यह राजभाषा हिन्दी का दुर्भाग्य है कि हिन्दी लुगदी-साहित्य तो देश के कोने कोने मे (जी हां, दक्षिण में भी) 25 से 30 रुपये में मिल जाता है, लेकिन जो किताबें व्यक्ति एवं समाज को शाश्वत लाभ दे सकती हैं वे दूढे नहीं मिलतीं. किसी तरह मिल जाये तो स्थिति यह है कि किताब खरीदो तो बीबीबच्चे भूखे रह जायें, या उनको खिलाने की फिकर करों तो किताब दुकान में ही रह जाये.
इस हफ्ते मैं कोच्चि (विशाल कोच्चि का नया नाम) में स्थित दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की पुस्तकशाला में दो बार गया. काफी सारे हिन्दी शब्दकोश एवं अन्य सन्दर्भ ग्रंथ खरीदे. पत्नीबच्चों से छुपा कर घर के अंदर उनकी तस्करी की. अब उनका उपयोग खुल कर कर रहा हूं. लेकिन इन दो दिनों मे एक बात बहुत अखरी. सही कहा जाये तो यह बात पिछली चार दशाब्दियों के लेखन में मुझे बहुत अखरती रही है. यह कि स्तरीय हिन्दी पुस्तकें अपने जुडवे अंग्रेजी भाई या बहन से सस्ते कागज पर छपती हैं, सस्ती जिल्द होती है, कम टिकाऊ होती है, लेकिन पृष्ठ संख्या के हिसाब से कीमत में दुगनी से चार गुनी अधिक होती है. मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि जो हिन्दीलेखक अच्छे स्तर की शाश्वत पुस्तकें लिख सकते हैं उन में से कई की नजर हिन्दीभाषियों की आर्थिक स्थिति पर नहीं बल्कि किताबे से मिलने वाली रॉयल्टी की ओर रहती है. मजे की बात यह है कि बहुत कम हिन्दुस्तानी प्रकाशक रॉयल्टी देते हैं.
मैं 50 के करीब पुस्तकें (अधिकतर मलयालम भाषा में) लिख चुका हूं. इनमे तीन सन्दर्भ ग्रंथ, एक वृहत शब्दकोश, एवं एक 4 खंड का विश्वकोश है. इनमें से एक सन्दर्भ ग्रंथ मलयालम बोलने वाले ईसाईयों के बीच इतना प्रसिद्ध हुआ था कि 300,000 रुपये मे (जी हां, तीन लाख रुपये में) उसकी एक आखिरी प्रति मस्कट (Muscat) में नीलाम हुई. पैसा किसी और को मिला. लेकिन यह सब करने के बाद मुझे हिन्दुस्तानी भाषा की पुस्तकों से सारे जीवन में रॉयल्टी मिली 1200 (जी हां, केवल बारह सौ) रुपये. वह भी विवाह जीवन के बारे में एक साधारण सी पुस्तक के लिये.
यह एक विषचक्र है: रॉयल्टी के पीछे भागिये, किताब की कीमत बढा चढा कर रखिये, लेकिन इन सब के बावजूद आपको भारतीय भाषा की किताबें लिखने के लिये धेला भी नहीं मिलेगा. उधर वह किताब आम आदमी की पहुंच से बाहर जो हो जाती है वह अलग. न तो हिन्दी का कल्याण होता है, न हिन्दीभाषी का. लगभग सभी भारतीय भाषाओ में यही हिसाब चल रहा है. यदि पुस्तक महल, एवं दिल्ली प्रेस (जो सरिता छापते हैं) न होते तो आम हिन्दीभाषी शायद एक भी किताब खरीद न पाता.
दुखी होकर कुछ साल पहले मैं ने एक निर्णय लिया था कि अब बेचने के लिये नहीं मुफ्त वितरण के लिये लिखूंगा. अंग्रेजी में ईसाई धर्म एवं दर्शन से सम्बंधित 20 के करीब छोटे पुस्तक इसके बाद लिखे. सब को इलेक्ट्रानिक रूप में (पीडीएफ) वितरित करना शुरू किया. मई 2007 तक, 10,00,000 प्रतियां वितरित हुई. कम से कम दुनियां भर के लोगों को फायदा हुआ. आजकल 60,000 प्रतियां हर महीने मेरे अंग्रेजी चिट्ठों से जा रहे है, अर्थात 1,000,000 प्रतियां एक साल में. हर पुस्तक को मैं ने "मुक्त" प्रकाशनाधिकार के अन्तर्गत रखा है. जो चाहे उसका उपयोग कर सकता है (बिना परिवर्तन के, बिना मेरा नाम हटाये).
आजकल अंग्रेजी छोड कर हिन्दी में लिख रहा हूं. ईश्वर ने मदद की तो बहुत जल्दी ही ये ईपुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध हो जायेंगी. मुक्त कॉपीराईट होगा एवं पूर्ण रूप से नि:शुल्क होंगी. बेची नहीं जायेंगी, नहीं तो सिर्फ कुबेर ही उनको पढ पायगा. हिन्दी में स्तरीय पुस्तकों की कीमत देख कर मैं ने कई बार आंसू बहाये हैं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरे पाठकों को यह करना पडे
हिन्दी, हिन्दी-पुस्तकें, कापीराईट, मुक्त-कापीराईट, ईपुस्तकें, सारथी, चुने-हुए-लेख, यदि आपको टिप्पणी पट न दिखे तो आलेख के शीर्षक पर क्लिक करें, लेख के नीचे टिप्पणी-पट दिख जायगा!!
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पुस्तकों की कीमत प्रकाशकों का पेट भरती है न कि लेखकों का। हमने अपने प्रकाशक से बार बार अनुरोध किया कि पेपरबैक छापकर उचित मूल्य रखे लेकिन..;राजी नहीं हुआ।
अब साल में 1000 रुपए भी नहीं भेजता..वो कितना कमाता है पता नहीं।
आपकी ब्लॉगिंग वाली ई-पुस्तकों का इस्तेमाल इस सत्र में हम खुलकर करने वाले हैं- सीडी बना रहे हैं- कार्यशालाओं में वितरण करेंगे- नाम आपका ही है- पैसे न विद्यार्थियों से लेंगे न आपको देंगे 🙂
शास्त्री जी आपके बारे में मसिजीवी जी के चिट्ठे पर पढ़कर अच्छा लगा.आपके सफलता के गुर नामक लेखों की प्रतीक्षा है.
इस भागीरथी प्रयास के लिये आपको शुभकामनाएं शास्त्री जी ।
आपसे समय का सद-उपयोग सिख सकते है. किताबो के बारे में आपके विचारों का समर्थन करता हूँ.
आपने हिन्दी पुस्तकों की सही स्थिति बयान कर दी. यही हाल हिन्दी पत्रिकाओं का है. अंग्रेज़ी की पत्रिकाएँ ग्लॉसी काग़ज पर हाईटेक प्रिंट होकर बढ़िया कलेवर में आती हैं और हिन्दी पत्रिकाएँ मरियल सी नजर आती हैं – अखबारी कागज में छपती हैं. सामग्री की गुणवत्ता भी आमतौर पर खराब रहती है – पैसा नहीं मिलता तो कौन जी-जान से काम करेगा?
ठीक बात. सटीक बात.
@रवि
दूसरी ओर हिन्दुस्तानी अंग्रेजी संगणक पत्रिकाएं एक लेख के लिये 600 से 2500 रुपये देती है, अत: उनको मेहनत से लिखे गये अच्छे लेख मिल जाते हैं. (यह 10 साल पुराना रेट बता रहा हूं. आजकल नहीं लिख पा रहा हूं क्योंकि मेरा अपना काम बहुत बढ गया है)
@मसिजीवी
“आपकी ब्लॉगिंग वाली ई-पुस्तकों का इस्तेमाल इस सत्र में हम खुलकर करने वाले हैं- सीडी बना रहे हैं- कार्यशालाओं में वितरण करेंगे- नाम आपका ही है- पैसे न विद्यार्थियों से लेंगे न आपको देंगे”
अरे क्या गजब कर रहे हैं. हम तो लुट जायेंगे!! लेकिन कोई बात नहीं. हिन्दी के प्रचार के लिये यह तो एक छोटा सा योगदान है.
आप कहें तो किसी विषय पर पूरी ईबुक आपके लिये लिख देंगे. फायदा बहुतों को होगा क्योंकि हम भी बांटेंगे.
मैंने अपनी इस छोटी-सी जिंदगी में ऐसा चिंतन नहीं पाया है –
“ईश्वर ने मदद की तो बहुत जल्दी ही ये ईपुस्तकें हिन्दी में उपलब्ध हो जायेंगी. मुक्त कॉपीराईट होगा एवं पूर्ण रूप से नि:शुल्क होंगी. बेची नहीं जायेंगी, नहीं तो सिर्फ कुबेर ही उनको पढ पायगा. हिन्दी में स्तरीय पुस्तकों की कीमत देख कर मैं ने कई बार आंसू बहाये हैं, लेकिन मैं नहीं चाहता कि मेरे पाठकों को यह करना पडे”
ऐसे ही किसी काम पर कहना पडा हो शायद (किसी विशेष दृष्टि से नहीं, इस कार्य के प्रति समर्पण से उद्धृत कर रहा हूँ )-
“तलाशो-जुस्तजू की सरहदें अब खत्म होती हैं
खुदा मुझको नजर आने लगा इंसाने-कामिल में .”
आदरणीय शास्त्री जी
मुझे आपकी सोच ने बहुत प्रभावित किया है .
पाठकों का बहुत भला होगा.शायद अभी भी कुछ साईट्स हैं जो मुफ्त ई — बुक्स उपलब्ध करती हैं .अगर ऐसा है तो ,हो सके तो उनका पता ब्लॉग पर उपलब्ध करा दीजिये.
सहीं कहा आपने। हिन्दी की किताबें अपनी लागत से दुगने से भी अधिक दाम पर बेची जाती हैं। प्रकाशक फुटकर बिक्री में रूचि नहीं रखते, वे सरकारी खरीद में किताबें खपा कर खुश हो लेते हैं।
अभी तो पढ़ने के लिये इतना बैकलाग घर पर पड़ा है कि पुस्तक खरीदने का मन नहीं होता। पर मन न होते होते भी ४००-५०० रुपये महीने में निकल ही जाते हैं!
मैं तो सही से रख-रखाव ही नहीं कर पाता हूँ. एक नई रैक ही अब खरीदने वाला हूँ.
बहुत सही बात छेड़ी है आपने.मैं खुद किताबें {हिन्दी } खरिदने का शौकिन हूँ और और समझता हूँ इस दर्द को…
..हाँ मगर आप जो ये नेक कृत्य कर रहे हैं,हिंदी सदैव इसके लिये ऋणी रहेगी आपकी…
मुझे पुस्तक की दामों की उतनी चिंता नहीं जितनी इस बात से है कि आजकल की युवा पीढी किताबें पढ़ती ही नहीं।
मॉल में समय काटना, टीवी, विडियो, सिनेमा, ऑर्कुट/फ़ेसबुक, चैट, मोबाइल फ़ोन पर बातचीत, इत्यादि से इन लोगों को पुस्तक पढ़ने की फ़ुर्सत कहाँ? आज Instant knowledge उपलब्ध है। बस एक मन्त्र “Google” से दुनिया का समस्त ज्ञान अपनी मुठ्ठी में !
परीक्षा पास करने के लिए इन पुस्तकों की “nuisance” को सहन करते हैं लेकिन बाद में पुस्तकों की क्या आवश्यकता? हमारे जमाने में कॉलेज की लड़कियाँ पुस्तकों को अपनी छाती से दबाए रखकर चलती थीं।
कितना प्रिय हुआ होगा उनको यह पुस्तकें! आजकल मोबाइल फ़ोन अपने कानों से चिपके रखते हैं। कितना मधुर लगता होगा मोबाइल फ़ोन से निकलती आवाज़ें!
G Vishwanath की बातों से मै सहमत हूं आज की युवा पिढी को पुस्तको से लगाव ही नही है । पहले मै भी गाव के पुस्तकालय को पुस्तके दान करता था । वहा हमेशा ४०-५० पाठक रहते थे, लेकिन अब वहा एक या दो ही पाठक नजर आते है
। आपका प्रयास अच्छा है
सहीं कहा आपने!!!!!!
आपने बिल्कुल सही कहा की प्रकाशक सिर्फ़ अपना घर भरता है ! लेखक पहले भी बेचारा था आज भी बेचारा है ! हिन्दी की किताबो की कीमत जितनी तेजी से बढी है उतनी तेजी से तो दूसरा कुछ भी नही बढ़ा ! मेरी एक आदत रही शुरू से की मांगकर या पुस्तकालय से लाकर किताब नही पढी ! उस समय में काफी सस्ती हुआ करती थी हिन्दी की किताबे ! उनमे से कुछ किताबे माँगने वालो ने गायब करदी ! अब जब कभी जरुरत महसूस होती है तो वही किताबे अब ३०० या ३५० रु.की हो गई हैं ! जो पहले २५ से ३५ रु की थी ! आज जब कभी पुस्तक प्रदर्शनी में जाते हैं तो पेमेंट हजारो में करने की तैयारी करके जाना पङता है ! अब आदत है तो खरीदने में तो आयेगी ही ! आपकी सोच बहुत प्रेरक है ! धन्यवाद !
किसान मेहनत करता है पर लाभ थोक व्यापारी को होता है।
लेखक मेहनत करता है पर लाभ प्रकाशक को होता है।
किसान के पास कोई विकल्प नहीं है।
पर आज के युग में लेखकों के लिए विकल्प है।
रवि रतलामीजी के किसी ब्लॉग पर पढ़ा था इसके बारे में।
मोबाइल फ़ोन की तरह यदि मार्केट में एक सस्ता E book reader उपलध होता है तो लेखक अपनी किताबों की एक प्रति pdf format में इच्छुक पाठकों को उपलब्ध करा सकता है। कीमत बहुत ही कम होगा. चार – पाँच सौ की पुस्तक केवल पचास रुप्ये में उपलध करा सकते हैं। कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि लेखक अपने फ़ाइल का अन्धाधुंध नकल और वितरण रोक सकेगा। शायद कोई encoding system या पासवर्ड के जरिए यह हो सकता है।
केवल एक e book reader खरीदने से पाठक हमेंशा के लिए हज़ारों किताबें पढ़ सकेगा। e book reader का डिसाइण ऐसा होना चाहिए के वह आकार और वजन में एक सामान्य किताब से ज्यादा न हो. bookmarking की सुविधा और font size बढ़ाने की सुविधा भी होनी चाहिए।
यह प्रणाली हर स्थिति में पुस्तक मुद्रण का विकल्प नहीं। केवल एक अतिरिक्त सुविधा हो सकती है।
क्या यह साध्य / संभाव्य है?
आदरणीय शास्त्री जी,
पुस्तक प्रकाशन कैसे होता है ये तो मुझे मालूम ही नहीं है। इधर कुछ दिनों से सत्यार्थमित्र की कुछ चुनिन्दा रचनाओं का संकलन पुस्तक रूप में प्रकाशित कराने का विचार बन रहा है। क्या यह सम्भव है? सफलता की क्या सम्भावना है? कृपया मार्गदर्शन दें।
मै हिन्दी हु॑॥॥॥
भारत माता कि बिन्दी हु॑।
शास्त्रीजी,यह मत पुछो कि,
हाल मेरा कैसा है।
अपनो के बीच ही,
पराये जैसा है।
मिया मिट्टू भला,
कोई अपने मु॑ह बनता है।
अपनी दही को कोई,
खट्टी नही कहता है।
अपना सा मु॑ह लेकर,
रह रही हु।
बीती अपनी
खुद कह रह हु।
मुझे मलाल बडा भारी है।
मेरा शोषण बददस्तुर जारी है।
कहने को मै हु किमत मे भारी
शास्त्रीजी को लगती हु बडी प्यारी
फटी हुई चिन्दी हु।
हॉ!!! मै हिन्दी हु।
जो खर्च कर सकते हैं वह भी नहीं पढ़ते