मैं सारे अपने जीवन एक सामाजिक प्राणी रहा एवं हर तरह के सामाजिक कार्यक्रमों मे भाग लेता रहा हूँ. मैं ने हमेशा नोट किया था कि ऐसे अवसरों पर बहुत लोग मुझसे मिलना एवं बातचीत करना चाहते हैं, एवं इस कारण किसी भी तरह के कार्यक्रम के बाद मैं सबसे आखिर में ही घर जा पाता था.
सब के चले जाने के बाद घर जाना आसान बात नहीं है क्योंकि इसका मतलब है कि हर फंक्शन के बाद आपके एक से दो घंटे अधिक बर्बाद होते हैं. लेकिन एक बार एक युवा दंपति ने एक बात कही जिसने मेरा सारा नजरिया बदल दिया. वे बोले “शास्त्री जी, आपको मालूम है क्या कि क्यों आपसे बात करने के लिये लोग इतने उत्सुक रहते हैं.” मैं ने जवाब दिया कि शायद मैं काफी जनप्रिय हूँ एवं इस कारण ऐसा होता होगा.
उस युगल ने जवाब दिया:
“आप जनप्रिय हैं, इसमें कोई शक नहीं है. आपने नोट किया क्या कि इस सभा में और भी कई जनप्रिय लोग हैं लेकिन उनके पास लोग इस तरह से न तो इकट्ठे होते हैं, न ही इस तरह से उनके साथ बातचीत करना चाहते हैं. आपकी तरफ लोग जो खिचते हैं उसका मुख्य कारण यह है कि लोग जब आपके पास आते हैं तो आप उनको “वांटेड” महसूस करवाते हैं.”
यह मेरे लिये नई खबर थी क्योंकि मैं ने अपनी तरफ से कभी ऐसा करने की कोशिश नहीं की थी. मैं तो हरेक के साथ वह व्यवहार करता था जो मुझे “सामान्य” महसूस होता था. अत: मैं ने उनसे पूछा कि “क्यों भईया, मैं किस तरह लोगों को वांटेड महसूस करवाता हूँ”. उनका जवाब था:
“कोई भी व्यक्ति जब आपके पास आता है तो आप हमेशा उस व्यक्ति की तरफ पूरा ध्यान देते हैं, उसे उसके नाम से संबोधित करते हैं, एवं हमेशा उनके जीवन, परिवार, या पेशे के बारें में बहुत सिन्सियरली दिलचस्पी लेते हैं. इतना ही नहीं, आप जब भी किसी से बात करते हैं तो हमेश उसके चेहरे पर देख कर बात करते हैं, अत: हम में से हरेक को ऐसा महसूस होता है कि आप हर तरह से हम को अपना समय एवं ध्यान दे रहे हैं. ऐसे व्यक्ति के बारें में हमारा अवचेतन मन कहता है कि वह हमारा सबसे बडा मित्र एवं हितचिंतक है. मजे की बात यह है कि आपके पास जो भी आता है, उसे ऐसा ही महसूस होता है”
उस दंपति ने मुझे जीवन का एक बहुत बडा पाठ उस दिन पढा दिया — कि यदि हम लोगों के चेहरे पर देख कर, उनके नाम से संबोधित कर, उनसे बातचीत करें तो उनको बहुत आत्म संतुष्टि एवं आत्मबल मिलता है. मैं तो हमेशा ही लोगों की मदद करने की कोशिश करता था, लेकिन यह बात जब समझ में आई तब से और अधिक समर्पण के साथ ऐसा करना शुरू कर दिया है, एवं उसका फल बहुत मीठा रहा है. आप भी आजमा कर देखें.
इससे संबंधित निम्न टिप्पणियों पर भी ध्यान दे: (कल के एवं आज के चिट्ठों से):
लोगों का नाम याद रखने से बहुत सुविधा होती है; सम्बन्ध जीवन्त लगते हैं। Anunad Singh
किसी के समक्ष उसका या उसके बच्चे का नाम ले लो, तो सामनेवाले के चेहरे में मुस्कराहट आ जाती है। Sangita Puri
हमारे गुरु कह करते थे की मरीज को नाम से बुलायोगे तो उसे बहुत अच्छा लगेगा …..Dr anurag
सामने होता है तो उस का नाम तो याद आ ही जाता है और नाम ले कर बात करने का मजा कुछ और ही है। दिनेशराय द्विवेदी
वाह, लग रहा है जैसे डेल कार्नेगी को रिवाइज कर रहे हैं! सुन्दर। ज्ञानदत्त पाण्डेय
वैसे ज्ञानदत्त जी ने आप को पहचान ही लिया. You Dele Karnegi
ई-गुरु राजीव
bilkul theek farmaya aapne, naam se sambodhit kar kr kisi se baat karte huye jo rishta banta hai vo alag hi feeling deta hai…rakhshanda
sahi kaha aapne.naam se sambodhan se apnatva ka ehsas hota hai,anil pusadkar
मुझे नेपोलियन के बारे में प्रचलित एक कहावत याद आ रही है। कहावत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैने किसी ऐतिहासिक महत्व की किताब में इसका उल्लेख नहीं पाया। हो सकता है कि यह सच भी हो। कहते हैं, इतनी सारी लड़ाइयाँ जीतने के पीछे एक राज़ था। नेपोलियन अपनी सेना के हर एक सैनिक को उसके नाम से पुकारा करता था। सैनिक को ऐसा लगता था कि उसका सेनापति लाखों लोगों की सेना में से उसे व्यक्तिगत रूप से जानता है, और फ़िर वो लड़ाई में अपने इस ख़ास सेनापति के लिए और भी जान लगा कर लड़ता था। अब कहानी सही हो या गलत, इससे कम से कम एक बड़ी सीख तो मिलती ही है। देवब्रत सिंह
ArticlePedia | Indian Tourist | All About India | Indian Coins
आप जैसे सीनियर लोगों से मुझे हमेशा ऐसी ही ज्ञानवर्धन की अपेक्षा रहती है . धन्यवाद .
sahi kaha aapne.naam se sambodhan se apnatva ka ehsas hota hai,
bilkul theek farmaya aapne, naam se sambodhit kar kr kisi se baat karte huye jo rishta banta hai vo alag hi feeling deta hai…
वाह, लग रहा है जैसे डेल कार्नेगी को रिवाइज कर रहे हैं!
सुन्दर।
सामने होता है तो उस का नाम तो याद आ ही जाता है और नाम ले कर बात करने का मजा कुछ और ही है।
बहुत अच्छी बातें बतलायी , पर आज के युग में भला इतना सामाजिक कौन होना चाहता है ?
हमारे गुरु कह करते थे की मरीज को नाम से बुलायोगे तो उसे बहुत अच्छा लगेगा …..
लगता था कि शास्त्री जी मेरा नाम याद रखेंगे. पर ये क्या हमारी टिपण्णी आने के पहले ही पैक-अप हो गया. :0
वैसे ज्ञानदत्त जी ने आप को पहचान ही लिया.
You Del Karnegi 🙂
शास्त्री जी, सही कहा आपने..
मुझे नेपोलियन के बारे में प्रचलित एक कहावत याद आ रही है। कहावत इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैने किसी ऐतिहासिक महत्व की किताब में इसका उल्लेख नहीं पाया। हो सकता है कि यह सच भी हो।
कहते हैं, इतनी सारी लड़ाइयाँ जीतने के पीछे एक राज़ था। नेपोलियन अपनी सेना के हर एक सैनिक को उसके नाम से पुकारा करता था। सैनिक को ऐसा लगता था कि उसका सेनापति लाखों लोगों की सेना में से उसे व्यक्तिगत रूप से जानता है, और फ़िर वो लड़ाई में अपने इस ख़ास सेनापति के लिए और भी जान लगा कर लड़ता था।
अब कहानी सही हो या गलत, इससे कम से कम एक बड़ी सीख तो मिलती ही है।
पूर्णतः सहमत. ज्ञानवर्धन का आभार.
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आपके आत्मिक स्नेह और सतत हौसला अफजाई से लिए बहुत आभार.
नाम का तो बहुत महत्त्व है…याद आता है जब 45 बच्चे हफ्ते में एक बार हमारी परीक्षा लेते कि हमे कक्षा के सभी बच्चो का नाम याद है या नहीं….इसी तरह बड़े होकर भी यही भाव मन मे रहता है लेकिन बनावट ज़्यादा होने से रिश्ते अस्वाभाविक हो जाते है..
वैसे तो कहा यह भी जाता है कि नाम में क्या रखा है.. लेकिन नाम में बहुत कुछ है यह मानते हुए आपकी बातों से सहमत हूं.
हम्म… यानि नाम में बहुत कुछ रखा है ..सुंदर लेख
स्कूल में एक मास्टरजी की याद आ गई।
विपरीत नीति!
क्लास में ४० से ज्यादा विद्यार्थी नहीं थे और उनके साथ रोज संपर्क था उनका।
फ़िर भी किसी को नाम से नहीं जानना चाहते थे।
संख्यों से पहचानते थे। स्मरण शक्ती तीव्र थी और नम्बर में कभी भी भूल नहीं होती थी!
“रोल नम्बर २२, क्लास छोडो! नम्बर १०, होमवर्क क्यों नहीं किया?
इत्यादि।
हम लोग किसी जेल में कैदी जैसा अनुभव करते थे।
यह कहने की आवश्यकता नहीं के क्लास पास करने के बाद हम में से कोई भी उनकी याद नहीं करते थे और न ही उन्हें “गुड मॉर्निंग सर” कहते थे।