आज लिखने बैठा तो एक उम्दा एवं सशक्त लेखनमाला मेरी नजर मे आई. प्रस्तुत हैं कुछ उद्धरण — इस उम्मीद के साथ कि आप पूरी लेखनमाला जरूर पढेंगे:
***** Ask any Bihari student of Delhi University. She/he may be infinitely more, or equally at least, intelligent, hardworking and ambitious but she faces a daily disadvantage if she has had a largely Hindi education. There are no good books on major subjects in ‘national language’ Hindi, classroom lectures and notes are all in English – both making comprehension difficult. [ भारत की भाषाई चुनौती I]
***** यह बात सही है कि आप भाषा किसी पर थोप नहीं सकते लेकिन राष्ट्रीय भावना के विकास के सहारे राष्ट्रीय भाषा का विचार धीरे-धीरे अपनी जगह ले सकता है। लेकिन विज्ञान और तकनीक की विचारधारा पर जब तक संप्रभु वर्ग का नियंत्रण बना रहेगा तब तक अंगरेजी को भारतीय भाषायें पदच्युत नहीं कर सकतीं। [अँगरेजी का अंडरवर्ल्ड]
***** अगर आप चाहते हैं कि यह स्थिति बदले तो बाज़ार की शक्तियों से टकराना होगा. अंगरेजी के बाज़ार से लड़े बिना अगर आप भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाना चाहते हैं तो वह दिवास्वप्न ही साबित होगा. भारतीय भाषाओं के पक्ष में युद्ध छेड़ने वालों के रवैये से स्पष्ट होता है कि अंगरेजी बाज़ार की भाषा बनी रहे तथा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएं अस्मिता की भाषा के रूप में प्रतिष्टित हों. विचार करने की बात है कि अगर अंगरेजी बाज़ार और अच्छे रोज़गार (ऊंची नौकरी और बड़े कारोबार) की भाषा बनी रहती है तो आप समाज के लोगों पर कैसे दबाव डालेंगे कि वे अपने बच्चों को मातृभाषा (हिन्दी, मराठी, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि) में शिक्षा दिलाएं? [अंगरेजी का खतरनाक अंडरवर्ल्ड (अन्तिम)]
हिन्दी को साहित्य की नहीं – बाजार-नौकरी-कम्प्यूटराउर इण्टरनेट की भाषा बनना चाहिये! तभी वह आगे बढ़ेगी।
There are no good books on major subjects in ‘national language’ Hindi, classroom lectures and notes are all in English – both making comprehension difficult.
यह समस्या का कारण नहीं है, लक्षण है।
यदि प्रतियोगी परीक्षाओं में अति कठिन अंग्रेजी की परीक्षा की अनिवार्यता न हो ; और इसके आगे अमेरिकी या ब्रिटिश शैली में ‘फ़्लुएन्ट इंग्लिश’ की मांग न की जाय ; तो बहुत बड़ी संख्या में लोग अपनी मातृभाषा में सारे विषय पढ़ना/पढ़ाना चाहेंगे। और तब रातोरात हिन्दी आदि देसी भाषाओं में उच्च गुणवत्ता वाली पुस्तकें मिलने लगेंगी।
किन्तु मैं तो यह भी नहीं मानता कि हिन्दी में पढ़ने वाले छात्र किताबों की खराब गुणवत्ता या किताबों की भाषा के कारण पिछड़ जाते हैं। बात यह कि विज्ञान एवं तकनीकी की पढ़ाई के लिये किसी ‘हाई-फाई’ अंग्रेजी की जरूरत होती ही नहीं है। इसलिये अंग्रेजी में कमजोर से कमजोर (किन्तु कांसेप्ट का समझदार, बुद्धिमान ) बच्चा भी इन तथाकथित अंग्रेजी की किताबों से पढ़ लेते हैं।
मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होने अपने गांव के पास के विद्यालय (घर की मुर्गी) को छोड़कर पास के कस्बे के ‘अंग्रेजी माध्यम’ के स्कूल में अपने बच्चों को पहली कक्षा से ही पढ़ाने का बोझ उठाया। किन्तु दस साल बाद ढ़ाक के वही तीन पात ! बच्चे कहीं के नहीं रहे। आजकल लुधियाना में श्रमिक का काम कर रहें हैं। (मैं किसी श्रमिक या श्रम को पूरे सम्मान से देखता हूं; किन्तु यह बात अन्य सन्दर्भ में कहनी जरूरी है)
शास्त्री जी, आपको मेरे लेख इस लायक लगे कि कुछ अंशों को आपने अपने प्रतिष्ठित ब्लॉग में जगह दी. यह मेरे लिए सम्मान की बात है. बहुत-बहुत धन्यवाद!
पहला उद्धरण वरिष्ठ पत्रकार श्री राहुल देव के लेख से था.
अनुनाद जी की बातों से मैं आंशिक तौर पर सहमत हूँ लेकिन वह अमेरिकी या ब्रिटिश शैली में ‘फ़्लुएन्ट इंग्लिश’ की जो बात कर रहे हैं वह तो १०वीन् -१२वीन् पास बच्चे काल सेंटरों में बोल लेते हैं. असल बात भारतीय भाषाओं में शोध तथा अत्याधुनिक ज्ञान के शास्त्र लिखे जाने की है. इसके अलावा पढ़ाई का माध्यम अंगरेजी को बिलकुल भी न बनाए जाने की है. भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा लेकर जिसे अंगरेजी सीखना हो वह अंगरेजी सीखे, जिसे फ्रेंच सीखना हो वह फ्रेंच सीखे….
ज्ञानदत्त जी की बात का समर्थन मैंने अपने लेख के पहले भाग में किया था और वैसा न हो पाने के कारण भी ढूँढने की कोशिश की थी. उनका धन्यवाद!
मुख्य दोष व्यवस्था का है.
और इसमे भागीदारी कमोबेश हम सबकी है.
इच्छाशक्ति की कमी और शायद पिछड़ जाने का डर इस असफलता की अग्नि मे घी का काम करते हैं.
शास्त्री जी। हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं को सही स्थान तक पहुँचाने के लिए बहुत काम होना शेष है। जो अब तक हो जाना चाहिए था लेकिन हमारे ब्यूरोक्रेटिक सेट-अप ने उसे नहीं होने दिया।
हिन्दी के नाम पर जो लोग इस देश में सरकारी पदों पर बैठे हैं या सरकारी अनुदान प्राप्त कर रहे हैं, उन की रुचि केवल धन बनाने में है, हिन्दी में नहीं। राजनीति जिस दशा को प्राप्त हो चुकी है, उस से निकट भविष्य में आशा बहुत कम है। लेकिन हिन्दी के लिए बहुत से दूसरे लोग अन्तर्प्रेरणा से काम कर रहे हैं। सारा दारोमदार उन्ही पर है। वस्तुतः वे ही हिन्दी के काम में लगे हैं।
सब से पहली प्राथमिकता यह होना चाहिए कि सभी प्रकार का ज्ञान हिन्दी व भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होना चाहिए। इस में बड़ा काम अनुवादकों का है। जो विश्व का श्रेष्ठतम ज्ञान हमें हिन्दी में उपलब्ध कराएँ। आज भी अनेक विषयो पर हिन्दी व भारतीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं है।
दूसरा मोर्चा सरकार और उस के संस्थानों के विरुद्ध लगाना होगा। कोई भी नौकरी अंग्रेजी ज्ञान के अभाव में किसी को अनुपलब्ध नहीं होनी चाहिए।
तीसरा हमें अंग्रेजी से हिन्दी व भारतीय भाषाओं के अनुवादकों की संख्या बढानी पड़ेगी।
वैसे ज्ञानदत्त जी ने सब कुछ एक ही वाक्य में व्यक्त कर दिया है। उन के बताए लक्ष्य को पूरा करने के लिए जो कुछ भी करना है करना पड़ेगा।