तब भी गायों की संख्या से किसी वस्तु का मूल्य आँका जाता था, जैसा कि ऋगवेद के एक मन्त्र में इन्द्र द्वारा गायें देकर प्रतिमा लेने का उल्लेख आया है. लेकिन उस काल के आर्यों के विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं. उत्तरवैदिक काल में बड़े व्यापारियों को श्रेष्ठिन कह कर बुलाया जाने लगा। निष्क के अलावा शतमान, कर्षमाण आदि सिक्के भी प्रचलन में आ गए थे.
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ऋगवैदिक काल में व्यापारियों को ‘पणि’ कहा जाता था। तब शास्त्री जी द्वारा सुझाया गया नाम फणम या पणम का मूल कहीं वही ‘पणि’ तो नहीं? द्रविण कुल की भाषाओं में अधिकांशतः संस्कृत की विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है. अतः पणि से पणम या फणम हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं. शास्त्री जी ने लिखा है कि तमिल और मलयालम में पणम का मतलब होता है धन। ये दोनों द्रविड़ कुल की भाषाएं हैं. इससे एक कड़ी और जुड़ती है.
सिंधु घाटी की सभ्यता एक नगर सभ्यता थी। विद्वानों में अभी एकराय नहीं है लेकिन अधिकांश यही मानते हैं कि यह द्रविड़ सभ्यता थी। सिंधु घाटी से उत्खनन में मातृ देवी तथा शिव (पशुपतिनाथ) की मूर्तियाँ मिली हैं. इसे मातृसत्तात्मक समाज माना जाता है। यहाँ के निवासी काले रंग के थे। इनका व्यापार बहुत बढ़ा-चढ़ा हुआ था. दक्षिण भारत में भी मातृसत्तात्मक समाज रहा है और मलयाली समाज में तो अब तक इसके अवशेष मिल जाते हैं. इन समाजों में शिव की पूजा होती है।
इसके विपरीत आर्यों के न तो विदेशो से व्यापारी सम्बन्ध थे न ही इनके पास कोई देवी थी, लगभग सारे देवता पुरूष थे। चूंकि सिंधु सभ्यता की लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है इसलिए यह कहना कठिन है कि वे लोग व्यापारियों को क्या कह कर बुलाते थे. लेकिन यह स्थापित हो चुका है कि सिंधु सभ्यता के लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध विदेशों से थे. इस काल के लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध मिस्र, ईरान तथा बेबीलोनिया तक से थे. व्यापार जल और थल दोनों मार्गों से होता था.
सुमेरिया में ऐसी मोहरें प्राप्त हुई हैं जो हड़प्पा और मोहनजोदाडो में उत्खनन से प्राप्त मोहरों से समानता रखती हैं। मेसोपोटामिया में भी सिंधु सभ्यता के अनेक अवशेष तथा वस्तुओं का प्राप्त होना दोनों सभ्यताओं के सम्पर्क का प्रमाण है. इराक़ के एक स्थान पर वस्त्रों की गाँठें मिली हैं जिन पर सिंधु की मोहरों की छाप है. कहने का तात्पर्य यह कि सिंधु सभ्यता में एक बड़ा व्यापारी वर्ग मौजूद था.
अब बात आर्यों की करते हैं। यह भी लगभग सिद्ध हो चुका है कि आर्य मध्य एशिया से आए थे. जर्मन विद्वान मैक्समूलर के अनुसार ईरान के धार्मिक ग्रन्थ ‘अवेस्ताँ’ तथा आर्यों के धार्मिक ग्रन्थ ‘वेद’ में पर्याप्त समानता है अतः अधिक प्रतीत यह होता है कि दोनों जातियाँ पास-पास रहती होंगी. पशुपालन तथा कृषिकर्म आर्यों का प्रमुख व्यवसाय था जो विशाल मैदानों में ही सम्भव है. घास के ये विशाल मैदान मध्य एशिया में ही प्राप्त होते हैं. इसके अलावा आर्यों के देवता भी मध्य एशिया के देवी-देवताओं से काफी समानता रखते थे.
आर्यों के देवता इन्द्र को नगरों का नाश करने वाला कहा गया है। याद रखना चाहिए कि इन्द्र ऋगवैदिक काल में आर्यों का प्रधान देवता था. लेकिन ऋगवैदिक सभ्यता में नगर थे ही नहीं. ऋगवैदिक आर्य भवन निर्माण कला और नगर योजना भी नहीं जानते थे. ये लोग कच्चे या घास-फूस के मकान बनाते थे. यह एक पूरी तरह ग्रामीण सभ्यता थी. तब इन्द्र ने कौन से नगरों को नष्ट किया था? जाहिर है सिंधु सभ्यता के नगरों को. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आगे चलकर यही इन्द्र एक पीठ बन गया था जैसे कि आज के शंकराचार्य.
गार्डन वाइल्ड तथा व्हीलर के मत में सिंधु सभ्यता के पतन का मुख्य कारण आर्यों का आक्रमण था। दोनों विद्वानों के अनुसार सिंधु सभ्यता के नगरों में सड़कों, गलियों तथा भवनों के आंगनों में मानव अस्थिपंजर मिले हैं जिससे सिद्ध होता है कि बाहरी आक्रमणों में अनेक लोग मारे गए थे.
अब प्रश्न यह उठता है कि ऋगवैदिक सभ्यता में व्यापारियों को पणि कहा गया तो यह शब्द आया कहाँ से?यहाँ एक बात उल्लेखनीय है की सिंधु सभ्यता के लोगों को लेखन का ज्ञान था लेकिन वैदिक आर्य लेखन से अपरिचित थे। सिंधु घाटी में उत्खनन से अब तक २४६७ लिखित वस्तुएं प्राप्त हो चुकी हैं. इनकी लिपि इडियोग्राफिक (भावचित्रक) है. कुछ विद्वानों के मुताबिक यह चित्र लिपि है. प्रोफेसर लैगडैन का मानना है कि यह मिस्र की चित्र लिपि से अधिक समानता रखती थी.
आर्यों ने आक्रमण करके सिंधु सभ्यता के नगरों को क्रमशः नष्ट किया होगा। यह कोई एक दिन में तो हो नहीं गया था. आर्य सिंधु सभ्यता के सम्पर्क में आए होंगे. ऋग्वेद में ऐसे लोगों का उल्लेख मिलता है जिनका रंग काला है और नाक चपटी. जाहिर है ये सिंधु सभ्यता के लोग थे. ऐसे में आर्यों को वहाँ से सुनकर अनेक शब्द मिले होंगे. जब सिंधु लिपि पढ़ ली जायेगी तब पता चलेगा कि आर्य कुल की भाषाओं में कितने शब्द सिंधु लिपि के समाये हुए हैं. अंदाजा लगाया जा सकता है कि सिंधु सभ्यता में व्यापारियों को पणि कहा जाता रहा होगा.
गौर करने की बात यह भी है कि सिंधु घाटी से जो लगभग ५५० मुद्राएं मिली हैं उनका आकार गोलाकार तथा वर्गाकार दोनों तरह का है। मुद्राओं पर एक ओर पशुओं के चित्र बने हैं तथा दूसरी ओर कुछ लिखा हुआ है. इन मुद्राओं को कहीं पणम तो नहीं कहा जाता रहा होगा? जैसा कि द्रविड़ कुल के तमिल और मलयालम समाज में धन! पणि यानी व्यापारी और पणम माने मुद्रा! यह संयोग मात्र नहीं हो सकता कि मैसूर से लेकर श्रीलंका तक फणम या पणम नामक सिक्के चलते थे.
द्रविड़ मानते हैं कि श्रीलंका में सिंहली लोगों से पहले उनकी ही बस्तियां थीं। हो सकता है कि आर्यों के आक्रमण के बाद सिंधु घाटी की बची-खुची जातियाँ जान बचाकर दक्षिण भारत से भी परे श्रीलंका में जा बसी हों. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सिंधु घाटी के निवासी समुद्र से परिचित थे लेकिन आर्य नदियों को ही समुद्र कहते थे. सिंधु घाटी का समाज मूलतः व्यापार आधारित समाज था और नदियों में नौकाओं तथा समुद्र में जहाजों के जरिये इनका व्यापार चलता था. हो सकता है यही द्रविड़ जातियाँ पणम जैसे अनेक शब्द समुद्र पार कर श्रीलंका तक अपने साथ ले गयी हों. कुल मिलाकर यह दूर की कौड़ी लाने की कोशिश ही है.
चतुर्वेदी जी ने बहुत ज्ञानवर्धक जानकारी दी है, आभार.
विजयशंकर जी का यह आलेख पढ़ा, उन से सहमति है। मेरे विचार में पणि शब्द भी आर्यों में सिन्धु सभ्यता से इण्टरेक्शन के उपरांत ही जन्मा होगा। फिर भी आर्यों से प्राचीन, विकसित और समृद्ध थी सिन्धु सभ्यता। आज भी हिन्दू संस्कृति पर उस का अधिक प्रभाव है बनिस्पत आर्य सभ्यता के। आर्य तत्व लगातार प्रभुत्व स्थापित करने के प्रयत्न करते रहे हैं, आज तक भी। आर्यों की मूल भूमि भारत को बताया जाना भी उसी का एक लक्षण है।
शास्त्री जी, मेरा आलेख पुनः प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद!
भाई दिनेशराय द्विवेदीजी ने मेरे ‘आजाद लब’ वाली पोस्ट पर इसी तरह की अच्छी टिप्पणी की थी. जान पड़ता है कि उनका इस सम्बन्ध में मुझसे कहीं ज्यादा गहन और विस्तृत अध्ययन है. आप उनसे अनुरोध करें कि वह इस सम्बन्ध में दो-चार आलेख लिखें. मैं भी उन्हें re-produce करूंगा. धन्यवाद!
विचारोत्तेजक ,इन्द्र का व्यक्तित्व बड़ा विवादास्पद रहा है .वे उद्धारक की भूमिका मे हैं पथ भ्रस्टक की भूमिका में भी ….अवेस्ता मे इन्द्र सरीखा एक चरित्र वर्णित है जो भय मूलक है.जीनोग्रैफी परियोजना से जो नवीनतम तथ्य मिले हैं वे यही संकेत करते हैं की आर्यों के आगमन के हजारो सालों पहले से ही एक मानव-सभ्यता भारत मे स्थापित हो चुकी थी जो अफ्रीका से केरल के समुद्री तट से भारतीय भूभाग मे प्रवेश पा चुकी थी ….और संभवतः कालांतर में उत्तर की और बढ़ कर साम्राज्य विस्तार भी किया होगा .कहीं यही सैन्धव सभ्यता के मूल वासी तो नही थे ….अब मिथकों के परिप्रेक्ष्य में इस संकल्पना को देखें –
देवासुर संग्राम की कथा कहाँ फिट बैठती है …..और राम रावण युद्ध ……..???????????
बहुत उलझा मामला है ….मगर अब कुछ झरोखे खुल रहे हैं ,देवासुर संग्राम में इन्द्र हैं –राम् रावण तक आते आते उनका उल्लेख कम ही है ..हम एक मिश्रित विरासत जी रहे हैं सब कुछ मिला जुला है ..हमारे स्मृति शेषों में कही इन्द्र एक विधर्मी है तो कहीं वह रक्षक की भूमिका मे है .
देवासुर संग्राम कहीं आर्य -सैन्धव महायुद्ध की स्मृति ही तो नही है ?स्त्री लोलुपता इन्द्र के चरित्र मे है ,पराक्रम भी उसका एक प्रमुख दर्शित गुण है .स्त्रियों की स्मृति अवतरण के चलते वह भोगी है ,पर सोम प्रेमी आर्य पुत्रों की स्मृति परम्परा में वह महा बलशाली है .
आर्यों ने इन्द्र के नेतृत्व में सैधव पुरुषों का संहार किया किंतु स्त्रियों को अपने भोग विलास के लिए रख छोडा -आगामी वंश परम्परा मे इसलिए इन्द्र का विरोधाभासी व्यक्तित्व —माँ की तरफ से कुछ बताया गया ,पिता की तरफ से कुछ .सब गड मड होता गया ……..[यह केवल मेरे मन का फितूर है पर आज की पोस्ट इतनी रोचक थी कि मैं इन उदगारों को रोक न सका …..अब यह एक्सपर्ट विचार के लिए प्रस्तुत है ]-कृपया यह वेब साईट भी देखें –
https://www3.nationalgeographic.com/genographic/
बिल्कुल सटीक वर्णन किया है आपने..गौर से देखें तो अाज के भारत में वैसे तो कोई भी अपनी रक्त की शुद्धता का दावा नहीं कर सकता…लेकिन फिर भी अगर आर्य संस्कृति की बात की जाए..तो अभी भी देश का उत्तर और पश्चिमोत्तर भाग आर्यों की संस्कृति का ज्यादा प्रतिनिधित्व करता है..इसकी वजह…यह है कि चुंकि आर्य उत्तर-पश्चिम से आये थे..इसलिए पूरब और दक्षिण में उनका घनत्व कम है। दक्षण में तो सिर्फ ब्रा्ह्मण ही आर्य होने का दावा करते हैं..बल्कि उनमें भी हजारों सालों में कुछ मिश्रण ही हुआ है-रंग इसका प्रमाण है(हलांकि कुछ लोग इसकी वजह दक्षिण का विषुवतीयरेखा के निकट होना मानते हैं) दूसरी तरफ अगर आप देश के पूर्वी हिस्सों की तरफ बढ़े तो वहां भी पितृसत्ता कमी होती जाती है..और मातृ सत्ता का असर साफ दिखता है। गौर कीजीए..पूरा का पूरा पहाड़, और उत्तर पूर्वी भारत शाक्त मत को मानता है..जो मातृसत्ता का प्रतीक है।आर्यों के उच्च वर्ण मछली नहीं खाते थे-लेकिन अभी भी बंगाली और मैथिल ब्राह्मण मछली खाते हैं।जबकि देश का उत्तरी और पश्चिमोत्तर भाग बैष्णब है जो आर्यो के देवता थे। देश का दक्षिणी हिस्सा शैव मत को मानता है जो गैर-आर्यन देवता थे।जाहिर है..आर्यों का पुरुषवादी चरित्र अभी भी दिख ही जाता है। क्या यह आश्चर्य है कि अभी भी सबसे ज्य़ाजा कन्या भ्रूणहत्या पंजाब में ही होती है…आर्यों का गैर-आर्यों के साथ इतना मिश्रण हुआ है कि अगर मिथिलांचल और बंगाल के लोगों की तुलना पंजावियों के साथ की जाए तो साफ फर्क दिख जाता है। जाहिर है..धीरे-धीरे ये बात साफ होती जा रही है कि इस देश में आर्य बाहर से ही आए थे। और अगर अगर सिंधु सभ्यता, आर्यों से पुरानी है तो अार्य ही इसके विनाशकर्ता हैं।
बढ़िया पोस्ट है। संस्कृत का पण्य शब्द कारोबार के सिलसिले में प्रयोग होता रहा है। पण्यशाला से ही बना पणसार और फिर पंसारी अर्थात कारोबारी। इस पर मैं शब्दों का सफर में पोस्ट लिख चुका हूं। पण् प्राचीनकाल में मुद्रा भी थी। द्रविड़ भाषा में यही फणम् है। मुंबई का पनवेल भी कारोबारी तट ही था इसी लिए पण्यवेला हुआ पनवेल। शब्दों के सफर पर इसी कड़ी में कुछ और भी आगे लिखूंगा।