प्राचीन भारत दुनियां के सबसे विकसित देशों में से एक था. तकनीकी, शिक्षा, अर्थव्यवस्था, एवं ललित कलाओं में भारत का कोई जोड नहीं था. अर्थव्यवस्था के विकास के साथ चांदी एवं सोने के सिक्कों का चल आरंभ हुआ. अनुमान है कि ईस्वी पूर्व 2000 के आसपास सोनेचांदी के पिंड तौल के हिसाब से व्यापार के लिये उपयोग में आने लगे, एवं ईस्वी पूर्व 1000 के आसपास विशेष चिन्हों से युक्त सिक्कों का प्रचलन प्रारंभ हुआ.
पिछली दो शताब्दियों में यूरोपीय विद्वानों ने भारत के प्राचीन तकनीकी आर्थिक विकास के बारें में सबसे अधिक लिखा था. अपने “गुलाम” की महानता को मानना उन लोगों के लिये अपमान की बात थी, अत: उन्होंने सिर्फ 600 ईस्वी पूर्व से ही भारत में सिक्कों के चलन की बात स्वीकार की है. लेकिन अनुसंधान द्वारा हमें वास्तविक चित्र सबके समक्ष लाना होगा.
फिलहाल स्वीकृत प्राचीनतम सिक्कों को “आहत” (पंच मार्क्ड) सिक्के कहा जाता है. चांदी के मोटे पत्तर को चौकोर टुकडों में काट लिया जाता था. इसके बाद इनको तौल कर इनके कोने धीरे धीरे काट कर इनको मानक भार के तुल्य किया जाता था. इस कारण “चौकोर” आहत सिक्के हर आकृति में मिलते हैं. कई बार एक पूर्ण सिक्के को काट कर दो अर्ध सिक्के बनाये जाते थे, और तब उनकी आकृति और भी विचित्र हो जाती थी.
आज सिक्कों के शौकीन लोग इन चांदी के आहत सिक्कों को 100 रुपये से 400 रुपये में खरीद सकते हैं. अगले लेख में हम आहत सिक्कों के विभिन्न रूप देखेंगे.
[कल मैं ने जिस तकनीकी समस्या की सूचना दी थी वह श्री रवि रतलामी के मार्गदर्शन से मैं ने 15 मिनिट में हल कर लिया. रवि जी को मेरा आभार!!]
Informative write-up.
श्रंखला का प्रारंभ सुंदर और ज्ञान सूचनात्मक है।
रवि भाई, हिन्दी चिट्ठाकारों के संकटमोचक हैं।
यह तो सार्थक पोस्ट है आहत के विषय मे। धन्यवाद।
ज्यादा खरीददार मिले तो आहत सिक्के बनाने वाले नया कारोबार चला देंगे – उनकी टकसाल का! 🙂
सही श्रृंखला.
सारथी, अपनी योग्यता के अनुरूप.
एक और ज्ञानवर्धक लेख. आभार. 🙂