1947 के पहले 150 साल तक हिन्दुस्तान के लोग तनमनधन से देश की आजादी के लिये एकजुट होकर लगे रहे थे. आजादी दूर थी. वे जानते थे कि शायद उनके जीवन में आजादी न आ पाये. लेकिन इसके बावजूद अपने बालबच्चों को वह आजादी दिलाने के लिये उन लोगों ने जान की बाजी लगा दी.
उसी हिन्दुस्तान में आज प्लेटफार्म टिकट खरीदने की बात करते हैं तो लोगों को तीन रुपया खर्च करना अखरता है. सवाल है कि मर्ज क्या है. समझ में आ जाये तो सही दवा ढूंढना आसान हो जाये.
मनुष्य का स्वभाव है कि जब सब कुछ सही चल रहा होता है तब वह गैर के बारे में नहीं सोचता. गैर व्यक्ति का दर्द, उसकी जरूरतें, उसकी परेशानियां, मुसीबतें वह नहीं देख पाता. उसकी आंखें अपनी सुविधा एवं सुख संपन्नता के कारण मदहोश एवं अंधी हो जाती हैं.
क्या आपने कभी रेलगाडी के स्लीपर दर्जे में सफर करते समय नवधनाढ्य लोगों को उसी दर्जे में यात्रा करते देखा है? वे सारा समय शोर करने, अट्टाहास करने, ऊची आवाज में गाने सुनने, आदि में बिताते हैं. वे रात को बाकी लोगों की फिकर नहीं करते एवं उनको सोने नहीं देते. लट्टू बंद नहीं करते. अपने आसपास के यात्रियों के साथ जानवरसमान व्यवहार करते हैं. अपना सामान जमकर गैरों की सीट पर रखते हैं लेकिन गलती से भी कोई गैर उनकी सीट को छू जाये तो उनका पारा आसमान छू जाता है.
मैं बहुत अधिक रेलायात्रा करता हूँ. हर भाषा, संस्कृति, समाज के लोगों से पाला पडता है. लेकिन हर बार एक बात समझ में आती है — उथले किस्म के नवधनाढ्य लोगों की सिर्फ एक संस्कृति होती है और वह है स्वार्थ. अपनी नई संपन्नता के कारण वे अपना गरीब भूतकाल एवं गरीबों का वर्तमान काल भूल कर स्वार्थ से मदहोश आंखों द्वारा हर चीज देखते हैं. हर चीज उनको "लूट" के माल के रूप में ही दिखता है.
भारत जब स्वतंत्र हुआ था तब से सारे देश में काले अंग्रेजों की एक बडी जमात अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये देश को लूट रहा है. राजनेता, सरकारी तंत्र, एवं थोडे से स्वार्थी लोगों ने जम कर जनता को लूटना शुरू कर दिया. उनके लिये भारतदेश "प्रेम" का नहीं बल्कि अंग्रेजों के समान लूट का पात्र था. इन लोगों ने 60 सालों में न केवल हिन्दुस्तान को जम कर आर्थिक सतह पर लूटा बल्कि हमारी संस्कृति को भी इन लोगों ने तबाह कर दिया. फलस्वरूप "वसुधैव कुटुम्बकम" को छोड कर हम में से अधिकतर लोग अपने अपने स्वार्थसिद्धि में लग गये. यही है आज हमारा सबसे बडा रोग — स्वार्थ!!
सही कहा आपने। स्वार्थ ने सम्पूर्ण मानवजाति को अंधा कर दिया है। उसे सिर्फ वही दिखता है जो वह देखना चाहता है।
समस्या जटिल है. क्या हम स्वार्थ को पारिभाषित कर सकते हैं. इसके भी कई प्रकार हो सकते हैं.
आप का यह लेख टिप्पणियों के काबिल नहीं है, तभी यहाँ पर कम टिप्पाये गए हैं.
ऐसे सत्य कोई नहीं सुनना चाहता, क्योंकि हम कम से कम इस मामले में तो नहीं ही सुधरेंगे.
क्या ख़याल है मास्साब !!
पा.ना. जी हम चाहे हर स्वार्थ छोड़ दें, पर रेल में यदि पहले सीट मिलेगी तो हम हमेशा ही चाहेंगे कि जब तक कि हमारा गंतव्य न आ जाए, पूरी बोगी में अब कोई न घुसे.
नो गन्तव्यम, नो घुसितव्यम.
यही हमारा है कर्तव्यम.
हमने देश के विकास का मार्ग ही गलत चुना था। लेकिन अब भी नए रास्ते की तलाश कहाँ है।
जिस तरह आने सही रोग की पहचान की है काश उसी तरह इसका कोई सटीक इलाज भी मिल पाता…..
kab se is pravritti ko hatane ki koshish ho rahi hai……….lekin aadt se majboor sabhi koi badlaav lana nahin chahte……….sanvedansheel janon ko laachaar,bebas samjha jaata hai……..