हम लोग जब ग्वालियर रहते थे, तब हमारे घर में सब लोग सरिता, कादम्बिनी, एवं नवनीत को मंगाना बहुत जरूरी समझते थे. केरल आने के बाद सरिता नियमित रूप से मिल रही है, बाकी जल्दी ही देखेंगे. हंस भी नियमित रूप से आता है.
ग्वालियर में एक पत्रिका जिससे इधरउधर टकरा ही जाते थे वह है ‘मनोहर कहानियां’ एवं उसके अन्य अनुकरण. मजे की बात है कि इन कहानियों का पूर्वार्ध ही ‘मनोहर’ होता था (प्रेम एवं प्रणय) लेकिन अंत लगभग हमेशा ही वीभत्स (हत्या, तेजाब से जला देना) होता था. तब मुझे लगा करता था कि इन कहानियों को पढ कर कम से कम कुछ लोगों को अकल आ जायगी, लेकिन अब लगता है कि मैं कुछ अधिक आशावादी था.
जानवर एक बार शिकारी के जाल से (या मछुए के कांटे) से बच जायें तो फिर आसानी से नहीं फंसते. लेकिन मनुष्य ऐसा विचित्र प्राणी है कि वह जान बूझकर विनाश को न्योता देता है. पिछले कुछ महीनों से हम जिन निर्मम हत्याओं की खबर सुनते आये हैं वे इसके गवाह हैं. दूसरों का विनाश देखने के बाद संभलने के बदले हम स्वयं विनाश के साथ खेलते है. उसकी भयानकता को नजरअंदाज करते हैं.
पिछले दिनों मैं ने एक परामर्शदाता (काउंसिलर) के बारें में पढा जिसने सैकडों परिवारों को अपनी वाणी से जिंदगी दी. लेकिन दस साल की प्रेक्टीस के बाद जब एक के बाद एक उसके परामर्श के लिये पहुंची स्त्रियां गर्भवती होने लगीं तब समाज चौका. एक साथ कई जिंदगियां बर्बाद हो गईं.
लगता है कि हम में से हरेक के भीतर एक देव एवं एक दानव है. दैवी स्वभाव हर कोई चाहता है, लेकिन बहुत लोग छुप छुप कर दानव को दानाचारा डालते रहते है. समय रहते कई लोग चेत जाते है, लेकिन कई और अधिक ढीठ होते जाते हैं. एक मनोहर कहानी एक वीभत्स अंत की ओर बढ जाती है.
सही है जी….चलिए मनोहर कहानियों के बहाने आपके दर्शन तो हुए
कोई चालीस वर्ष पूर्व मनोहर कहानियाँ एक अच्छी पत्रिका हुआ करती थी। लेकिन जब से इस ने सत्य कथाओं के नाम से अपराध परोसना शुरू किया, तब से भले ही यह लोकप्रिय हो गई हो लेकिन इस ने अपनी सामाजिक भूमिका को त्याग कर असामाजिक भूमिका ग्रहण कर ली।
मनोहर कहानियां का एक जमाना हुआ करता था …पर क्या यह अब भी छपती है ?
सच फरमाया आपने हर मनुष्य में देव और दानव दोनों रहते हैं -अब यह माहौल पर निर्भर होता है कि कौन ज्यादा प्रोत्साहित होता है .
आपकी इन बातों से भला कौन असहमत हो सकता है। वैसे, आज की ओढ़ी हुई प्रगतिशीलता व आधुनिकता के युग में देव और दानव की बात हो जाये, वह ही बहुत है।
हिन्दी में अच्छी पत्रिकायें देखने में कम मिलती हैं। उससे बेहतर सामग्री तो ब्लॉग पर मिलती है!