पी एन सुब्रमनियन
हमारे मित्र या रिश्तेदार जब पहली बार भोपाल आते हैं, उनकी अपेक्षा रहती है कि हम उन्हें आस पास देखने योग्य स्थलों का भ्रमण करावें. यह स्वाभाविक भी है. हम भी उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी सेवाएँ देने में कोई आनाकानी नहीं करते क्योंकि हमें भी तो कभी कभार उनके यहाँ जाना होगा. हमारे पास सांची एक ऐसी जगह है जहाँ जाने की फरमाइश रहा करती है. भोपाल आकर सांची ना देखा, यह भी कोई बात हुई. ये बात और है कि सांची जा जाकर हम उकता से गये हैं.
ऐसे ही एक बार मेरे साले साहब का सपरिवार आना हुआ. वो तो मेरे लिए खास थे ही ना, आख़िर रिश्ता भी तो बड़ा संवेदनशील है. आते ही उन्होने पूछ ही लिया – ‘क्यों यहाँ आस पास देखने लायक कौन सी जगह है’ मैने तपाक से कहा ‘सांची’. मेरे इस सहज उत्तर से वे संतुष्ट नहीं दिखे. फिर धीरे से कहा ‘वो तो ठीक है लेकिन हमने सुना है कि उज्जैन, मांडू, ओंकारेश्वर, महेश्वर वग़ैरह भी देखने लायक हैं’ हमने जवाब दिया, हाँ हैं तो लेकिन करीब थोड़े ही हैं, एक दिन में तो सांची और विदिशा ही देख पाएँगे. ‘उसमे क्या है, चलते हैं ना, एक दो दिन कहीं रुकना ही तो पड़ेगा’. मैने बाहर पोर्च में खड़ी अपनी मारुति की ओर लाचारी से देखा. उन्होंने इसे भाँप लिया और कहा हम लोग एक बड़ी गाड़ी कर लेते हैं, ड्राइवर भी रहेगा. यह सुनकर मेरी जान में जान आई लेकिन फिर भी मुझसे रहा नहीं गया. हमने कहा भैय्या कम से कम 1500 कि.मी का चक्कर पड जाएगा. लेकिन उनके जवाब ने मेरा मन प्रसन्न कर दिया. उन्होंने कहा था ‘क्या फरक पड़ता है, हम तो एल.टी. सी. लेकर आए हैं’. मैं मन ही मन सोच रहा था, अरे यही बात पहले बता देते.
दूसरे ही दिन हम सब एक ‘सूमो’ में लद कर निकल पड़े, सांची की ओर. हमने सोचा पहले सांची को ही निपटा दिया जाए. चलते चलते हमारे दिमाग़ में कुछ हलचल हुई. बहुत पहले हमने सुना था कि सांची के आस पास ही कहीं और भी स्तूप मिले हैं. अब सांची से हमारी दूरी लगभग 12 कि.मी. रह गयी थी. सलामतपुर पहुँचने ही वाले थे कि हमें मुख्य सड़क की बाईं ओर एक कच्ची सड़क जाती दिखी. दिशा निर्देश पट्टिका पर लिखा था ‘सतधारा – बौद्ध स्मारक – दूरी 5 कि.मी.’ मैने सोचा यह तो वही जगह है. इस नयी जगह को देखने की हमारी उत्कंठा तीव्र हो चली थी. हमने गाड़ी रुकवादी और बगैर किसी से सलाह किए ड्राइवर से कह दिया, ‘गाड़ी बाईं तरफ मोड़ लो’. और हम चल पड़े. कुछ दूर चलने पर ही पता चल गया कि रास्ता बहुत ही खराब है. बड़े बड़े पत्थर बिछे थे. हमने ड्राइवर महोदय को ढाडस बँधाया, कहा कोई बात नहीं, धीरे धीरे चलना. आख़िरकार किराए की गाड़ी थी ना इसलिया हमें कोई चिंता भी नहीं थी. धक्का खाते खाते, चलते चलते एक घंटे के बाद कहीं हम लोग सतधारा पहुँच सके. हमारी मारुति होती तो उसका ‘राम नाम सत्य है’ निश्चित था. इस 5 कि.मी. के सफ़र में ही लोग थक कर चूर चूर हो चले थे. बड़े मुश्किल से हम लोग गाड़ी से नीचे उतरे और ऐंठ ऐंठ कर शरीर की जकड़न को दूर करने का प्रयास किया.
कुछ स्वाभाविक हो जाने के बाद इधर उधर नज़र दौड़ाई. हमने अपने को एक पठार पर पाया. चारों ओर जंगल की हरियाली छाई थी. बाईं तरफ काफ़ी गहराई में ‘बेस’ नदी बह रही थी. दृश्य इतना रमणीय था कि हम लोगों की थकान जाती रही. सामने से एक रास्ता जंगल की ओर ही जा रहा था और हम सब उसी राह पर चल पड़े. कुछ दूर जाने पर हमें वहाँ का सबसे बड़ा स्तूप दिखाई पड़ने लगा था. स्तूप पर नाना प्रकार की वनस्पति उग आई थी. सांची की तुलना में यहाँ का स्तूप ज़्यादा बड़ा लग रहा था. निकट जाने पर देखा कि स्तूप पर एक पत्थर का आवरण निर्मित किया जा रहा था. हमने अनुमान लगाया कि पुनर्निर्माण के पूर्व सांची के स्तूप भी ऐसे ही दिखते रहे होंगे. थोड़ी ही दूर एक दूसरा छोटा स्तूप भी देखने को मिला. चारों तरफ कई नक्काशी युक्त शिलाखंड जो स्तूप के ही भाग रहे होंगे, बिखरे पड़े थे. इसके बाद आगे ज़्यादा खोज बीन करने की रूचि किसी में नहीं दिखी और हम लोगों ने लौट पड़ना ही उचित समझा.
वापसी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आई) के आस्थाई कार्यालय में कार्यरत कुछ अधिकारियों से भेंट हो गयी. चर्चा के दौरान उन्होने बताया कि यहाँ बौद्ध हीनयान संप्रदाय के स्मारक तथा पुरा अवशेष 28 हेक्टेर में फैले हुए हैं. मुख्य स्तूप, जिसे हमने देखा, के अलावा 29 स्तूप और 2 विहार भी हैं. मुख्य स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक के काल (3 री सदी ईसा पूर्व) में बड़े ईंटों से बनाया गया था. 400 वर्ष पश्चात ऊपर पत्थरों से मढ़ा गया था जो अब नहीं रहा. खुदाई में मिट्टी के पात्रों के टुकड़े मिले हैं जिनको 500 – 200 वर्ष ईसा पूर्व का माना गया है. बौद्ध शैल चित्र भी मिले हैं जिन्हें चौथी से सातवीं सदी के बीच का समझा गया है.
हमारे इस चर्चा के पश्चात पुनः वापसी यात्रा प्रारंभ हो गयी. रास्ते में एक नहर को पार करते समय दाहिनी ओर एक भव्य लाल रंग की कोठी दिखी जो भोपाल के नवाबी दौर की है. इसे कचनारिया कोठी कहते हैं. कहा जाता है कि जॉर्ज पंचम को सन १९११/१२ में इस कोठी में ठैराया गया था. वे शिकार करने आए थे पर एक भी शेर नहीं मिला. इंग्लेंड के अख़बारों में छप ज़रूर गया था कि युवराज ने तीन शेरों को मार गिराया. कोठी बंद होने के कारण हम लोग अंदर जाकर देख नहीं पाए और सीधे सांची की ओर बढ़ गये.
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सर, पहली बार आपकी डायरी पढ़ रहा हूं.. इससे पहले लेख पढ़ता था.. अच्छी लग रही है.. 🙂 ये पहला वाला फोटो भी जबरदस्त है.. मेरे भीतर का ट्रेकर(Trekker) जाग रहा है.. आगे भी लिखिये..
अधिक जानने की इच्छा जागृत हो चुकी है , धन्यवाद आपकी खोजी प्रवृति को !!
बहुत अच्छा लेख, शुभकामनायें !
जब मै भोपाल में था.. तो एक दिन हम भी सांची गये.. स्कुटर पर.. बहुत मजा आया… सतधारा तो नहीं गये.. आपने वो भी दि्खा दिया… शुक्रिया.
अच्छा लगा लेख। धन्यवाद।
मैंने भारत के कई हिस्सों का भ्रमण किया है परन्तु भोपाल अभी तक जाना नही हो पाया. आपने काफी रोचक जानकारी दी है.. कभी वहां जाना हुआ तो इसे अवश्य याद रखूँगा.
सकुशल घर वापसी के लिए बधाइयाँ..
चलिए, आलेख के माध्यम से हम भी घूम लिए. बहुत बढ़िया आलेख है. आभार.
@ पी एन सुब्रमनियन
आगे की यात्रा की जानकारी मिलती रहेगी। सांची मेरा देखा हुआ है। आप की शेष यात्रा के अनुरूप अपनी आगामी यात्रा का कार्यक्रम बनाना पड़ेगा।
सरजी आपकी देखी हुई जगहों के बारे में कतई नहीं लिखेंगे. कुछ वॅल्यू एडीशन होना चाहिए ना. आभार.