कुछ कचोटते प्रश्न…??? में सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने एक परिवार की कथा सुनाई है जहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं एवं उनकी बच्ची को एक नौकरानी पालती है जो बेहद क्रूर है. नौकरानी अपने कार्य में दक्ष है इस कारण मांबाप उसे छोडने को तय्यार नहीं है. लेख के अंत में उन्होंने कई प्रश्न रखें हैं लेकिन उनका अनुमान है कि डर के मारे कई लोगों ने इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया. प्रश्न इस प्रकार हैं:
१.क्या एक सभ्य समाज के नाते हमें ऐसी व्यवस्था नहीं बनानी चाहिए कि एक मासूम को उसकी जीती-जागती माँ का वात्सल्य भरपूर मात्रा में मिल सके?
२.क्या पति-पत्नी दोनो का नौकरी करना इतना आवश्यक और अपरिहार्य हो गया है कि उसकी कीमत एक बच्चे को माँ की ममता से हाथ धोकर चुकानी पड़े?
३.जिस औरत को ममतामयी और दयालु कहकर महिमा-मण्डित किया जाता है क्या वह प्यार और ममत्व की सेवा (नौकरी) के बदले मजदूरी (वेतन) लेकर भी अपनी ड्यूटी न निभाते हुए इतनी क्रूर हो सकती है?
४.क्या वह पारम्परिक व्यवस्था जिसमें पति-पत्नी परिवार की गाड़ी के दो पहिए होते थे, जहाँ घर का पुरुष जीविका कमाकर बाहर से लाता था, और पत्नी घर के भीतर का प्रबन्ध संभालती थी; इतनी अनुपयुक्त और अधोगामी हो गयी है कि उसे पूरी तरह से त्याग कर काम के बंटवारे के बजाय काम में प्रतिस्पर्धा का वरण किया जाना अपरिहार्य हो गया है?
५.आज के उपभोक्तावादी समाज में कहा जाता है कि धनोपार्जन से ही सुख के साधन जुटाये जा सकते हैं। लेकिन क्या इस धन को ही सुख का एकमात्र साधन मान लेना हमें हमारे ‘साध्य’ से भटका तो नहीं रहा है? क्या इस आपा-धापी में धन ही हमारा साध्य नहीं होता जा रहा है?
६.नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण के लिए उसका धनोपार्जन करना कितना जरूरी है? नारी की बौद्धिक जागृति के लिए नैतिक और मूल्यपरक शिक्षा अधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक है कि उसकी आर्थिक सम्पन्नता के लिए तकनीकी शिक्षा?
७.स्त्री और पुरुष के बीच अन्योन्याश्रित सम्बन्ध ठीक हैं कि उनके बीच हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा होना ठीक है। क्या स्त्री और पुरुष का आपस में प्रतिस्पर्धा करना प्रकृति-सम्मत भी है? ताजे ओलम्पिक खेलों में कुछ संकेत खोजे जा सकते हैं क्या?
८.परिवार का गठन कैसे हो? या, यही कि पारिवारिक जीवन कितना जरूरी है?
मुझे कोई ताज्जुब नहीं है कि काफी सारे लोग इन प्रश्नों का उत्तर देने से कतरा गये. हिन्दी चिट्ठाजगत में पांचदस लोगों का एक बहुत छोटा सा समूह है जो हर चीज में भारतीय अवधारणा का विरोध करता है. उनको हिन्दी से परहेज है, संतुलित परिवारों से परहेज है, हर उस चीज से परहेज है जो भारतीय है. जो भी चिट्ठाकार विवाह, परिवार आदि से संबंधित प्रश्नों के सही उत्तर देता है, वे उस का जम कर विरोध करते है, टिप्पणी एवं प्रतिटिप्पणी की जाती है. व्यंग किया जाता है. झूठ बोला जाता है.
अधिकतर जनप्रियता को बडा महत्व देते हैं अत: इन पांचदस लोगों से पंगा नहीं लेना चाहते हैं. यह मानव समाज की विडंबना है कि एक उथली जनप्रियता के लिए कई बार ज्ञानवान लोगों के मूंह बंद हो जाते हैं.
जब सत्य, नैतिकता, परस्पर आदर, आदि के पक्ष में लोग बोलना बंद कर देते हैं तो असत्य, अनैतिकता, एवं परस्पर आक्रामक हिंसा समाज को ग्रस लेती है. जब हिटलर ने लाखों लोगों की हत्या कर उनके शवों के टुकडे टुकडे को (चर्बी, हड्डी का चूरा, बाल आदि के रूप में) बेचा था, तब उसे इस बात से बडी आसानी हो गई थी कि अधिकांश जर्मन लोगों ने उसके कर्मों का समर्थन किया था. बाकी लोग चुप रहे. ऐसा हर जगह होता है, लेकिन मेरा इरादा यह नहीं है. सारथी पर हर विषय पर खुली चर्चा होगी एवं मैं अपने प्रस्ताव खुले में रखूंगा. जो विरोध करना चाहते हैं उनका हमेशा स्वागत रहेगा कि वस्तुनिष्ठ तर्क के आधार पर चाहे तो वे शास्त्रार्थ करें. यह सत्य की खोज का भारतीय तरीका है.
समय आने पर सिद्धार्थ जी के एक एक प्रश्न पर एक एक आलेख लिखूंगा, लेकिन आज के लिये इतना कहना काफी होगा कि तथाकथित विकास की अंधी दौड में हम विवाह एवं परिवार के मामले में भारतीय अवधारणा को भूल कर एक बहुत बडी गलती कर रहे हैं. बच्चों को मां के प्यार सें वंचित कर मुख्यतया यदि नौकरों द्वारा पलवाया जाये तो कल वे बच्चे इन मांबाप को निकाल सडकों पर छोड देंगे जहां उनकी हैसियत किसी भिखमंगे से अधिक नहीं होगी. विकसित देशों की हालात देख लीजिये, आप को समझ में आ जायगा कि मैं कोई अतिशयोक्ति नहीं कह रहा हूँ.
जो भी चिट्ठाकार विवाह, परिवार आदि से संबंधित प्रश्नों के सही उत्तर देता है, वे उस का जम कर विरोध करते है
ये सही जबाब कौन, कैसे तय करता है शास्त्री जी?
बाकी इन ट्रेडीनशल सवालों के रस्मी जबाब हैं। वो आप देने ही वाले हैं।
आप को समझ में आ जायगा कि मैं कोई अतिशयोक्ति नहीं कह रहा हूँ.
–ठीक है..इन्तजार रहेगा. 🙂
इन सवालों का उत्तर देना सबके बस की बात नहीं -आप ही दे सकते हैं .आज हमें जीवन के निमित्त कई समझौते करने पड़ रहे हैं
मैं लेख और पहली टिप्पणी दोनों से सहमत हूं.
उत्तर नहीं दिये , बिल्कुल दिया गया हैं और प्रूफ़ के साथ लगता हैं आप से भी पढ़ने से रह गया . इस लिंक पर देखे
” कुतर्क ” नहीं तर्कसंगत हैं सोच
@बाकी इन ट्रेडीनशल सवालों के रस्मी जबाब हैं। वो आप देने ही वाले हैं।
अनूप जी, अपनी बात थोड़ा और स्पष्ट करें तो कुछ समझ में आए…। बहुत ऐसे नये विद्यार्थी भी हैं जिन्हें ट्रेडिशनल का ज्ञान भी नहीं है और रस्में भी जानना बाकी है। आप उनको इनसे परिचित करा दें तो अच्छा रहेगा। साथ में अर्वाचीन (contemporary)समाज से उठते इन प्रश्नों को ट्रेडिशनल मान कर पल्ला झाड़ लेने के पीछे यदि कोई स्थापित निष्कर्ष हों तो उनसे भी अवगत कराने का कष्ट करें। …सादर!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
———————————————–
ऊपर की टिप्पणी में दिया गया लिंक काम नहीं कर रहा है। इसे ठीक किया जाय।
———————————————–
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
” कुतर्क ” नहीं तर्कसंगत हैं सोच है
naam click lkareny sae bhi link khul rahaa thaa
naam click lkareny sae bhi link khul rahaa thaa
baar baar tippani kament moderation mae jaa rahee haen
link haen
last time bhej rahee hun khul jaaye to theek
” कुतर्क ” नहीं तर्कसंगत हैं सोच है
रचना जी,निम्न उद्धरण आप द्वारा बताए गये सर्वे से लिए गये हैं। इनसे मेरे किन प्रश्नों के उत्तर मिल रहे हैं, और क्या उत्तर मिल रहे हैं जरा बताने का कष्ट करें।
The trend obviously means that more and more children are being sent to coaching centres and creches etc, eating into the family’s budget.
…In a telling statement of how gender roles have not changed at all, it is usually the male parent who takes part in active physical sports with the child. The survey also found that in two-parent families, the father’s involvement in the child’s school has a distinct, independent and positive influence on the child’s performance. Children do better in school, are more likely to participate in extracurricular activities and enjoy school more if their fathers are involved in the school.
only 4% working fathers spend time with their kids or take responsibilities like supervising homework.
65% working mothers help their children with homework, finish school projects for them, read with them and also play with them. The interesting point here though is that despite the high level of participation in all other activities — 83% do school projects for their children and 79% read with them or help them in activities like cooking, drawing and painting — only 20% mothers actually play a sport with their children.
‘दीग़र सवालों के दीग़र जबाब’ का मामला लगता है यहाँ। फिर भी यदि इस सर्वे पर विश्वास करती हैं तो इससे मेरी अवधारणा ही पुष्ट होती है। मैने महिलाओं को नौकरी न करने की बात तो कही नहीं थी। मेरा तो यही मानना है कि परिवार के भीतर का प्रबन्ध महिलाएं बेहतर तरीके से कर सकती हैं.. यह सर्वे भी कदाचित यही कहता है।
किसी भी माँ का प्राथमिक दायित्व बच्चों का पालन पोषण है। यदि वह नौकरी कर रही है तो समझिए यह उस की मजबूरी है। नौकरी शायद परिवार की भी मजबूरी है। एक बात और परिवारों को भी चाहिए कि उन्हें उन स्त्रियों को जो बच्चों का पालन पोषण कर सुसंस्कृत और सम्मान से जीने लायक बनाती हैं उन्हें भी उतना ही सम्मान दे जितना कि एक जिलाधीश महिला को मिलता है।
सारे रोग की जड़ इस मूल्य में है कि बच्चों की परवरिश करने वाली और परिवार चलाने वाली महिला को समाज में सब से कम सम्मान मिलता है, जब कि वह सब से महत्वपूर्ण काम कर रही होती है। समाज उत्तम पालन पोषण के लिए माताओं का सार्वजनिक सम्मान करने को क्यों नहीं उद्दत होता है?
शास्त्री जी। आप ही क्यों नहीं इस का बीड़ा उठाएँ कम से कम सप्ताह में एक दिन ऐसी माताओं को अपने ब्लाग पर स्थान दें जिन्होने यह सत्कर्म किया है। उन के बारे में लिखें। चोखेर बाली और नारी पर भी सप्ताह में एक दिन यह काम क्यों न हो?
naari par woman empowerment par nirantar likha jaa rahaa aur naari kee purani post daekhae aap ko bahut see easi mahila kae baarey mae padney ko milaega jo apna sab kaam kartey huae dhan bhi kamaa rahee haen
naari kae likae wo kisi bhi varg ki kyu naa ho financial independence bahut jarurii haen aur koi bhi raasta naari ko barabri kaa darja nahin dilaa saktaa .
jo survey maene blog par daala haen jiska link upar haen wo survey saaf tor sae bataata haen ki aaj bhi kaam kaaji mahila apney bachho ko jyaada samay daeti haen aaj kae kaam kaaji pururh sae
yaani mahila naukri karkae huyae bhi apna paarmparik kartavy pura kar rahee haen
aur
usi survey mae yae bhi kehaa gayaa hean ki
tution academy itaydi isliyae chal rahee haen kyuki aaj kal kaa courese itna tough haen ki abhibhavak kae liyae padhaa pana mushkil haen
so mahila kaa naukri kar kae dhan kamaney sae bachcho mae pyaar ki koi kamii nahin aatee
मेरे गुरुदेव कहते हैं की जो महिला नौकरी करती है वह न तो किसी की पत्नी है और न मा वह तो पहले नौकरानी है.
महिला का पहला कर्तव्य तो शिशु की परवरिश के साथ उचित संस्कार देना है. जिसे केवल मा ही दे सकती है.
अगर बहुत बड़ी मज़बूरी नहीं है तो एक मा को नौकरी के स्थान पर बच्चे को संस्कार वन बनाने में रत रहना चाहिए.
महिला और पुरुष ब्लागरों से मेरा एक सवाल है कि आप सब इन सारे सवालों जवाबों के बीच फँसे रहकर अपने घर-परिवार और बच्चों पर कितना ध्यान दें पाते हैं ? मुझे तो ब्लागरी भी किसी ड्यूटी से कम नही लगती।
प्रश्न कठिन हैं। मेरे पास उत्तर नहीं हैं। केवल अनुभव।
तीस साल पहले हमारी भी यही स्थिति थी।
हम भी दुविधा में पढ़ गए थे।
पत्नि स्कूल में पढ़ाती थी।
जब बेटी का जन्म हुआ, दोनों ने निश्चय किया कि पत्नि नौकरी छोड़ देगी और यही हुआ। चार साल पत्नि ने बेटी की घर बैठे देख-भाल की।
महँगाई बढ़ने लगी। मेरा वेतन हमारे लिए पर्याप्त नहीं था। किराये की मकान में रहते थे लेकिन हम चाहते थे कि हमारा अपना धर हो। उसके लिए पैसे जुटाने थे। पत्नि स्नातक थी। घर बैठे बोर हो रही थी। बेटी भी स्कूल जाने लगी थी। घर में तनाव बढ़ने लगा। क्या करता मैं? अचानक पत्नि को बैंक में नौकरी मिल गई। सारा दिन हम दोनों घर से बाहर रहते थे। चार साल की बेटी दोपहर को नर्सरी स्कूल से घर आ जाती थी। एक नौकरानी का प्रबन्ध किया कुछ दिनों के लिए लेकिन हम उससे संतुष्ट नहीं थे। हम दोनों को लगने लगा कि हम बेटी के साथ इन्साफ़ नहीं कर रहे हैं। लेकिन बडी कठिनाई से मिली हुई बैंक में नौकरी भी नहीं छोड़ सकते थे।
अंत में मेरी पत्नि ने अपनी दादी को बुलवा लिया। दादी हमारे साथ ही रहने लगी। बेटी भी खुश, दादी भी खुश और हम भी खुश।
नौ साल बाद जब बेटे का जन्म हुआ तो कोई समस्या नहीं थी।
दादी चल बसी थी लेकिन ससुरजी और सास रिटायर होकर हमारे साथ ही रहने लगे थे। बेटा तो घर का राजकुमार बनकर बचपन बिताया था।
इतने सारे लोग थे उसका खयाल करने के लिए!
अब दूसरा “इन्निग” शुरू होने वाला है! बेटी अब शादी -शुदा है और विदेश में बस गई है। कहती है कि जब मेरा बच्चा होगा तब तुम दोनों को आकर हमारे साथ रहना ही होगा। आखिर जब मैं बच्ची थी तो तुम लोगों ने भी ऐसा ही किया था मेरे साथ!
अनूप चाचा ने तो सबसे कमज़ोर बिन्दु पर ही पाँव रख दिया 🙂
पर मैं एक बात कहना चाहूंगा उनसे कि कमी तो हर कहीं होती ही है, पर अच्छाइयाँ चुन लेनी चाहिए. शास्त्री जी आप भी इस बात का ध्यान रखें कि जब आप इतना संवेदनशील विषय छू रहे हैं तो कई बार आप को पढ़ कर लेख छापना चाहिए. आप की बात से मैं सहमत हूँ क्योंकि आप का उन पंक्तियों के पीछे का गूढ़ मंतव्य मैं समझता हूँ पर यदि पहली बार आता तो अनूप चाचा जैसी ही बात करता. ( मेरे कहने का यह आशय बिल्कुल नहीं है कि वह पहली बार ‘सारथी’ पर आए हैं, मेरा संकेत आज ही आए नए व्यक्तियों से है, चाहे उन्होंने टिपण्णी की हो या नहीं. )
इन सवालों का उत्तर देना सबके बस की बात नहीं. आप का मार्ग-दर्शन अपेक्षित है.
पिछली बार जब बलात्कार का मुद्दा उठा था तो हर बलात्कारी को एक ही चश्मे से देखने की गलती की गई थी और इस बार भी घर के बाहर काम करने वाली हर नारी को एक ही चश्मे से देखने की भूल की जा रही है.
जहाँ तक मैं समझ रहा हूँ शास्त्री जी का इशारा उन महिलाओं की ओर है जो कि बड़े घरों की हैं, जहाँ पति ३०-४० हज़ार कमा रहा है और पत्नी जी भी १५-४० हज़ार कमा रही हैं. वहाँ क्या ज़रूरत है कि एक मासूम से उसका वात्सल्य पर अधिकार छीन लिया जाय ?
जबकि दिनेश राय द्विवेदी जी ने संभवतः उन महिलाओं की ओर इशारा किया है जो कि निम्न वर्गीय हैं जहाँ दोनों का कार्य करना ज़रूरी हो ही जाता है. अन्यथा वह ये नहीं कहते कि (यदि वह नौकरी कर रही है तो समझिए यह उस की मजबूरी है.) आप आगे लिखे जाने वाले लिखों में कैटेगरी बना दीजियेगा, तभी सब संतुष्ट हो पाएंगे नहीं तो बवेला तो मचना तय जानिए. 🙂
ऊपर लिखों को लेखों पढिये और केटेगरी से तात्पर्य बड़े घर की स्त्री-छोटे घर की स्त्री. विभिन्न आय वर्ग. स्त्री-पुरूष का अनुपात आदि 🙂
यह तो वैश्विक सच्चाई है कि हर वह महिला जो घर की देख-भाल को महत्व देती है, शुरू से लेकर आज तक ख़ुद को ठगी गई सी महसूस करती है. (((मैं ये कहना चाहता हूँ कि यदि वह पूरे विश्व को देख कर सोचती तो वह पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण नहीं करती, पर नहीं कहूँगा, क्योंकि डरता हूँ इन हिंसक नारीवादियों से.))) उस ठगी गई सी महसूसने वाली महिला के लिए एक ही सलाह है कि बहन! संघर्ष अपने परिवार में बराबरी को बनाए रखने और आत्मसम्मान पाने के लिए करो. (भय बिनु होत न प्रीती),
न कि पुरूष से आर्थिक होड़ करने में. घर में महिला का हुक्म चलना चाहिए और बाहर पुरूष का वर्चस्व होना चाहिए.
पर ऐसा हो नहीं पा रहा है जो अनेक प्रकार की पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रहा है.
मुझे नहीं लगता कि सवा अरब की आबादी पर आप के द्वारा लिखा लेख कारगर होगा, क्योंकि हर एक की अपनी सोच होती है, कभी-कभी तो व्यक्ति अपनी ही सोच को काट रहा होता है. साथ ही हर घर और परिवार की स्थिति भी एक-दूसरे से अलग होती है 🙂
पर उम्मीद है कि आप का लेख गीता की भांति सदैव ध्यान में रखने योग्य होगा. शुभकामनाएं 🙂
ऊपर रचना त्रिपाठी जी ने एक सवाल दागा है – “महिला और पुरुष ब्लागरों से मेरा एक सवाल है कि आप सब इन सारे सवालों जवाबों के बीच फँसे रहकर अपने घर-परिवार और बच्चों पर कितना ध्यान दें पाते हैं ? मुझे तो ब्लागरी भी किसी ड्यूटी से कम नही लगती.”
मेरे लिए तो चिट्ठाकारी ही जीवन है, पर यदि कार्य-कुशल होने की बात करनी हो तो मेरी माताजी से बेहतर शायद इस दुनिया में कोई नहीं होगा. सुबह ६:०० बजे उठ जाती हैं. { फ़िर क्या करती हैं, मुझे नहीं पता मैं तो सोया रहता हूँ 🙂 } १०:०० बजे पापा के ऑफिस जाने के बाद ऑनलाइन ट्रेडिंग शुरू करती हैं और शाम ४:०० बजे तक मुझे लैपटॉप नहीं मिलता. 🙁
अक्सर ऐसा होता है जैसे आज अभी कि वह घर में नहीं हैं ऑफिस गयीं हैं. वह एक L.I.C. एजेंट भी हैं. और केवल कामचलाऊ नहीं बल्कि सफल लोगों की सूची में लिस्टेड.
अब वे घर भी देखती हैं,
अपनी आर्थिक आज़ादी भी बनाए हैं,
कई बार तो मैंने उनकी आय को विधान-सभा में बैठे अपने पापा की आय से ४ गुना ही पाया है. मेरे परिवार के हर सदस्य को उनका बेटा, बेटी पति वगैरा होने में फक्र महसूस होता है. पर परिवार के हर सदस्य को अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभानी पड़ती है, जैसे मेरे कपड़े मैं ख़ुद वाशिंग मशीन में धोऊंगा, वह नहीं धोएंगी. अपना खाना मुझे ख़ुद ही निकालना पड़ता है, उनके निकालने भर का समय नहीं है. सारे बच्चों को अपनी पढ़ाई ख़ुद ही देखनी है. अपने बटन ख़ुद ही लगाने हैं.
एक-आध बार शाम की चाय पर वह थोड़ा सा देर से पहुँचती हैं तो हम लोग फोन मिलाने लग जाते हैं कहाँ हैं भई, डैडा (पिताजी) ऑफिस से आ गए हैं. जवाब मिलता है, अरे दरवाज़े पे हैं खोलो तो 🙂
पापा ने शुरू में मम्मी के बाहर काम न करने को कहा था, पर मम्मी ने कहा कि घर में खाली रहती हूँ, क्या करुँ ! अंत में मस्का लगा लगा के मम्मी जीत गयीं.
पापा के मुंह से अक्सर सुना है, सिक्षा-मंत्रिया, अईसे कहलस ह. (इस मंत्री ने ये कहा, उसने वो कहा)
पर मम्मी को कोई कुछ कह ही नहीं सकता, क्योंकि मम्मी ख़ुद की बॉस हैं.
ऊपर के बकबकाने का संक्षिप्त –
1. मेरी मम्मी ने अपनी आर्थिक आज़ादी नहीं छोड़ी, जिस पर गर्व है.
2. पर परिवार और उसकी ज़रूरतें सबसे पहले बाहरी काम और आर्थिक आज़ादी बाद में.
3. मेरी मम्मी का काम है बीमा करना, यह एक फील्ड-वर्क है, यानी 9-5 की गुलामी से आज़ादी, जब चाहें बीमा करने जाएँ या न जाएँ किसी बॉस की डांट खाने का डर नहीं.
4. घर बैठे ऑनलाइन ट्रेडिंग का मतलब भी यही है, मेरा मन हम करें या नहीं, किसी को इससे क्या फर्क पड़ता है.
आप अपना परिवार देखें, फ़िर आर्थिक आज़ादी.
मम्मी ने ये सब गतिविधियाँ तब शुरू कीं, जब हम तीन भाई-बहन बहुत छोटे ही थे, पर कभी भी याद नहीं पड़ता कि मम्मी के गले लगने का मन किया हो और वो हमारे पास न हों. और मेरे लिए मेरे माँ की करीबी से ज्यादा ज़रूरी चीज़ और कोई नहीं. अतः मेरा मानना है कि एक बच्चे को माँ ही चाहिए, जो उससे किसी भी हालत में नहीं छीनी जानी चाहिए. अब महिलाओं आप को जो सोचना है सोचें, आप तो स्वतन्त्र हैं. 🙂
मेरी माँ का आँचल और उनकी गोद दुनिया की हर एक चीज़ से भी बढ़कर है. मुझे गर्व है कि मेरी मम्मी ने मुझे एक नौकरानी की गोद या क्रीच (पालनाघर) में छोड़ जाने की बजाय ख़ुद पढाया लिखाया.
चम्पक,नंदन, लोटपोट, चंदामामा की कहानियां सुनाईं, कृष्ण, अर्जुन, लव-कुश, ध्रुव, प्रह्लाद, भगत सिंह की कहानियां भी सुनाईं, जो कि एक नौकरानी कभी भी नहीं कर सकती.
मेरे पड़ोस में वर्मा जी के 7th स्टैण्डर्ड (अंग्रेज़ी माध्यम) बच्चे का प्रश्न-पत्र देख मैंने पूछा कि रावण की माता का क्या नाम लिखा है ?
जवाब था : कौशल्या.
अगला था : कुंती कौन ?
जवाब : अरे dd metro पर आता था दोपहर में.
अब समझ लीजिये कि एक बच्चे के लिए माँ की क्या अहमियत है.
“जननी जन्म-भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.” मैं ऐसा कहता हूँ, पर कोई दूसरा ऐसा तभी कहेगा जब उसने ऐसा कहीं पढ़ा-सुना होगा या महसूस किया होगा. और ये पढाने, सुनाने या अनुभूत कराने का काम कौन करेगा !!
ख़ुद माँ ही.
वे नारियां कलंक हैं नारी के नाम पर जिन्होंने एक बच्चे से उसका वात्सल्य पर अधिकार छीना है. दूध पिलाने के बजाय अपनी फिगर और जॉब को महत्त्व देना सरासर ग़लत है.
अधिकार की बात करने चली हैं, ये अधुनातन नारियां. बच्चे का वात्सल्य-अधिकार, अधिकार नहीं है !!!!!!!!!
ओवर टू डा. अमर कुमार…
हाँ तो राजीव, तो मैं देख रहा हूँ कि यहाँ पर कई मत हो गये हैं, और सभी अपनी अपनी बालिंग की तारीफ़ कर रहे हैं । पर.. राजीव क्या तुमको नहीं लगता कि आज शास्त्री की लाइन और लेंग्थ कुछ कमज़ोर है… बल्कि शुरुआत से ही कमज़ोर चल रही है…
शायद उन्होंने समय से पहले ही बालिंग करने वाली टीम को निमंत्रण दे दिया । इस समय इस दौर की ज़रूरत है, कि अपने को मानसिक रूप से तैयार करने की …
अब आप कुछ कहेंगे राजीव या दर्शक दीर्घा से भी राय ले लेनी चाहिये ..
जैसा आप कहें..