कुछ हफ्ते पहले दिनों सारथी पर आई एक टिप्पणी के स्रोत को जांचते हुए पहले डॉ रूपेश के चिट्ठे आयुषवेद एवं वहां से फिर अर्धसत्य नामक चिट्ठे पर जाना हुआ. इन में अर्धसत्य उन लैंगिक विकलांगों का चिट्ठा है जिनको सामान्यतया हिजडा कहा जाता है. चूंकि ये भी ईश्वर की सृष्टि हैं अत: हिजडा शब्द के बदले मैं इस आलेख में "लैंगिक विकलांग" नामकरण का प्रयोग ही अधिकतर करूंगा.
सारथी के नियमित पाठकों को याद होगा कि कुछ महीने पहले मेरे आलेख हे प्रभु: नर है या मादा !! पर प्रबुद्ध टिप्पणीकारों ने टिपियाया था कि जो लोग जन्म से मनौवैज्ञानिक तौर पर न तो पूरी तरह से पुरुष होते हैं न स्त्री उनकी छटपटाहट को समझना एवं उनके प्रति सांत्वना दिखाना हम सब का फर्ज है.
कम से कम पिछले 3000 साल के इतिहास में लैंगिक विकलांगों का वर्णन आया है, लेकिन इसके बावजूद इन पर न के बराबर अनुसंधान हुआ है. अत: जो कुछ इन लोगों के बारे में कहा जाता है वह किंवदंतियों एवं कानाफूसियों पर आधारित है. चूंकि अवयवों के आधार पर ये न स्पष्ट रूप से पुरुष है न स्त्री, इस कारण स्वाभाविकत: इनके बारे में जो किंवदंतियां एवं कानाफूसियां प्रचलित हैं उनमें से अधिकतर सिर्फ कपोल कल्पना है.
मेरेआपके समान ये भी मनुष्य हैं लेकिन अफसोस यह है कि सामान्य समाज में इज्जत के साथ जीने, पढाई करने, नौकरी करने आदि की सुविधा नहीं है. किसी जमाने में पारसी राजाओं के दरबार में जो "खोजे" आदर के पात्र थे, वे आज जीने के लिये संघर्ष कर रहे हैं.
आप टिपियायें या नहीं, लेकिन मेरा सुझाव है कि यदाकदा अर्धसत्य पर जाकर इनका रोदन जरूर सुनें.
पुनश्च: शास्त्री जी क्या आप मेरे इस लेख पर ध्यान देंगें, ये मेरा पहला लेख था और काफ़ी चर्चित भी हुआ था क्योंकि मैने शुरूआत ही हिजड़ों यानी मंगलामुखी के ऊपर लिखा था. विषय था "शबनम मौसी". (कमलेश मदान)
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आपका यह कहना बिल्कुल सही है कि हिजडों पर वैज्ञानिक अनुसंधान काफी कम हुए हैं -जबकि सामाजिक अनुसंधान तो हुए हैं .कई लेखकों ने इन्हे अपने प्रनुख पात्र बनाए हैं -खुशवंत सिंह की मेरी दिल्ली में ये मौजूद हैं -हिजडों को लेकर एक बात यह भी कही जाती है कि उनकी जमात में शामिल सभी हिजडे नही होते बल्कि एक व्यावसायिक कुचक्र के शिकार हो उस जमात में मजबूरी से आ /लाये जाते हैं -जब एक छोटे से अनुष्ठान से लोगों का धर्म निश्चित किया जा सकता है तो किसी को भी हिजडा कौन बहुत मुश्किल है -आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है !
वे मनुष्य हैं, जब तक हम लिंगाधारित भेद करते रहेंगे तब तक वृहन्नलाओं और स्त्रियों के प्रति न्याय संभव नहीं है।
एक गंभीर सामाजिक समस्या पर लेख केंद्रित कर विचार मंथन के द्वार खोल दिए हैं. इसके पहले कि हम बातचीत शुरू करें, ज़रूरी होगा कि “अर्धसत्य” के सभी लेखों का अध्ययन किया जावे.
शास्त्री जी क्या आप मेरे इस लेख पर ध्यान देंगें, ये मेरा पहला लेख था और काफ़ी चर्चित भी हुआ था क्योंकि मैने शुरूआत ही हिजड़ों यानी मंगलामुखी के ऊपर लिखा था. विषय था “शबनम मौसी”.
लेख का लिंक ये है http://sunobhai.blogspot.com/2007/05/blog-post.html
सही कहा आपने। अर्धसत्य नहीं, वह जीवन का एक ऐसा सत्य है, जो बडे से बडे पूर्णसत्य पर भी भारी है।
आदरणीय गुरूवर्यसम शास्त्री जी, इस विषय पर तात्कालिक प्रभाव में आकर मेरे बड़े भाईसाहब श्री अनिल रघुराज जी ने भी “अगले जनम मोहे हिजड़ा न कीजौ” नाम से पोस्ट लिखी थी। श्रेया नाम की मेरी ऐसी ही एक बच्ची ने कहा कि मैं चाहती हूं कि हमें सरकार से जीवन-यापन के लिये न्यूनतम गुजारा भत्ता,नौकरियों में O.B.C./S.C./S.T. से अधिक वरीयता दी जाए। साथ ही सरकार की ओर से मुफ़्त लिंग निर्धारण परीक्षण का अधिकार दिया जाए जो कि मेडिकल बेस्ड हो जिसमें एनाटामी से लेकर हारमोन्स तक का परीक्षण कराया जाए ताकि ये जाना जा सके कि कौन नैसर्गिक लैंगिक विकलांग है और कौन बना हुआ है ताकि हम बदनसीबों पर लगने वाले आपराधिक आरोपों से हमें मुक्ति मिले।
डॉ.रूपेश श्रीवास्तव जी के विचारों से पूर्णतः सहमत. इनकी सहायता किये जाने हेतु जागरूकता के साथ यह पहला कदम होना चाहिए…क्योंकि उनकी दुनिया का अँधेरा भी अलग तरह का है. उन्हें पारंपरिक रूप से मिलने वाले न्यौछावर के लिए इस मायावी दुनिया के साबूत आदमियों के द्वारा अपने क्या-क्या नहीं “न्यौछावर” कर दिए जाते हैं…!!
पुनःश्चा….
और जब दुनिया में कितने जानवरों के बेहतर जीवन के लिए प्रयासरत हैं, फ़िर ये तो हम मानवों की ही संतान हैं
रुपेश जी को पढ़ता रहता हूँ अर्धसत्य पर. आपका आलेख बहुत सार्थक है. आभार.
हम तो समझते थे कि कोई नैसर्गिक लैंगिक विकलांग होता ही नही। सोचा था ये सब नर हैं जिनके गुप्तांगों जबरन निकाले गये हैं। इनको मैं मर्द ही समझता आया हूँ।
इन लोगों की हरकतों से मैं हैरान होता हूँ। ये लोग इतना अभद्र व्य़वहार क्यों करते हैं?
बड़ा आश्चर्य हुआ ये पढ़ कर कि ब्लागिंग के धुरंधर यहां कह रहे हैं कि अर्धसत्य में डॉ.रूपेश श्रीवास्तव को पढ़ा है पर क्यों किसी ने एक प्रोत्साहित करने वाली टिप्पणी तक नहीं करी या ये भी कोई नीति है? यदि शंकाओं को लेकर मर्द और औरत आपस में ही खुसुर-फुसुर करेंगे तो भला क्या जान पाएंगे हमारे बारे में इस लिये साहस जुटा कर “अर्धसत्य” पर आयें तो उत्तर भी दूंगी भले एनानिमस कमेंट करें।
शुक्रिया !
मैं भी इस ब्लॉग को लिंकित कर रहा हूँ/
समाज में और अधिक जागरूकता की आवश्यकता है /
इस तरह के लोगों का पुनर्वास की जरूरत है /