पी एन सुब्रमनियन
सितंबर माह के अंत में, दो साल पहले मेरा सपरिवार कोच्चि (कोचीन) जाना हुआ. मेरा एक छोटा भाई अपनी कार में हमें शहर के विभिन्न हिस्सों में घुमा रहा था.
Picture: Jews Street (Afternoon)
एक गली के मुहाने में गाड़ी खड़ी कर उसने बताया कि यही ज्यूस स्ट्रीट (यहूदी मोहल्ला) है. हम लोग गाड़ी से उतरकर सड़क पर खड़े हो गये. मैने चारों तरफ नज़र दौड़ाई. तभी मुझे याद आया कि मैने मलयालम में एक फिल्म देखी थी. नाम था “ग्रामाफोन”. बड़ी अच्छी फिल्म थी. उसमे एक यहूदी लड़की की प्रेम कहानी थी. जो इसी मोहल्ले की थी.
भाई के साथ मै धीरे धीरे गली में आगे बढ़ते हुए फिल्म के सभी दृश्यों को सजीव होते देख रहा था. गली के दोनों ओर मकान और दुकान साथ साथ थे. दूकानों में विदेशी पर्यटकों को लुभाने, कलात्मक पुरा वस्तुओं का अंबार था. एक दूकान के अंदर गया तो देखता हूँ कि पीछे एक बड़ा सा गोदाम है. बड़ें बड़े नक्काशीदार दरवाज़े, चौखट, खंबे (पुराने भव्य मकानों से उखड़े हुए), फर्नीचर, काँसे के बर्तन, मूर्तियाँ, और ना जाने क्या क्या रक्खे थे.
मुझे वो जगह किसी अजायब घर से कम नहीं लगी. बाहर निकलते निकलते एक तबेले में ढेर सारी चीनी मिट्टी की बनी, रंग बिरंगे गोल गुटके (टेबल आदि में लगनी वाली नाब) पड़े थे. मैने कीमत पूछी और 4/6 खरीद भी ली.
चित्र: सिनेगोग का एक बाहय दृश्य
कुछ और आगे बढ़ने पर दाहिनी ओर एक मकान के सामने कुछ लोग इकट्ठे होकर आपस में बातचीत करते दिखे. सिद्धार्थ की तरह हमारे मन में भी कौतूहल जागा कि मामला क्या है. उस घर के निकट पहुँच कर खिड़की से अंदर झाँक कर देखा. एक मृत व्यक्ति पलंग पे पड़ा था. सिरहाने और बगल में तेल के दिए जल रहे थे.
पूछ ताछ करने पर पता चला कि कोच्चि में रहने वाला यह तेरहवाँ यहूदी था. मतलब बारह अभी और बचे हैं. अंतिम संस्कार के लिए कम से कम दस यहूदियों का होना ज़रूरी बताया गया. इसलिए लोग आस पास बसे इनके लोगों को इकट्ठा करने निकले हैं. जब तक कोरम पूरा नहीं हो जाता, शव यों ही पड़ा रहेगा.ना जाने क्यों मुझे एक विचित्र सी अनुभूति हो रही थी. मैं उस घर के अंदर चला गया और मृत देह के पास खड़े होकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की. कुछ देर वहाँ रुक कर बाहर आ गया.
यह मोहल्ला कभी संभ्रांत एवं संपन्न यहूदी परिवारों से भरा पड़ा था. अधिकतर लोग मसालों के व्यापारी थे. कुछ लोग छोटा मोटा काम/धन्दा करने में भी परहेज नहीं रखते थे.
चित्र: यहूदियों का राष्ट्रीय चिन्ह
यहूदी समाज मुख्यतः तीन वर्गों में बँटा हुआ था. पहला, स्थानीय (जो प्राचीन काल से हैं) जिन्हे काले यहूदी भी कहा जाता था (जो वास्तव में काले नहीं थे), दूसरा वर्ग विदेशी या परदेसी यहूदियों का था जो स्पेन, हॉलॅंड, ईजिप्ट आदि देशों से १५ वीं शताब्दी के बाद प्रताड़ना से बचने के लिए आ बसे. इन्हे गोरे यहूदी कहा गया. एक तीसरा वर्ग भी था जो पहले दास (गुलाम) हुआ करते थे जिन्हे मुक्ति के बाद यहूदी धर्म में दीक्षित किया गया था. इनकी सामाजिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी.
पुर्तगालियों ने जिस इलाक़े में भी आक्रमण किया, वहाँ के लोगों को पकड़ कर जहाज़ में ले जाते और उन्हें जबरन गुलाम बना लेते. मुझे ऐसा लगता है कि केरल के तीसरी श्रेणी के यहूदी दक्षिण पूर्व एशिया के द्वीप समूहों से रहे होंगे. इन सभी वर्गों के अपने अलग अलग प्रार्थना स्थल हुआ करते थे.
चित्र: सिनेगोग का अंदर का दृश्य
लेकिन ये यहूदी कहाँ से आए, कब आए, क्यों आए जानना हो तो मुझे और भी लिखना होगा और आपको पढ़ना भी होगा. प्रयास करूँगा कि मस्तिष्क पर ज़्यादा बोझ ना डालूं.
सभी जानते हैं कि केरल में मसाले होते हैं जिनकी माँग विदेशों में खूब रही है. प्राचीन समय से ही केरल के तट पर मुज़रिस नामक एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था जिसे आज कोडूनगल्लुर के नाम से जानते हैं. कहा जाता है कि इसराइल के यहूदी राजा सोलोमन भारतीय उत्पाद की प्राप्ति के लिए अपने जहाज़ सोपारा (मुंबई के पास) और मुज़रिस भेजा करता था. यह यहूदियों के भारत और विशेष कर मुज़रिस से संपर्क की शुरुआत थी. कहा जाता है कि ईस्वी सन 68 में, येरुशलेम के यहूदी मंदिर को नष्ट किए जाने और भगाए जाने के परिणाम स्वरूप करीब 1000 यहूदी स्त्री पुरुषों का जत्था येरूशेलम से भाग कर शरण लेने मुज़रिस (कोडूनगल्लुर) पहुँचा. इन्हे वहाँ पनाह मिली और अधिकतर लोग कोडूनगल्लुर में बस गये. कुछ अन्यत्र निकटवर्ती कस्बों में जा बसे (माला, परावुर, चेन्नमंगलम, चोवघाट आदि). यहूदियों के आने का सिलसिला, खेपों में सदियों तक चलता रहा. अधिकतर लोगों ने व्यापार एवं कृषि को अपनाया. अपने परिष्रम के बूते यहूदी संपन्न होते गये और प्रतिष्टित हो गये.
सन 1000 के लगभग राजा भास्कर रवि वर्मा के शासन काल में जोसेफ रब्बन (इसुप्पु इरब्बन) तथा 72 अन्य यहूदी परिवारों को कोडूनगल्लुर से लगा हुआ अन्जुवनम नामक क्षेत्र, संपूर्ण स्वायत्तता के साथ, दान स्वरूप प्रदान किया गया. उन्हे करों में छूट का भी प्रावधान था. इस दान की पुष्टि के लिए ताम्र पत्र भी जारी किया गया था परंतु जो ताम्र पत्र आज उपलब्ध है, वह प्रतिलिपि मात्र है, मूल प्रति गायब है. विडंबना यह है कि 12 वीं सदी तक का ऐसा कोई भी पुरातात्विक मान्य प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यहूदियों के केरल में पूर्व से बसे होने कि पुष्टि की जा सके. चेन्नमंगलम में एक शिलाखंड प्राप्त हुआ है जो किसी कब्र का शीर्ष भाग रहा होगा. इस पर हिब्र्यू लिपि में “सारा, इसराइल की पुत्री, 1269″ अंकित है. यही एकमात्र प्राचीनतम प्रमाण यहूदियों के पक्ष में है.
13 वीं शताब्दी के आस पास किसी प्राकृतिक विपदा के कारण (संभवतः सूनामी) केरल का तटीय क्षेत्र अस्त व्यस्त हो गया. नये कुछ टापू भी बन गये. कोडूनगल्लुर का बंदरगाह अनुपयोगी हो गया. मजबूरी में व्यापारिक नौकाएँ कोच्चि के तट पर लंगर डालने लगीं. कोडूनगल्लुर की जगह कोच्चि एक बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में उभर कर आया. तत्कालीन प्रशासन ने कोडूनगल्लुर के व्यापार से जुड़े यहूदियों को विस्थापित कर कोच्चि के निकट पूर्व दिशा में, कोचूअंगाड़ी नाम से प्रख्यात इलाक़े में बसा दिया गया. कालांतर में मट्तांचेरी, जहाँ वर्तमान ज्यूस स्ट्रीट है एक व्यावसायिक स्थल के रूप में विकसित किए जाने हेतु यहूदियों को आबंटित किया गया. प्रताड़ना से बचने के लिए, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, पश्चिमी देशों से भी यहूदी कोच्चि में आकर बसने लगे. एक सिनागॉग (प्रार्थना स्थल) मट्तांचेरी में भी 1568 में बना. यहूदियों को राजकीय आश्रय एवं सम्मान का यह प्रमाण है क्योंकि यह धर्मस्थल राजा के महल और मंदिर से एकदम सटकर है.
16वीं शताब्दी में केरल तट पर पुर्तगालियों (1502-1663) का अधिपत्य हो गया. पुर्तगाली धार्मिक रूप से परम असहिष्णु और कट्टरवादी लोग थे. उन्होने कोडूनगल्लुर के यहूदियों को जबरन धर्मांतरित किया. बड़ी संख्या में यहूदी कोच्चि की ओर कूच कर गये. पुर्तगालियों ने उनके प्रार्थना स्थलों को, सभी रेकॉर्ड्स समेत जला दिया . यहाँ तक कि उन्होने उनके कब्रिस्तान को भी नहीं बक्शा. इस तरह यहूदियों के किसी समय कोडूनगल्लुर में पाए जाने के सभी प्रमाण विलुप्त हो गये. 17वीं सदी में डचो (हॉलॅंड की डच ईस्ट इंडिया कंपनी 1663-1795) का आगमन हुआ. पुर्तगालियों के साथ युद्ध में यहूदियों ने स्थानीय (कोच्चि के)राजा के साथ मिलकर डचो की मदद की. पुर्तगली परास्त हुए और साथ ही यहूदियों के उन्नति तथा समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो गया. हॉलॅंड वासियों ने कोच्चि के यहूदियों के लिए उनके धार्मिक ग्रंथ “तोरा” तथा प्रार्थना की पुस्तकों की छपी हुई प्रतियाँ सुलभ कराईं. सन 1760 में परदेसी सिनागॉग में घंटा घर भी बना जो आज भी है. कालांतर में अँग्रेज़ों का शासन आया फिर भारत आज़ाद भी हो गया. कोच्चि के यहूदी, समाज में प्रतिष्टित बने रहे.
एक यहूदी राष्ट्र के रूप में “इसराइल” के बन जाने के बाद दुनिया भर से यहूदी लोग इसराइल चले गये. भारत के यहूदियों ने भी इसराइल का रुख़ किया. बूढ़े और बीमार लोगों को पीछे छोड़ गये. दर्जन भर जो लोग बचे हैं, वे दिन ही तो गिन रहे हैं.
गली में कुछ दूरी पर ही यहूदियों का प्रार्थना स्थल (1568) (परदेसी सिनेगॉग) था मानो कह रहा हो, तुम्हे क्या मालूम हमारा दर्द. अंदर से यह सिनागॉग बड़ा ही भव्य है. साजसज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया है. छत से बहुत सारे झाड़ फानूस लटक रहे हैं जिन्हे बेल्जियम से मँगवाया गया था. फर्श पर चीन से लाए गये नीले सिरामिक टाइल्स बिछे हैं. उनपर हाथ से चित्रकारी की गयी है. खूबी यह कि सभी की कलाकारी भिन्न है. सन 1760 में सिनागॉग के ऊपर क्लॉक टॉवेर बनाया गया था. अब यह सिनागॉग संरक्षित कर दिया गया है.
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क्या यह लेख पी एन सुब्रमनियन जी का है? यह ऐतिहासिक तथ्य उत्सुक करते है नयी जानकारी के लिए. मैं तो सारथी पढ़ते हुए विस्मय-विमुग्ध हो चला हूँ. सच में आपकी प्रखर मेधा, रचनाशीलता, अध्यवसाय, बहुआयामी सक्रियता प्रेरणादायी हैं मेरे लिए. राह दिखाते चलें, आभारी रहूँगा.
इस लेख के लिए धन्यवाद .
shandar jandar, narayan narayan
आलेख अच्छा है, पर ब्लाग के लिए लम्बा है, दो किस्तें होनी चाहिए थी। इतना माल एक साथ नहीं पचता।
दरसल केरल का तट केवल यहूदी या पुर्तगाली यायावरों के पदचिन्हों से ही नही बल्कि आदि मानव महाभिनिषक्रमणो के पदचापों से झंकृत रहा है -मूल अफ्रीकी मानव यहीं से भारत में ४०-५० लाख पहले आए और आगे बढ़ते हुए नील सेतु के जरिये श्रीलंका और आष्ट्रेलिया तक जा पहुंचे ! भारतीय मानाव सभ्यता का उषाकाल संभवतः यहीं से आरम्भ हुआ और निजी तौर पर मुझे लगता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता इन्ही आदि अफ्रीकी-केरलवासियों द्वारा ही उत्तर की ओर और आगे बढ़ते जाने के फलस्वरूप बसाई गयी होगी जो बाद में उत्तर से आए आक्रान्ताओं द्वारा विनष्ट हो गयी होगी ! ये मेरी वाईल्ड इमजिनशन्स ही हैं -केवल संकल्पना मात्र ! क्योंकि इसकी पुष्टि में पुख्ता प्रमाणिक वैज्ञानिक तथ्य अभी नहीं है मेरे पास -मगर मुझे लगता है कि इस संकल्पना पर काम होना चाहिए! ऐसे ही आलेखों के कारण सारथी का आकर्षण मेरे लिए रहा है -सुब्रमन्यन जी का आभार !
हतप्रभ हूँ इस शानदार जानकारी को यहाँ पाकर ! आपको जितना धन्यवाद दिया जाए कम है ! ये तो आपने इतिहास समेट कर रख दिया ! बहुत धन्यवाद ! शुभकामनाएं !
bahut badhiya raha.. nayi jaankari mili..
aapse maine blogging me dher sari baat sikhi hai, jisme sabse pahle jo sikha use abhi tak follow karta aa raha hun.. magar use aapne hi is post me follow nahi kiya.. 🙂
main dinesh ji ki tippani ki baat kar raha hun..
रोचक और ज्ञानवर्धक पोस्ट.ज्यूस स्ट्रीट को सिर्फ ट्रेवल चैनल पर देखा था.
@ श्री द्विवेदी:
सरजी, आपके अवेरमेंट्स मेनटेनबल नहीं हैं. आधी आज पढ़ लीजिए और आधी कल. अभी दो दिन तो लटकी रहेगी. आभार.
श्री प्रशांत: शास्त्री जी का कोई दोष नहीं है. हमने उनसे कुछ नहीं सीखा, वैसे गुंजाइश थी. आभार.
बेहद उपयोगी जानकारी के लिये धन्यवाद, डाक टिकट का चित्र भी संग्रहणीय है…
बहुत बढ़िया लेख ! इज़राइल बनने से पहले मुम्बई में भी यहूदी रहते थे ।
घुघूतीबासूती
@घुघूतीबासूती:
मुंबई में भी यहूदी थे और अब भी हैं. उनकी कहानी अलग है. पश्चिमी महाराष्ट्र में कई जगह पाए जाने वाले यहूदी “बेने इसराइल” या फिर शनीवारी तेली कहलाते थे. मुंबई में बघदादी यहूदी थे. इन सब के प्रार्थना स्थल अब भी मौजूद हैं –
पी एन सुब्रमनियन जी, आपकी पोस्ट बहुत अच्छी है। यहूदी लोगों पर मेरा अल्पज्ञान इसको पढके बढ गया है।
मैं तो लेख को समझा पर बेहतर होता कि स्वयं आप ‘सिनेगोग’ क्या है, बता दें. इसे लेख में जोड़ दें. धन्यवाद.
यह लेख ऐतिहासिक तो है ही पर लंबा होने के कारण विकिपीडिया का पन्ना होने का अहसास करा रहा है.
यह इस लेख का सकारात्मक और नकारात्मक पहलू है. थोड़ा सा छोटा होना चाहिए था.:|
यहूदी धर्म के विषय में अच्छी जानकारी मिली, यदि आप उस मृत व्यक्ति का क्या हुआ, यह भी बता पाते तो मन को शान्ति मिलती.
आदरणीय गुरुवर्यसम शास्त्री जी, सुन्दर जानकारी देने वाला लेख है लम्बा होने की नकारात्मकता का आरोप सही नहीं है बल्कि आपने इसे सायास संक्षिप्त करा है वरना एक लघुकाय पुस्तक बन जाती। बूंदे चाटने वाले कभी अगर समुन्दर पा भी जाएं तो छक कर न पी पाएंगे। यहां तो वर्षा हो रही है ज्ञान की और लोग हैं कि अपने पूर्वाग्रहों की छतरी ताने खड़े हैं। पुनः धन्यवाद…
@E-Guru Rajeev:
“सिनागॉग (प्रार्थना स्थल) मट्तांचेरी में भी १५६८ में बना”
“यहूदियों का प्रार्थना स्थल (1568) (परदेसी सिनेगॉग)”
चौथे और अंतिम पेरा में उल्लेख है. संभव है लेख कुछ लंबा हो जाने से नज़रों में ना आई हो. क्षमा करें.
संभवतः शाम तक उस मृत व्यक्ति का अंतिम संस्कार किया जा चुका होगा. हम लोग वापस हो लिए थे.
“यहूदी” शब्द हमेशा से मेरे लिये एक रहस्य,एक कोई अपरिभाषित सा अर्थ लिये रहता था {है}. इजरायल की जीवटता और मुकेश का अमर गाना “ये मेरा दीवानापन है…” जो कि दिलीप कुमार की यहूदी फ़िल्म से है-कुछ ऐसे ही चित्र उभरते थे “यहूदी” से…
एक रोचक और नायब जानकारी देने के लिये धन्यवाद
पिछले ही साल कोचीन जाना हुआ था। तब इस सिनगॉग और इस गली से गुजरा था. इस सिनगॉग का नाम परदेशी सिनगॉग है। यहाँ देखें
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2008/04/blog-post_24.html
आपने जो ऍतिहासिक जानकारी दी वो अनूठी है।
चित्र: यहूदियों का राष्ट्रीय चिन्ह
” मेनोरा = Menorah” कहलाता है –
मेरी पडौसन सहेली भी एक यहूदी= ज्यू
महिला हैँ – और सिने कलाकार डेविड बूट पालिश फिल्म के जोह्न चाचा भी बम्बई मेँ रहनेवाले यहूदी थे
– लावण्या
Very detailed & excellent article.