चिट्ठाकारी का आरंभ अमरीका के अराजकत्ववादियों ने किया था. लेकिन जल्दी ही चिट्ठे एवं चिट्ठाकारी एक बहुमुखी कार्य बन गया एवं इसका उपयोग व्यक्तिगत से संस्थागत कार्यों तक के लिये होने लगा.
बहुमुखी का मतलब यह हुआ कि अलग अलग स्थानों एवं भाषाओं में चिट्ठाकारी विभिन्न रूपों में प्रयुक्त होने लगी. उदाहरण के लिये चीन और साऊदी अरेबिया में लोगों ने इसका उपयोग तानाशाही के विरुद्ध किया तो अन्य देशों में अन्य कार्यों के लिये यह प्रयुक्त हुआ.
हिन्दी में चिट्ठाकारी एक नई विधा है एवं चिट्ठाकारी का विकास लगभग एक विशाल-परिवार के समान हुआ है. इस परिवार में लगभग हर सक्रिय चिट्ठाकार एक दूसरे को जानता है, पहचानता है — भले ही वे आपस में संवाद करते हो या न करते हों. यह विशाल परिवार छ: सात खेमों में बंटा हुआ है जिसका मुख्य कारण आपसी झगडा नहीं बल्कि इन खेंमों में बंटे लोगों की अभिरुचि ने उनको बांटा है. अत: जब मैं "खेमों में बंटने" की बात करता हूँ तो उसे विश्लेषण के नजरिये से देखा जाये, न कि आपसी बैर के नजरिये से. असली बैर फिलहाल कहीं नहीं है. (प्रबुद्ध पाठक इस आलेख में निहित भावार्थ को समझने की कोशिश करे!)
पहला खेमा वामपंथियों का है जिन्होंने चिट्ठाजगत में बहुत पहले ही तंबू तानना शुरू कर दिया था. जब बहुत से तंबू हो गये तो उनका अपना समाज बन गया. इस समाज की विशेषता है कि वे आपस एक दूसरे को जम कर प्रोत्साहित करते हैं, टिपियाते हैं लेकिन इस गली के बाहर के लोगों के चिट्ठों एवं चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित नहीं करते हैं. बाहर के लोग जरूर इनकी ड्योडी पर जीभ लपलपाते हैं, इनकी कृपा हो जाये यह सोचकर इनके चिट्ठों पर टिपिया आते हैं, लेकिन ये लोग सामान्यतया इन बाहरी चिट्ठाकारों को नजरअंदाज कर देते हैं.
दूसरा खेमा क्रांतिकारियों का है जो जम कर हिन्दुस्तान मे एक परिवर्तन की बात करते हैं. ये लोग घोर देशभक्त हैं, लेकिन ये जिस तरह की उग्र भाषा का प्रयोग करते हैं उसके कारण सामान्य पाठकों को आकर्षित नहीं कर पाते. लेकिन इनके चिट्ठों को पढना हर देशभक्त के लिये काफी उपयोगी रहेगा — टिपियायें या नहीं यह आपके ऊपर है. इनकी उग्र लेखनी कुछ नरम हो जाये (बिना विषयवस्तु में कोई परिवर्तन किये) तो सैकडों पाठक इनके चिट्ठो पर टूट कर गिरने लगेंगे.
तीसरा खेमा विरोधीलालों का है. इन को हर बात से विरोध है. आप समाज की बात करें, ये उसका विरोध करेंगे. आप अराजकत्व की बात करें, ये उसका भी विरोध करेंगे. ये लोग पानी में काफी हलचल मचाते हैं लेकिन इनके पास कोई विषय न होने के कारण ये पाठकों को अधिक समय तक बांध कर नहीं रख पाते. ये छद्म बुद्धिजीवि हैं जिनको जितना दूर रखा जाये, वह मानसिक स्वाथ्य के लिये उतना ही अच्छा होगा.
चौथा खेमा उनका है जो बुद्धि को ताक पर रख कर चिट्ठाकारी के लिये निकलते है. चार पंक्तियों की कविता या एक पेराग्राफ भर शब्दों की खिचडी अपने चिट्ठे पर पेलने के बाद ये चाहते हैं कि कम से कम छ: वाक्यों की पचास टिप्पणियां हर तथाकथित आलेख पर मिले. नहीं मिलतीं तो सबको कोसते फिरते हैं कि यहां पक्षपात है, भाईभतीजावाद है.
पांचवां खेमा टूरिस्टों का है. वे आते है, जाते हैं, हर चीज को बडी दिलचस्पी से लेते हैं, जम कर तारीफ करते हैं, मोलभाव करते हैं, लेकिन टिकते नहीं हैं. वे उत्साह के साथ काफी टिप्पणियां बांटते हैं, लेकिन दो दिन की चांदनी होने के कारण चिट्ठाजगत को उनसे कोई स्थाई फायदा नहीं होता.
छटा खेमा नवागंतुकों का है जो बडी दिलचस्पी से सारे खेमों को देखते है. इन में से कुछ की नजर सतही होती है अत: भिन्न खेमों को देखकर उनको लगता है कि यहां सिर्फ झगडा-रट्टा ही चलता है. जम कर सबको कोसते हैं. कुछ दिन में बुझ जाते हैं. कुछ बिन पेंदे के लोटे होते हैं और जल्दी ही विरोधीलाल उनको खीच ले जाते हैं. इसके साथ साथ उनकी चिट्ठा-कथा का पटाक्षेप हो जाता है. कुछ को लगता है कि उनको तुरंत, कुछ किये बिना, वही महत्व मिलना चाहिए जो उन सब चिट्ठाकारों को मिलता है जो अपनी जन-सेवा के द्वारा लोगों के स्नेह के पात्र बने है. ये चिल्ला चिल्ला कर कहते है कि ‘खटोले’, ‘हलचल’, और ‘चर्चा’ में क्या रखा है जो मुझ में नहीं है. वे चुनौती देते हैं कि वे भी तांगा चला लेते हैं एवं सारथी से अधिक तेज चला लेते हैं. (यह बात अलग है कि उनका रेडा जब सडक पर आता है तो लोग जान बचाने के लिये सर पर पैर रख कर भागते हैं). लगभग 20% ऐसे निकलते हैं जो ध्यान से सब कुछ देखते हैं, बूझते हैं एवं अंत में "परिवार" से जुड जाते हैं.
सातवां खेमा "परिवार" का है. एक विशाल परिवार जहा ताऊ से लेकर चाचा चाची, भाभी, पप्पू, लल्लू तक हर कोई है. अध्यापक भी हैं, डाक्टर भी हैं, लेखक भीं है, हर किसी पेशे का व्यक्ति यहां है. पेशा तलाशते व्यक्ति भी हैं आधे-रिटायर्ड लोग भी हैं. कोई भी एक व्यक्ति इनको इस परिवार में नहीं जोडता है, बल्कि "परिवार" को देखसमझ कर ये उससे जुड जाते हैं. जिस तरह एक "चित्र-पहेली" के टुकडे एक दूसरे से मिल कर एक चित्र का निर्माण करते हैं उसी तरह ये लोग परिवार को देख कर खाली स्थान में जाकर फिट हो जाते हैं एवं अपना पार्ट अदा करते हैं. इस परिवार में हरेक को ढेर सारा प्यार, प्रोत्साहन, टांगखिचाई, परिवार में अपने ओहदे, उमर एवं हैसियत के अनुसार मिलता है. इसमें शामिल होने के बाद शायद ही कोई इसके बाहर गया हो.
"परिवार" का सदस्य बन जाना एक विशेष अनुभव है. एक दूसरे की मदद करना, दुख सुख बांटना, ईपत्र भेजन, यदा कदा मिल लेना आदि सब की सुविधा है. मैं इस "परिवार" का सदस्य हूँ, एवं मुझे इस बात का संतोष है, गर्व भी है. आप किस खेमे में है?
इस विषय पर चिट्ठाजगत का पहला चिंतन: हिन्दी चिट्ठाकारों का वर्गीकरण
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हमें तो अपना खेमा तक पता नहीं!(धत् तेरे की। बेकार गई ब्लॊगिंग हमारी)।
आप ही बता दें!
मैं अपने को किस खेमे मे समझू . मार्गदर्शन करे
एक गंभीर विश्लेषण ! खेमों में बटना मनुष्य की जैवीय वृत्ति है -यह तब से है जब वह छोटे छोटे दलों में शिकार पर निकलता था ..
आज हमारा समाज भी अपने व्यवसाय या अभिरुचि से अनेक दलों में बटा है और अलग थलग पहनावों से भी अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाए रखता है -जब हमारा समाज ही कई खेमों में बटा है तो यह अक्स चिट्ठाजगत में आना सहज है .यहाँ रहते हुए लोग अपनों सरीखा ढूंढ कर उससे तादात्म्य बना ही लेते हैं .और ब्लॉग जगत में यह प्रक्रिया आगे बढ़ रही है !
kis kheme ka apne ko samjhoon???
baharhaal yah bilkul sach hai !!
kadwa hai par sach to hai hi!!!!
vaise main apni pasand ke hisab se saatven kheme ka hi bana rahna chahoonga!!!
kya yah theek nahin rahega????
मैं भी अपने आप को किस खेमे मे समझू . मार्गदर्शन करे
यह बताना मुश्किल हो गया है. मैं ख़ुद को कई खेमों में थोडा थोड़ा बँटा पा रहा हूँ . सातवाँ खेमा तो केवल तोष देने के लिए बना दिया है आपने. या तो पहले छः खेमे सब को समो लेते हैं या फ़िर सातवाँ स्वयं में सबका अकेला प्रतिनिधि है. आख़िर परिवार में हर किस्म के लोग तो होते ही हैं .
एक खेमा बढ़ सकता है – ऐसे निस्पृह लोगों का खेमा, जिनके लिए ‘ब्लोगरी’ “स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा’ की तरह है.
लगता है अलग खेमा लगाना पड़ेगा, इस के तीन चार खेमों में तो हम भी नजर आ ही रहे हैं।
एक खेमा और भी है “एकला चलो रे” या “रमता जोगी बहता पानी” का – शायद बाकी खेमों जैसा उल्लेखनीय न हो!
हम तो सभी खेमों में टहल लिया करते हैं लेकिन लौटकर अपने ‘परिवार’ में ही सकून पाते हैं। यह जो आखिरी खेमा है, उसके घर में पर्याप्त खिड़कियाँ व दरवाजे हैं,जिससे बाहर की हवा इत्यादि व अतिथि जन आराम से आ-जा सकें। मौसम की मार से बचने के लिए उचित छत व सुरक्षित दीवारें भी हैं। कदाचित स्थायित्व यहीं है।
एक और खेमा है मेरा, पर उस में अकेला मैं ही हूँ.
यदि ब्लागर के पास समय कम हो , तो बिना खेमे के ही चलना शायद अधिक अच्छा है। लेकि समय हो , तो ‘परिवार’ का सदस्य बनना सबसे उचित है , ताकि हम एक दूसरे की मदद कर सकें , अपने दुख सुख बांट सके, ईपत्र भेज सकें, यदा कदा मिल सकें।
Sir
खुल के कह देते कौन कहाँ है
shubh praat:
यहाँ आजकल चुनाव का माहौल है. ऐसे में किसी एक खेमे के प्रति निष्ठा व्यक्त करना टिप्पणी रूपी वोटों से वंचित होना होगा. अतः हम निरपेक्ष रहेंगे.
बहुत ही शानदार विश्लेषण ….क्यों कि मैं भी एकाधिक खेमों मैं घुसा पङा हूं….पर हर खेंमे मैं उन लोगों की बहुलता है ..जो ये जानते हैं कि…… हिंदी ही देश को एक सूत्र मैं पिरो सकती है
अक्कड़ बक्क्ड़ बम्बे बो.. सौ में लागा धागा चोर निकल कर भागा..
मेरी उंगली “गा” पर यानि सातवें खेमे में आकर अटकी। हुर्रे 🙂
कुल सात …….????आपकी गणना में कुछ गलती है शास्त्री जी…..कुछ छूट गये लगता है !वैसे आप भी कुल जमा दो तीन बार टिपियाने आये है
ये बेवकूफ ब्लागर किस खेमें में आते हैं– यह नहीं बताया आपने?
‘ hume to aapne forth kheme mey daal diya lgta hai, bcs chaar line ke kavita ka jikr aapne vheen kiya hai ha ha ha ..”
Regards
हम भी परिवार में ही आते हैं, पर यह नहीं पता किस किसके परिवार में आते हैं. 🙂
हाँ, मेरे परिवार में कौन कौन आता है, यह आप मेरे ब्लॉग पर आ कर जान सकते हैं.
sir jee,
kamaal hai,main to kuchh aur hee samajh raha tha, ab do din tak sochtaa rahungaa ki kis kheme mein main hoon, jo bhee kahiye tipiaane ke liye to kheme kee jaroorat nahin hai na, fir theek hai.aur haan main aapka lekh e mail se paanaa chaahtaa hoon kya karun.
हमे तो मार्गदर्शन से मतलब है नये है ना । आपके द्वारा किया गया विशलेषण बढिया है
बढ़िया पोस्ट ठेली है शास्त्रीजी। सब अपना खेमा ही तलाशने लगें!
ये तो दिलचस्प विश्लेषण किया है आपने ! बिल्कुल सटीक लगा ! मेरी नजर में ये तो मानवीय प्रवृति है ! घर में ४/६ आदमियों का परिवार हो तो वहाँ पर भी खेमेबाजी शुरू हो जाती है ! और इसको ब्लॉग जगत में तो स्पष्ट रूप से देखा ही जा सकता है ! टिपणी का आदान प्रदान खेमो के अंतर्गत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है ! और शायद एक वजह यह भी है की नई जगह आदमी खुल कर नही टिपिया पाता ! वो अपने खेमे या कहे की मोहल्ले में ही रोना, गाना जो भी चाहे , वहीं पर करना पसंद करता है !
बहुत शुभकामनाएं !
बाबू जी,आपके वर्गीकरण ने सभी हिंदी ब्लागरों को थोड़ा बहुत विचार करने पर मजबूर करा है, सब अपनी जगह का विचार करने लगे। मजा आ गया।
वैसे किस खेमे में जाना सबसे फ़ायदेमंद रहेगा । परिवार और खेमों की पहचान उदाहरण सहित सविस्तार समझाएं ।
khemebji kyaa hai ..nahi maalum,
शास्त्री जी बिल्कुल सही खेमों का वर्गीकरण किया है आपने. चिट्ठाजगत में बहुत भीड़ हो गई है और बढती ही जा रही है. ऐसे में तमाम खेमे भी बन रहे है पर जो आनंद, प्रेम और संतुष्टि परिवार में है वो और खेमों में नही. मै तो परिवार खेमे में ही रहना चाहूँगा
Kya ajab sanyog hai, aaj se thik 1 saal pehle mene isi per likha tha,
ye reha link
chaliye aap der aaye durust aaye.
और हम किस खेमे में?
आप पूछेंगे “कौन आप? आप कब से ब्लॉग्गरी करने लगे? आप तो एक कुख्यात टिप्पणीकार हैं, ब्लॉग्गर नहीं।”
मेरा उत्तर:
अरे, हम भी एक जमाने में अपने आप को ब्लॉग्गेर समझकर लिखने निकले थे।
किसीने ध्यान भी नहीं दिया। न कोई टिप्पणी, न प्रोत्साहन। फ़टकार भी हमें नसीब न हुआ। बस केवल उदासीनता और उपेक्षा। लेकिन हम छाती पीटने वालों में से नहीं थे। जब किसी एक गली में अपना दुकान खोलकर बैठने से ग्राह्क नहीं मिलता तो किसी बड़े दूकान के बाहर अपना ढे़रा जमाओ!
इत्तिफ़ाक़ से हमें एक भोले भाले “ज्ञानी” मिल गए जिनपर हम “piggy back” सवार करने लगे। उनका मेहमान बनकर लिखने लगा और चंद ही दिनों में मेरा नाम भी ब्लॉगजगत में फ़ैलने लगा!
हम जैसों को कहते हैं “परजीवी ब्लॉग्गर” यानी “parasite blogger”
रोचक लेख।
शुभकामनाएं