मेरे लेख लुप्त होती सिक्का-संपदा ! से प्रोत्साहन लेकर श्री पी एन सुब्रमनियन जी ने अपने चिट्ठे पर प्राचीन मूर्तियों की तस्करी शीर्षक से एक महत्वपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया जिसे देशप्रेमी पाठक जरूर पढें. सवाल यह है कि क्यों देश की प्राचीन संपदा को लोग बेचते हैं.
चित्र: चंबल क्षेत्र में एतिहासिक महत्व के स्थानों के छायाचित्र खीचते समय हमें एक सती-मंदिर का पता चला जो हजारों साल पहले उस गांव में था लेकिन जो लुप्त हो चुका है. एक पहाडिया में दबे उस मंदिर के संभावित स्थान को हमने खोज निकाला एवं इस चित्र में उसकी ईटों पर हाथ रख कर मैं खडा हूआ हूँ (फरवरी 2008)
प्राचीन वस्तुओं के प्रति लोगों की रुचि सबसे पहले जागृत हुई थी प्राचीन मिस्र में जहां धनी लोगों को दफनाते समय उनके साथ सोनेचांदी, हीरेमोती, एवं अनगिनित बहुमूल्य चीजें दफना दी जाती थीं. शहर से बाहर बने इन अतिविशालकाय इन कबरों में (जो अकसर एक बहुमंजिली मकान के बराबर होते थे) सेंध लगाने पर उस समय के चोरों को काफी कीमती चीजें हाथ लग जाती थीं जिसे वे चोरबाजार में बेच देते थे.
शुरू में तो सिर्फ सोनेचांदी की कीमत मिलती थी, लेकिन पहली शताब्दी के आसपास लोग इनको इनकी एतिहासिक प्राचीनता के कारण भी खरीदने लगे. इसके साथ साथ न केवल इनकी कीमत बढ गई बल्कि कबरों से चोरी की गई वे चीजें भी बिकने लगीं जो सोनेचादी के बने नहीं थे. जब यूरोप के साम्राज्यवादियों ने सारी दुनियां में अपने उपनिवेश बनाये तो अपने विजय को प्रदर्शित करने के लिये इन गुलाम राज्यों के सोनेचादी के साथ साथ उनकी प्राचीन धरोहर को लूट कर अपने घरों में प्रदर्शित करना एक फैशन सा बन गया. यूरोप की आर्थिक संपन्नता का फल यह हुआ कि फैशन के लिये लूट कर ले जाने वाली एतिहासिक चीजों की कीमतें बेहताशा बढने लगीं.
अमरीका संपन्न हुआ तो वहां पर भी यूरोप की देखादेखी एतिहासिक धरोहरों की मांग एवं कीमत बेहताशा बढ गई. चोरों, लुटेरों, एवं दलालों के लिये तो यह लाटरी खुल जाने के समान थी क्योंकि उन दिनों मिस्त्र, भारत सहित जिन देशों में अतिप्राचीन संपदा के भंडार हैं, उन देशों में अपनी प्राचीन संपदा के बारें में लोग एकदम निष्क्रिय थे. इनकी सुरक्षा के लिये न तो कोई नियम थे, न ही कोई कोशिश हो रही थी. फल यह हुआ कि सन 1600 से 1900 के बीच इन देशों की प्राचीन धरोहर जम कर बिकी. 1900 के बाद कई देशों ने अपनी एतिहासिक संपदा की सुरक्षा के लिये कडे नियम बना लिये, लेकिन तब तक खरीददारों एवं विक्रेताओं के मूँह खून लग चुका था.
धनी विदेशी खरीददारों के लिये इन वस्तुओं की कीमत कोई बडी बात नहीं थी. चोरों एवं विक्रेताओं के लिये यह "आसान" धंधा था क्योंकि कोई रोकने वाला न था. अब नियम कडे हो गये हैं, लेकिन इनको प्रभावी तरीके से लागू करने के लिये पुरावस्तु विभाग के पास न तो पर्याप्त धन है, न कर्मचारी. इतना ही नहीं, जनता के बीच अपनी मातृभूमि की एतिहासिक संपदा के बारे में जागृति न के बराबर है.
इसका एक फल मुझे दुर्लभ भारतीय सिक्कों को एकत्रित करते समय दिखा जिसके बारे में मैं ने लुप्त होती सिक्का-संपदा ! में लिखा था:
- इसका फल यह है कि कई दुर्लभ हिन्दुस्तानी सिक्के आज सिर्फ विदेशी सिक्का-विक्रेताओं के पास हैं. उदाहरण के लिये “कांगडा” राज्य के सिक्के फिलहाल किसी भी भारतीय सिक्का-विक्रेता के पास नहीं है जबकि एक विदेशी सिक्का-विक्रेता के पास सैकडों कांगडा सिक्के बिक्री के लिये पहुंच चुके हैं.
जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी, तब तक हमारी एतिहासिक संपदा लुटती रहेगी.
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जनता के बीच अपनी मातृभूमि की एतिहासिक संपदा के बारे में जागृति को बढाना आवश्यक है।
मेरे कस्बे में एक नदी बहती थी, उद्गम भी पास ही था। पास में ही एक प्राचीन मठ था। लावारिस हो चुका था। धीरे धीरे शहर के लफंगों में अफवाह फैली कि मठ में धन गड़ा है। रातों में जा जा कर मठ को पूरा खोद डाला। वहाँ धन मिला या नहीं? नहीं पता। पर मठ नष्ट हो गया।
एक सजगता की आवश्यक्ता है इस दिशा में.
सचमुच ऐतिहासिक धरोहरों के अनुरक्षण के लिए कोई पुख्ता व्यवस्था नही है
शास्त्री जी खेद की बात है …सबसे पहले लुप्त हुई ईमानदारी …चरित्र, चाल, नीयत, कार्य और स्वभाव से इसीलिए अन्य कई तरह से कीमती, दुर्लभ चीजें भी विलुप्त हो रही हैं. सबसे पहले तो इसको ढूंढा जाए.
बात को आगे बढाकर अपने उपकर किया है. आभार.
Thank you very much for care our historical places and things. Please visit at my Village SANKISA it is a Buddhist place You can see Ashoka,s Elephant Piller on this palce.