सन 1961 की बात है ग्वालियर में बहुत सुविधाजनक सरकारी सिटीबस सेवा उपलब्ध थी और अधिकतर विद्यार्थी रियायती मासिक-पास पर यात्रा करते थे. लेकिन एक दिन हम तीन मित्रों ने बस छोड कर विद्यालय से घर पैदल जाना तय किया.
पाच किलोमीटर की दूरी, ग्वालियर की कडी गर्मी. आधे रास्ते सब पस्त हो गये. अब आगे बस से जाना संभव नहीं था क्योंकि हम मूल रास्ते को छोड बिन-बस के रास्ते पर थे. प्यासों के लिये शहर भर में प्याऊ लगे थे और एकदम ठंडा पानी मिल जाता था, लेकिन कुछ देर में भूख के मारे हालत खराब हो गई.
रास्ते में किसी का कोई रिश्तेदार न था. न ही मांबाप को फोन पर बुलाया जा सकता था. एसटीडी पीसीओ का जमाना तो उसके तीस साल बाद आया था. वैसे भी उस समय फोन या तो तारघर में, सरकारी दफ्तरों में, या नगरसेठ के घर में ही दिखते थे तो घर पर क्या फोन करते.
अचानक बगल के खेत से निकल कर टमाटर से भरा एक ठेला आता दिखा. ठेलेवाला आवाज लगा रहा था "पांच पैसे का एक किलो ले लो". अचानक मुझे याद आया कि आपात स्थिति के लिये मां ने पापा की जानकारी के बिना मुझे जो "पांच" पैसे दिये थे वह अभी भी बस्ते के सीक्रेट पाकेट मैं है. बस फिर क्या था, एक किलो टमाटर खरीदा और जम के खाया.
ठेलेवाला खेत से टमाटर लेके निकला ही था कि हम लोगों ने पांच पैसे जैसी बडी राशि देकर बिना मोलभाव बोहनी की अत: उसने दोचार टमाटर अतिरिक्त दे दिया था. तीनों ने जम कर खाया, मां और ठेलेवाले को दुआएं दीं, और खेत के कूएं पर जाकर जम कर पानी पीकर तरोताजा हुए. उसके बाद अगले ढाई किलोमीटर कैसे बीते यह पता भी नहीं चला.
हां एक चीज जरूर याद है, उस दिन टमाटर का जो स्वाद आया था वह न तो उसके पहले न उसके बाद कभी आया!!! न ही 1965 के बाद कभी इस भाव पर टमाटर दिखे!
[ताऊ रामपुरिया] शास्त्री जी एक बात तो आपने सिद्ध करदी की आपके परेंट्स भी मालदार थे ! जो आपको पाँच पैसे जेब खर्च में देते थे ! हमको बड़े रोने धोने के बाद एक पैसा डबली मिलता था ! और उस में गुड और मूंगफली दोनों खरीद कर खा लेते थे! यही मेवा था उस समय का !
पैसा एक छोटा , जिसे पाला या छोटा पैसा यानि छ. पैसे का एक आना ! और दुसरे डबली या छेद वाला पैसा यानी ४ पैसे का एक आना होता था ! और ये ताम्बे के सिक्के हुआ करते थे !
हमारी दादीजी जो अपनी दीवार की अलमारी में अपना खजाना ( कुछ कागज़ के और चांदी के सिक्के और कुछ ये ताम्बे के सिक्के ) एक कटोरे में रखती थी ! हमारे से दो तीन क्लास सीनियर सहपाठी के कहने से उसमे से एक रुपये के नोट पर हाथ साफ़ कर दिया !
नोट लेजाकर हमारे सीनियर सहपाठी को देदिया ! यकीन कीजिये उस नोट को खुला करवाने में पसीना आगया ! किसी तरह चोरी छिपे पास के गाँव में दो पैसे की मूंगफली और बताशे लिए ! जो दोनों से खाए नही गए ! फ़िर उस दुकानदार ने साढे पन्द्रह आने खुल्ले दिए उनको कहां रखे ? बड़ी मुश्किल हुई ! किसी तरह गाँव के बाहर जमीन में उन बाक़ी पैसो को दबा कर घर आए !
कुल जमा उस खजाने को खोद खोद कर दो आने खर्च कर पाये की पुरे गाँव में ढिंढोरा पिट गया की ये रोज मूंगफली बताशे खाते हैं ! बस क्या था ? पकड़े गए !
घर लाकर हमारी माताजी ने खूब ठोका बजाया, क्योंकि पिताजी बाहर गए थे ! और आयन्दा चोरी करने की कसम खिलवायी गांधीजी की तरह !
बस वो आखिरी चोरी थी घर में ! सरकारी टेक्स वेक्स की चोरी तो चलती रहती है ! उसके लिए माताजी ने कसम नही दिलाई थी ! शायद गाँव की महिला थी उसको क्या मालूम था की उसका सपूत आगे जाकर इस लायक हो जायेगा की इसे सरकारी टेक्स की चोरी भी राजी या बेराजी करनी पड़ेगी ! नही तो वो उसकी भी कसम दिलवा चुकी होती तो क्या होता ?
वैसे बहुत सही याद दिलाया ! उस जमाने में नगद रुपया नही था ! हमारे गाँव में एक ताऊ थे जो कहा करते थे की नोट फुडवा ( खुल्ला) लिया की किस्मत फुड्वाली ! बहुत अच्छे किस्से याद दिलवाए जारहे हो आप तो ! लगता है सब कन्फेशन आप अपने ब्लॉग पर करवा लोगे हमसे तो ! 🙂
[Picture Credit: jacki-dee, Creative Commons]
यदि आपको टिप्पणी पट न दिखे तो आलेख के शीर्षक पर क्लिक करें, लेख के नीचे टिप्पणी-पट दिख जायगा!!
Article Bank | Net Income | About India । Indian Coins | Physics Made Simple
पांच पैसे का मूल्य उस समय बहुत होता होगा . हमारे टाइम मैं तो १० लेमनचूस {टाफी } ही मिल पाती थी
पॉँच पैसे भी उस ज़माने में बहुत मायना रखते थे २५ पैसे में तो हम पुरे मेले का मजा लेकर आए करते थे और स्कूल से चार किलोमीटर की पैदल यात्रा का रोमंच तो अभी तक नही भूले |
तब तक शायद इकन्नियाँ चल रही थीं और उस का मूल्य बहुत होता था। भूख में तो वैसे भी हर खाद्य पकवान ही लगता है।
यह पढ़ कर मुझे तो चन्द्रकान्ता सनतति के एक कथानक की याद हो आयी ! मुंह में पानी आ गया सो अलग !
5 paise me maine sabse jyada ek kulphi khai hai.. 🙂
आदरणीय शास्त्री जी,
आपका अनुभव पढ़ा, मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं लेकिन हम भी जब अपने बचपन में बाज़ार जाते थे तो दस पैसे का ढेर सारा गचक आता था जिसे मैं पूरा न खा पाता था और बच जाने पर उसे फैंक दिया करता था। और ट्माटर का स्वाद जो आपने बाताया वह बिल्कुल सत्य है।
ये बात सही टमाटर का स्वाद बदला है,लेकिन आज भी देसी टमाटर मिल जाते हैं।बस थोड़ा ढूंढना पड़ता है। हां दाम का मामला तो आस्मां छू रहा है।
बड़े शरीफ थे आप लोग। अन्यथा कथा बनती कि टमाटर के खेत से जम कर तोड़ खाये और किसान के आने से पहले भाग लिये!
“ईर, बीर, फत्ते और हम!”
@ज्ञान जी, आपने सरे आम पकड लिया! जिनना शरीफ मैं अपने को बताता रहता हूँ उतना शायद न था !! टमाटर कभी नहीं तोडे, लेकिन जो जामफल तोडे उसके बारे में लिख देंगे तो लोग क्या सोचेंगे. अत: इसे सिर्फ प्रतिटिप्पणी में प्रगट कर रहा हूँ
आपकी अतीत कथाएँ बड़ी रोचक हैं. सुनते रहिये , मन बहल जाता है. धन्यवाद.
sach paacnh paise ne aur tamatar ne jaan bachayi,achha laga lekh.
आज कल टमाटर में तो क्या किसी चीज़ (चीज़ से मेरा तात्पर्य खाध्यपदार्थ से है ) में स्वाद नहीं रहा ,पैदावार जरूर ज्यादा होने लगी किंतु स्वाद ख़त्म हो गया / टमाटर के साथ एक पॉँच पैसे के सिक्के की भी तस्वीर दिखा देते आजकल के बच्चों को /उन्हें भी तो पता चलता कि एक रूपये के बीसवें भाग से भी कोई बस्तु ख़रीदी जा सकती थी / किंतु एक बात जरूर है उस जमाने में पैसे भी तो कम ही होते थे /उस वक्त जो तनखा मिलती थी उसका पॉँच पैसा और आज जो तनखा मिलती है उस हिसाब से पॉँच पैसा निकल कर चीज़ (फिर चीज़ ) खरीदो तो लगभग उतनी ही आयेगी
शास्त्री जी एक बात तो आपने सिद्ध करदी की आपके परेंट्स भी मालदार थे ! जो आपको पाँच पैसे जेब खर्च में देते थे ! हमको बड़े रोने धोने के बाद एक पैसा डबली मिलता था ! और उस में गुड और मूंगफली दोनों खरीद कर खा लेते थे ! यही मेवा था उस समय का !
पैसा एक छोटा , जिसे पाला या छोटा पैसा यानि छ. पैसे का एक आना ! और दुसरे डबली या छेद वाला पैसा यानी ४ पैसे का एक आना होता था ! और ये ताम्बे के सिक्के हुआ करते थे !
हमारी दादीजी जो अपनी दीवार की अलमारी में अपना खजाना ( कुछ कागज़ के और चांदी के सिक्के और कुछ ये ताम्बे के सिक्के ) एक कटोरे में रखती थी ! हमारे से दो तीन क्लास सीनियर सहपाठी के कहने से उसमे से एक रुपये के नोट पर हाथ साफ़ कर दिया !
नोट लेजाकर हमारे सीनियर सहपाठी को देदिया ! यकीन कीजिये उस नोट को खुला करवाने में पसीना आगया ! किसी तरह चोरी छिपे पास के गाँव में दो पैसे की मूंगफली और बताशे लिए ! जो दोनों से खाए नही गए ! फ़िर उस दुकानदार ने साढे पन्द्रह आने खुल्ले दिए उनको कहां रखे ? बड़ी मुश्किल हुई ! किसी तरह गाँव के बाहर जमीन में उन बाक़ी पैसो को दबा कर घर आए !
कुल जमा उस खजाने को खोद खोद कर दो आने खर्च कर पाये की पुरे गाँव में ढिंढोरा पिट गया की ये रोज मूंगफली बताशे खाते हैं ! बस क्या था ? पकड़े गए !
घर लाकर हमारी माताजी ने खूब ठोका बजाया, क्योंकि पिताजी बाहर गए थे ! और आयन्दा चोरी करने की कसम खिलवायी गांधीजी की तरह !
बस वो आखिरी चोरी थी घर में ! सरकारी टेक्स वेक्स की चोरी तो चलती रहती है ! उसके लिए माताजी ने कसम नही दिलाई थी ! शायद गाँव की महिला थी उसको क्या मालूम था की उसका सपूत आगे जाकर इस लायक हो जायेगा की इसे सरकारी टेक्स की चोरी भी राजी या बेराजी करनी पड़ेगी ! नही तो वो उसकी भी कसम दिलवा चुकी होती तो क्या होता ?
वैसे बहुत सही याद दिलाया ! उस जमाने में नगद रुपया नही था ! हमारे गाँव में एक ताऊ थे जो कहा करते थे की नोट फुडवा ( खुल्ला) लिया की किस्मत फुड्वाली ! बहुत अच्छे किस्से याद दिलवाए जारहे हो आप तो ! लगता है सब कन्फेशन आप अपने ब्लॉग पर करवा लोगे हमसे तो ! 🙂
रामराम !
bahut accha lekh
आपने मेरे जन्म से 6 साल पहले की बात की है। उस समय ग्वालियर में सिटी बस चलती थीं ये सुनकर उतना ही अचरज हुआ जितना पहली बार दिल्ली के दरियागंज जाने पर ये जानकर हुआ था कि इस सड़क पर आज़ादी के समय नहर बहती थी, ग्वालियर के स्वर्णरेखा नालेनुमा नदी की तरह। वैसे 10 पैसे किलो के टमाटर मैंने भी खाये हैं। नई सड़क पर रहते थे हम लोग और सर्दियों के दिनों में पिताजी छत्री मंडी से थैला भरकर और साईकिल पर लादकर लाये थे कई किलो टमाटर। देसी थे लाल-लाल, खूब छककर खाये। उसके बाद जब मां ने ऑल इंडिया रेडियो की ऊर्दू सर्विस पर खवातीन के प्रोग्राम को सुनकर टमाटर की चटनी (सॉस या कैचप कहां बोल पाते थे तब)बनाने की विधि सीखी तो फिर मार्च में खूब टमाटर आते थे दो-तीन बोतल टमाटर की चटनी बनाने के लिये। मार्च में दरअसल जाती फसल होती थी और जिस दिन तेज धूप पड़ जाये टमाटर पर जाते थे और अगले दिन मंडी में दाम एकदम ज़मीं पर आ जाते थे। 25 पैसे किलो तो मैं भी लाया था एक बार लक्ष्मीगंज की मंडी से। ग्वालियर में गर्मियों में अब भी प्याऊ लगती हैं नगर निगम की भी और सामाजिक संस्थाओं की भी, जिनमें केव़ड़ा डाला हुआ पानी मिलता है। दिल्ली जैसे महानगरों में ये इंसानियत नहीं बची है।
वाह शास्त्रीजी, आपने तो हम सबका बचपन लौटा दिया । सुखद अतीत में गोते लगाने का आनन्द तो अवर्णनीय ही है ।
पाँच पैसे अब दिखने बंद हो गये है ,शायद सरकार ने वापस भी ले लिये हो…..अब तो दुकानदार भी २५ .५० पैसे नही लेता ..हमने अपने जमाने में १० ओर २० के सिक्के भी देखे थे ……..हालांकि हमें सिर्फ़ इतना याद है की हमारे वक़्त ८० पैसे की कंचे की बोतल आती थी …..
आदरणीय शास्त्री जी ,सादर प्रणाम
आज का दिन मेरे लिए यादगार रहेगा . आपका स्नेह और आशीर्वाद जो मुझे मिला है वह मेरे लिए बड़े पुरूस्कार से भी ज्यादा बड़ा है .आपकी राय जो मुझे माँ और दरवार पर मिली है उससे मुझे एक उद्देश्य मिला है कुछ सार्थक लेखन करने का .समय समय पर आपका मार्गदर्शन मेरा मार्ग प्रशस्त करेगा
आपने मेरे जन्म से 6 साल पहले की बात की है। उस समय ग्वालियर में सिटी बस चलती थीं ये सुनकर उतना ही अचरज हुआ जितना पहली बार दिल्ली के दरियागंज जाने पर ये जानकर हुआ था कि इस सड़क पर आज़ादी के समय नहर बहती थी, ग्वालियर के स्वर्णरेखा नालेनुमा नदी की तरह। वैसे 10 पैसे किलो के टमाटर मैंने भी खाये हैं। नई सड़क पर रहते थे हम लोग और सर्दियों के दिनों में पिताजी छत्री मंडी से थैला भरकर और साईकिल पर लादकर लाये थे कई किलो टमाटर। देसी थे लाल-लाल, खूब छककर खाये। उसके बाद जब मां ने ऑल इंडिया रेडियो की ऊर्दू सर्विस पर खवातीन के प्रोग्राम को सुनकर टमाटर की चटनी (सॉस या कैचप कहां बोल पाते थे तब)बनाने की विधि सीखी तो फिर मार्च में खूब टमाटर आते थे दो-तीन बोतल टमाटर की चटनी बनाने के लिये। मार्च में दरअसल जाती फसल होती थी और जिस दिन तेज धूप पड़ जाये अचानक ढेर सारे टमाटर पक जाते थे और अगले दिन मंडी में दाम एकदम ज़मीं पर आ जाते थे। 25 पैसे किलो तो मैं भी लाया था एक बार लक्ष्मीगंज की मंडी से तांगे में बैठकर। ग्वालियर में गर्मियों में अब भी प्याऊ लगती हैं नगर निगम की भी और सामाजिक संस्थाओं की भी, जिनमें केव़ड़ा डाला हुआ मीठा पानी मिलता है। हालांकि ग्वालियर के तिघरा और मोतीझील का पानी तो वैसे ही काफी मीठा है। मुझे तो आज तक दुनिया के किसी नल से इतना मीठा पानी पीने को मिला नहीं जितना ग्वालियर में नगर निगम के नलों से निकलता है।
Dr. Anurag ji, yahan chennai me abhi bhi 25 paise ka chalan hai.. log use saaman bhi kharidate hain.. 🙂
बड़ी पुरानी यादें दिला दीं आपने, आज आपकी पोस्ट को लेकर अपने बेटे को अपने बचपन की कई बाते सुनाते हुए वे दिन याद आ गए ! आपका आभारी हूँ शास्त्री जी !
बहुत उम्दा…
लगता है सब लोग आज कन्फेशन पर उतर आये है। शास्त्री जी लगता है कन्फ़ेशन पर आपको अलग से बलोग बनाना पङेगा