भौतिकी का नियम है कि यदि किसी सिस्टम को बिना नियंत्रण के छोड दिया जाये तो क्रमश: वहां अराजकत्व की स्थिति आ जाती है. सामाजिक जीवन में भी हर जगह हम इस नियम को देख सकते हैं, एवं इसके हजारों तरह के परिणाम हर जगह दिखते हैं. इस सामाजिक अराजकत्व का एक फल है स्त्री को भोग्या के रूप में देखना, दिखाना एवं भोग्या के रूप में उसका पेशेवर (विभिन्न पेशों द्वारा) शोषण करना.
यह जगजाहिर एवं वैज्ञानिक आधार पर स्थापित तथ्य है कि जानवरों में सौन्दर्य नर को मिला है तो मानवों में यह स्त्री के हिस्से आया है. जानवरों में नर अपनी मादा को आकर्षित करने की कोशिश करता है लेकिन मानवों में पुरुष स्वत: स्त्रीजन की ओर अकर्षित होता है. विवाह, दांपत्य, प्रजनन, परिवार आदि की सहज स्थापना में यह आकर्षण एक महत्वपूर्ण भाग अदा करता है. लेकिन इस आकर्षण को खुली छूट दी जाये तो यह समाज को यौनिक अराजकत्व की ओर ले जाता है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज वर्जनाहीन पाश्चात्य समाजों में देखा जा सकता है.
स्त्री को सही नजरिये से देखने की जरूरत एवं सही नजरिया न हो तो उसके विध्वंसक फल को अच्छी तरह समझ कर अधिकतर सभ्य समाजों ने इसके लिये तमाम तरह के आचारविचार एवं वर्जनाओं का निर्माण किया था. इन वर्जनाओं में से कुछ काफी मुख्य हैं:
1. व्यापारिक (या शोषण के) लक्ष्य के साथ स्त्री नग्नता के प्रदर्शन की मनाही
2. स्त्रियों को हर जगह पुरुषों की तुलना में अधिक सुरक्षा
3. ऐसे पेशों में स्त्रीजनों के जाने की मनाही जहां स्त्री का यौनिक शोषण होता है या होने की संभावना है
मानव समाज की यह रीत है कि आदिम समाज पहले तो परिष्कृत समाज बनता है, और फिर परिष्कृत समाज धीरे धीरे विकृतियों की ओर बढता है. यदि समय रहते उसे नियंत्रित न किया गया तो अराजकत्व व्याप्त हो जाता है. ये बातें समाज के तमाम सारे पहलुओं में से एक, अनेक, या सारे पहलुओं में व्याप्त हो सकती हैं.
हिन्दुस्तान मे शुरू से ही स्त्री को आराध्या मान गया है एवं भोग्या जैसी सोच कम थी. लेकिन बीसवी शताब्दी के उपभोक्तावादी संस्कृति ने इस सोच में आमूल परिवर्तन कर दिया है. इसके फलस्वरूप ऊपर दिये गये 3 बिन्दुओं में यौनिक शोषण से स्त्री को बचाने के लिये जो सामाजिक उपाय किये गये थे वे धीरे धीरे खंडित होते जा रहे हैं. विडम्बना की बात यह है कि कई बार इनको खंडित करने में स्त्रियां पुरुषों से आगे निकल जाती हैं.
उदाहरण के लिये, भारतीय समाज में सामान्य वर्जनाओं द्वारा व्यापारिक (या शोषण के) लक्ष्य के साथ स्त्री नग्नता के प्रदर्शन की मनाही थी. लेकिन अब विज्ञापनों के लिये स्त्री को जम कर अनावृत किया जा रहा है. यह व्यापारिक उद्देश्य के लिये स्त्री-शोषण है एवं इसके द्वारा भारतीय सामाजिक सोच में स्त्री को आराध्या के बदले भोग्या के रूप में आगे बढाया जा रहा है. कई स्त्रियां भी स्त्री को इस अनावृत करके उसको भोग्या के रूप में प्रदर्शित करने के पक्ष में हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम इसके विध्वंसक पहलू को समझें एवं इसका विरोध करें.
इतिहास इसका साक्षी है कि जिन जिन समाजों ने स्त्री एक यौनिक आकर्षण को व्यापार की वस्तु बनाया, वे समाज क्रमश: बर्बाद हो गये. प्राचीन रोम इसका सबसे बडा उदाहरण है. विकसित पाश्चात्य राज्यों में जिस तरह परिवार टूट रहे हैं, स्त्री का सामाजिक सम्मान जिस तरह से खतम होता जा रहा है, वह इस बात की सूचना है कि यदि हम व्यापारिक लक्ष्यों के लिये स्त्री को अनावृत करके उसे भोग्या के रूप में प्रदर्शित करना बंद नहीं करेंगे तो यहां भी बहुत जल्दी वही अराजकत्व आ जायगा. [क्रमश:]
यदि आपको टिप्पणी पट न दिखे तो आलेख के शीर्षक पर क्लिक करें, टिप्पणी-पट लेख के नीचे दिख जायगा!!
समाज की इस मत्वपूर्ण वर्तमान समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने का आभार. दुख की बात यह है की स्त्रियाँ स्वयं इस ओर अग्रसर हो रही है.
भारतीय सामाजिक परिवेश के लिये बहुत ज़रुरी बात कही आपने।
पा.ना.सुब्रमणियन जी ने वह कटु सत्य कह दिया है जो वास्तव में बहुत ही दुखद है और साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण भी.
स्त्री अपने अधिकार के लिए लड़े वह तो सही है पर वह परिवारवाद के विरुद्ध जा रही है और अपने-आपको गर्वीली २१ वीं सदी की नारी समझ कर खुश होती रहती है.
शायद नारी के इस पतन पर मैं चुप रह जाता पर मैं भी इसी समाज में रहता हूँ, फ़िर मेरा क्या होगा !!
हिन्दुस्तान मे शुरू से ही स्त्री को आराध्या मान गया है
केवल ओर केवल उस स्त्री को जिसने बुराई का नाश किया . पूजा उसकी की जाती हैं जिसमे बल होता हैं .
wiki par durga
दुर्गा पार्वती का दूसरा नाम है। हिन्दुओं के शाक्त साम्प्रदाय में भगवती दुर्गा को ही दुनिया की पराशक्ति और सर्वोच्च देवता माना जाता है (शाक्त साम्प्रदाय ईश्वर को देवी के रूप में मानता है) । वेदों में तो दुर्गा का कोई ज़िक्र नहीं है, मगर उपनिषद में देवी “उमा हैमवती” (उमा, हिमालय की पुत्री) का वर्णन है । पुराण में दुर्गा को आदिशक्ति माना गया है । दुर्गा असल में शिव की पत्नी पार्वती का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था — इस तरह दुर्गा युद्ध की देवी हैं । देवी दुर्गा के स्वयं कई रूप हैं । मुख्य रूप उनका “गौरी” है, अर्थात शान्तमय, सुन्दर और गोरा रूप । उनका सबसे भयानक रूप काली है, अर्थात काला रूप । विभिन्न रूपों में दुर्गा भारत और नेपाल के कई मन्दिरों और तीर्थस्थानों में पूजी जाती हैं । कुछ दुर्गा मन्दिरों में पशुबलि भी चढ़ती है । भगवती दुर्गा की सवारी शेर है ।
स्त्री को सही नजरिये से देखने की जरूरत एवं सही नजरिया न हो तो उसके विध्वंसक फल को अच्छी तरह समझ कर अधिकतर सभ्य समाजों ने इसके लिये तमाम तरह के आचारविचार एवं वर्जनाओं का निर्माण किया था. इन वर्जनाओं में से कुछ काफी मुख्य हैं:
1. व्यापारिक (या शोषण के) लक्ष्य के साथ स्त्री नग्नता के प्रदर्शन की मनाही
2. स्त्रियों को हर जगह पुरुषों की तुलना में अधिक सुरक्षा
3. ऐसे पेशों में स्त्रीजनों के जाने की मनाही जहां स्त्री का यौनिक शोषण होता है या होने की संभावना है
समाज के एक सभ्य प्राणी के लिये इतनी वर्जनाए ताकि वो उस असभ्य प्राणी से बचा रहे जिसको समाज “पुरूष ” कहता हैं .
स्त्री-शोषण है एवं इसके द्वारा भारतीय सामाजिक सोच में स्त्री को आराध्या के बदले भोग्या के रूप में आगे बढाया जा रहा है. कई स्त्रियां भी स्त्री को इस अनावृत करके उसको भोग्या के रूप में प्रदर्शित करने के पक्ष में हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम इसके विध्वंसक पहलू को समझें एवं इसका विरोध करें.
विरोध का सबसे आसन तरीका हैं की अपनी कमजोरी पर विजय पाये . अपनी इन्द्रियों पर कंट्रोल बढाए ओर सभ्यता का नाटक बंद करके समाज मे बराबरी की बात करे .
स्त्री को बार बार स्त्री के अनावरण के लिये दोषी मान कर पतित तो हर सदी मे सब कहते आ रहे हैं , कुछ नए टैग खोजे
[क्रमश:] अगली पोस्ट पर फिर कमेन्ट करुगी
काफी विषय चर्चा में तो अच्छे लगते है. “विरोध” बहुत लोग कहते है करना चाहिए. सवाल यह है कैसे. हमारे देश में विरोध का कोई मापदंड नही है. आज देश की सबसे बड़ी समस्या हा ‘आतंकवाद’. कौन विरोध करता है. सब देंगे हाकते है. आज विचार बीके हुए है. हमारी मानसिकता पर कोई और हाबी है. आज समाज किसी के लिखने का वोध कर सकता है उसे देश निकला दे सकता है पर स्त्री के अत्याचार या आतंक वाद को वह बहुत छोटा समझता है.
इस लिए आप सभी बुधजिवी जो यह कार्य कर रहे है अपनी लेखनी से वह समाज की द्रस्टी से बहुत ही ……………………. कार्य है पर यह विश्लेषण कितना सार्थक है और कारगर रहेगा आगे यह देखने वाली बात है.
जिन जिन समाजों ने स्त्री एक यौनिक आकर्षण को व्यापार की वस्तु बनाया, वे समाज क्रमश: बर्बाद हो गये.
—
आप सही कहते हैं।
रचना जी ने कहा : “स्त्री को बार बार स्त्री के अनावरण के लिये दोषी मान कर पतित तो हर सदी मे सब कहते आ रहे हैं. ” बिल्कुल सही सोच !!
२१ वीं सदी की नारियाँ जो नियंत्रणहीन हैं और वे ख़ुद को अनावृत्त करने के लिए स्वतन्त्र हैं, स्वच्छंद हैं, बल्कि उनके लिए यह मौज-मजे की बात है.
सच बात है किसी एक को तो ख़ुद पर रोक लगानी ही होगी.
उन्हें दोषी नहीं माना जाय, अनावृत्त ( निर्वस्त्र ) होने दें.
हम अपनी आखें फोड़ लें या उन्हें अनदेखा कर दें. नहीं तो हम पतित कहे जायेंगे. हर सदी में उनके साथ ऐसा होता आया है.
अब नहीं होना चाहिए अब हमें अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण पाना सीख लेना चाहिए.
मैं आपकी इस बात से सहमत हुआ, बल्कि हमेशा से ही था कि ख़ुद को अनावृत्त कर देने वाली औरतों को देखना ही नहीं चाहिए. उनकी हमेशा ही उपेक्षा करता आया हूँ और ऎसी अधनंगी औरतें सम्मान के काबिल हो ही नहीं सकती. तो क्यों हम उनकी ओर देखकर आत्म-नियंत्रण खोएं. हमें ख़ुद पर नियंत्रण रखना आना चाहिए. हम क्यों उनके ख़ुद के अनावरण का सहारा लेकर अपना अनियंत्रण छुपाने की कोशिश करते हैं.
शास्त्री जी आप एक ग़लत बात को बढ़ावा दे रहे हैं.
यह वाक्य देखिये ( समाज के एक सभ्य प्राणी के लिये इतनी वर्जनाए ताकि वो उस असभ्य प्राणी से बचा रहे जिसको समाज “पुरूष ” कहता हैं . ) रचना जी का यह वाक्य बताता है कि उनके हिसाब से “पुरूष” का पर्यायवाची शब्द “असभ्य प्राणी” होता है. क्या यह सही है !!
अगर ग़लत है तो डिलीट क्यों नहीं की, या मैं समझूं कि आप भी उनसे सहमत हो गए. !!
2. स्त्रियों को हर जगह पुरुषों की तुलना में अधिक सुरक्षा
ये हैं वर्जना नम्बर 2 जो शास्त्री जी कह रहे हैं ,
अब सुरक्षा की बात वो कर रहे हैं !!!
स्त्री को पुरूष से बचाओ क्यूँ पुरूष जानवर हैं !!
क्या जो खा जाएगा शास्त्री जी ई-गुरु राजीव जी को बताये
गंभीर सोच के साथ आपने कुछ अहम सवाल उठाए हैं। आभार।
शास्त्रीजी प्रेंमचंदजी ने कहा है सरस्वती और लक्ष्मी में आपस में बैर है.उल्लू लक्ष्मीजी का वाहन है.प्रतीक की सार्थकता ग़जब की है.ठीक इसी तरह रूप और बुद्धि का बैर है खासकर स्त्रियों के संबन्ध में.जहां रूप होगा वहां अहंकार,क्रोध,मूर्खता अवश्य देखी जा सकती है तभी सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में स्त्रियां भाग लेती है.
और खीसें निपोरती हैं.
ब्रेन बिथ ब्यूटी के नाम पर महाकुंभ होते हैं दूर दूर से पतितजन आकर स्नान कर धन्य हो जाते है.
सौन्दर्य जिस्मानी नहीं रूहानी होता है शास्त्रीजी अपनी मंदमती तो यही कहती है.पर इन नादानों को कौन समझायें जो मात्र तस्वीर देख कर ही टीप देते हैं बहुत अच्छा लिखती हैं आप.
कही पे तीर कही पे निशाना.
हम जरा कभी आइना दिखायें तो पूरा गिरोह टूट पड़ता है प्रभू.
आप भी कुछ कम लीला नहीं करते विषय को छेड़कर हमारी दर्गति करा दूर से तमाशा देखते हैं भगवन और मन ही मन मंद मंद मुस्कराते हैं.
बकौले ग़ालिब
अपनी किस्मत में ग़म गर इतने थे,
दिल भी या रब कई दिये होते.
और रही पुरषों की तुलना में स्त्रियों के सौन्दर्य की बात तो ये भ्रम है भगवन उर्दू के मश्हूर शायर इकबाल साहब ने कितना साफ कहा है-
फिदा करता रहा दिन को हसीनों की अदाओं पर,
कभी देखी न आइनें में खुद की अदा तूने.
हम तो दूर से ही जान जाते हैं –
वे अब शोभत हैं कछु ऐसे
विष रस भरे कनक घट जैसे.
ज्ञानदत्त पाण्डेय की बात से सहमत हूँ ! मगर रचना जी से प्रार्थना है कि ईगुरु राजीव की बात का जवाब विस्तार में दें जिससे लोग आपके अर्थ को समझ सकें !
व्यापारिक लक्ष्यों के लिए स्त्री-देह का प्रयोग एक चिंतनीय विषय है इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। आप ने आरंभ कर ही दिया है। इस के लिए साधुवाद।
यह आप के आलेख का पहला भाग है। इस लिए अधिक कुछ कहना उचित नहीं होगा। लेकिन इतना जरूर कि आप ने जिन धारणाओं को स्थापित मान कर चले हैं उन में से अधिकांश गलत हैं। जैसे एक…भौतिकी का नियम है कि यदि किसी सिस्टम को बिना नियंत्रण के छोड दिया जाये तो क्रमश: वहां अराजकत्व की स्थिति आ जाती है।
इस तरह की धारणाओं को प्रमाण सहित साबित करते हुए प्रयोग करना चाहिए।
जहाँ तक पुरुषों को असभ्य कहने का प्रश्न है तो यह ध्वनि तो आप के आलेख से ही सृजित हुई है।
4 exclamation mark e guru ji nae laagaye haen 4 hee maene lagaa diyae , unhoney smily bhi lagaayaa haen , mujhe har baat mae smile karna yaad nahin rehtaa satish jii
baki satish ji e guru ji shashtri ji sae mukhatib haen ham nae bhi apni pati unko hii kament mae dee haen , wo khus e guru ji tak pahuchaa dae gae vasae aap bloging mae abhi 4 mahinae sae hee haen so yahaan kae logo ko naa samjh keh rahey haen “yae achchi baat nahin haen ”
dinesh ji kae “saadhu vaad ” nae sameer ji kii yaad dilaa dee
आदरणीय शास्त्री जी से सहमत…।
हम सभी पुरुषों या सभी नारियों को एक ही ‘विशेषण’ से व्याख्यायित नहीं कर सकते। सभी पुरुष असभ्य नहीं होते और सभी नारियाँ अनावृत होकर नहीं रहतीं। सभ्यता और मर्यादा, पहनावा और श्रृंगार हमारे समाज में कई स्तरों का दिखता है। उन्हें धारण करने वालों की सोच भी उसी के अनुरूप होती है। यहाँ सभी पुरुषों या सभी नारियों के पक्ष की वकालत सिर्फ़ लिंग के आधार पर करने की प्रवृति किसी समस्या के सार्थक विश्लेषण को रास्ते से भटका देगी।
यहाँ व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द के हिसाब से परस्पर आक्षेप लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
पूंजीवाद हर चीज़ को माल(कमोडिटी) में परिवर्तित कर देता है। आज के विज्ञापनओं में शिशुओं की निर्दोष मुस्कान, बच्चों की चपलता, बुज़ुर्गों की ममता, उनकी धार्मिक आस्था, और भी अनेक पवित्रतम वस्तुओं को माल बना कर बेचा जा रहा है तो फिर स्त्री या उसका शरीर ही अपवाद कैसे हो सकते हैं। एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है आप ने। इसे आगे बढ़ा कर जनांदोलन का रूप देने से ही कुछ बात बनेगी।
जब लोगों की चर्चित होने की इच्छा लत बन जाए तो वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। जिन लोगों को स्त्री को अनावृत्त( क्या स्त्री भला इतनी मूर्ख है कि वह नंगी होकर घूमेगी) देख कर हाजत लग जाती है, वे अपनी नन्हीं बेटियों तक को देख कर जाने कितनी बार क्या से क्या कर् गुजर चुके होंगे, भगवान् जाने! या वे बेचारी बेटियाँ। वैसे समाचारपत्रों में भी नित अब तो पिता द्वारा बेटी से मुँह काले करने के कारनामे चमचमाते हैं,(और युगों से ही) ८५प्रतिशत बलात्कारी घर के ही होते आए हैं। इन्हें अपनी काली करतूतों पर गर्व है औअर अपनी औलादों को भी ये ऐसे ही तथाकथित मर्दवादी बनाने में लगे हैं तो रचना को भला पेट में क्यों दर्द होता है? और दर्द का ईलाज भी ये ही मान्यवर बताएँगे। कुंठित मर्दवादी परिवारों में पले बढ़े लोग ऐसे ही होते हैं, रचना ऐसे लोगों के चटखारे लेने के लिए लिखे गए वक्तव्यों पर नजर डालना भी अपनी तौहीन है। सत्यकथा और मनोहर कहानियों को पढ़ने वालों की संख्या निस्सन्देह सरस्वती को पढ़ने वालों से १० गुना अधिक होती ही है। भीड़ जुटाने का मनोविज्ञान नट से बेहतर किसे आता है?
चालाक और धूर्त पुरुषों ने ही स्त्री को हवा और प्रकाश तक से वंचित करने के तर्क गढ़ लिए, अन्यथा स्त्री के समाज में चंडी बनकर आते ही इन सब जैसों की भैरव मंडली का अन्त न हो जाता?
पाश्चात्य देशों में किसी के पास इतनी फ़ुरसत तक नहीं है, न किसी को रुचि है, न वे ऐसी अनधिकार चेष्टा करते हैं कि स्तेरी के वस्त्र और परिधान के निर्णायक तक बनें।
अगर स्त्री को देखने मात्र से ये स्खलित हुए जाते हैं तो क्या खा कर गान्धी जी के चरण की चप्पल के नीचे थूक में लिपटे एक् रजकण तक पहुँचने की भी किसी की सामर्थ्य है भला? क्योंकि गांधी बाबा तो अपने चरित्र की परीक्षा के लिए पत्नी से इतर स्त्रियों के साथ नग्नावस्था में सोने का सफल प्रयोग करते रहे हैं। उनका तो चरित्र न भ्रष्ट हुआ.
इस लिए महानुभावो (?)! अपने चरित्र का इलाज करवाएँ। आने वाली पीढि़याँ दुआ देंगी। या कम से कम कोसेंगी तो नहीं।