मेरे कल के आलेख अध्यापकों ने दिया धोखा ! में मैं ने अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना बताई थी जो मैं आज भी नहीं भूला हूँ.
घटना का सार यह है कि मेरे अध्यापकों ने जो कुछ मुझे सिखाया उसका पालन जब मैं ने किया तो
- उसके लिये मुझे सजा मिली
- उस विषय को अध्यापकों ने समझने की कोशिश नहीं की
- उनके सिखाये को मानने पर उसे उन्होंने इज्जत का सवाल बना लिया
मेरे आलेख की मूल दिशा को कई चिट्ठाकारों ने पहचाना जो इस तरह है:
- विद्यार्थी के लिये गुरू ईश्वर तुल्य है (कम से कम इस घटना में)
- अत: जो कुछ उसे सिखाया जाता है वह उसके पालन की कोशिश करता है
- लेकिन सिखाये का पालन करने पर भारी दंड मिला
अत: मेरे सवाल थे:
- अध्यापक यदि किसी नैतिक सिद्धांत का पालन करना सिखा रहे हैं तो सोचसमझ कर सिखाना चाहिये
- यदि आप अपने सिखाये को बाद में बुरा मानते हैं तो आप विद्यार्थी को क्या शिक्षा दे रहे हैं — यही न कि आप झूठे हैं.
इसकी पृष्ठभूमि जरा समझें:
- यदि विद्यार्थी अपने आप नैतिकता की समझ पा सकता तो उसे अध्यापक से पढने की जरूरत न होती
- यदि नैतिक पाठ पढाने के बात आप नैतिकता के पालन के लिये विद्यार्थी को सजा देते हैं तो वह एकदम यह सोचने लगता है कि कथनी अच्छी रखों, करनी मनमानी करो.
- सादा जीवन उच्च विचार के बदले वह चालाक चिंतन, घाटिया जीवन की नीति अपना लेगा.
जिन मित्रों ने इस घटना में अध्यापक की गलती, अहंकार एवं क्रूरता का अनुमोदन किया है उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि मैं ने इस घटना का मूल्यांकन एक "भुगते" हुए व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक मनौवैज्ञानिक परामर्शदाता के रूप में किया था जिससे अध्यापन पेशे के लोगों को मार्गदर्शन मिले.
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“जिन मित्रों ने इस घटना में अध्यापक की गलती, अहंकार एवं क्रूरता का अनुमोदन किया है उन्होंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया.”
हम सुगति छोड़ क्यों कुगति विचारें जन की
नीचे ऊपर सर्वत्र तुल्य गति मन की .
समर्थ गुरु रामदास के पास एक महिला आई और विनती की मेरा पुत्र गुड बहुत खाता है .इससे पुत्र को बचाए . गुरु जी ने कहा १५ दिन बाद आना . बाद मे महिला आई और गुरु जी ने उसके पुत्र को आश्रम मे रोक लिया महिला ने पूछा गुरु जी आपने उस दिन ही इसे क्यों नहीं रखा . तब गुरूजी ने कहा माँ उस दिन तक मैं भी बहुत गुड खाता था , पहले मैंने खाना कम किया इसलिए आपको १५ दिन बाद बुलाया | ऐसे गुरु हो तो बालक वीर शिवा बनता है .
इसी को तो कहते है कथनी और करनी का अंतर! इस पर रामकृष्ण परमहंस की वो कथा याद आई जिसमें उन्होंने बच्चे को मीठा खाने को मना करने की सीख उस समय तक नहीं दी थी जब तक वे खुद मीठा खाना नहीं छोड पाये।
1. कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन का साथ दिया और कौरवों को भी मनोवांछित सहायता दी. जबकि उनके बड़े भाई बलराम ने कहा कि घर की लड़ाई में मैं किसी का साथ नहीं दूँगा. तो क्या वे भगोडे थे !!
मुझे तो कृष्ण की सोच भी सही लगी और बलराम की भी क्योंकि दोनों के ही निर्णय तर्कसंगत थे.
2. अर्जुन के सगे मामा शल्य युद्ध में युधिष्ठिर के विरुद्ध खड़े थे. युधिष्ठिर ने पहले प्रणाम किया और युद्ध की अनुमति मांगी फ़िर युद्ध किया. सगे मामा युधिष्ठिर के विरुद्ध !!
3. पिता ने कहा कि जाकर माँ का सर काट लाओ- एक ने कहा कि नहीं, मैं मेरी जननी का सर नहीं काटूँगा. दूसरा गया और माँ कसीर काट लाया और पिता की आज्ञा का पालन किया. फ़िर पिता ने तपोबल से माँ को जीवित किया.
हैप्पी एंडिंग से मैं तो खुश हो गया पर सही कौन सा पुत्र था. जो माता से स्नेह करता था या जो पिता का आज्ञाकरी था !!
4. राम ने पत्नी का त्याग किया किया, सही किया या ग़लत !! राजा की नज़र में सही था पर पत्नी की नज़र में ग़लत.
शास्त्री जी, यह जीवन की विसंगतियां ही हैं.
इनसे माथा-पच्ची करके किसी को कुछ भी हासिल नहीं होता.
जब जीवन में दो मूल्यों में से किसी एक को चुनना पड़े (जबकि दोनों ही सही हों) तो आप किसी एक को चुनकर आगे बढ़ जाने वाले को ग़लत नहीं कह सकते. दोनों ही सही होते हैं और यही भाग्य की विडंबना कहलाती है.
आप सही हैं, मैं आपके विरुद्ध नहीं हूँ पर मेरी सोच दंड के पालन को आज्ञाकारिता मानती है.
फ़िर साथ ही उन अध्यापक को एक कमज़ोर अध्यापक मानते हुए मैं कहूँगा कि उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए था.
मेरे साथ भी वही बीता जिसका परिणाम यह हुआ कि
” गुरुर्ब्रह्मा ग्रुर्विष्णु गुरुदेवो महेश्वरः ” वाली सोच को आघात पहुँचा था पर यही वास्तविकता है कि हम एक इंसान को भगवान् बनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह इंसान है और उसकी कुछ सीमायें हैं, वह भगवान् की बराबरी नहीं कर सकता.
मैं विनम्रतापूर्वक कुछ सवाल करना चाहूँगा आपसे —
1. यदि आपके विरोध पर वह गुरूजी आपको दंड न देते तो क्या और लड़के न उठ खड़े होते आपके साथ ?
2. यदि उठ खड़े हो जाते तो आप सभी की आड़ लेकर, जो दंड के असली हकदार थे, वे नहीं खड़े होते ?
3. यानी कि गुरु जी फ़िर किसी को भी दंड न दे पाते और परिणामस्वरूप स्कूल प्रशासन शिथिल पड़ने लगता. है या नहीं ?
4. तो छात्रों को दण्डित करना सही हुआ या स्कूल प्रशासन को शिथिल करना ?
5. चलिए मैं आपको उनकी जगह पर खड़ा करता हूँ, अब आप बताइये कि आप क्या करते वह वीरता जगाने वाली कहानी नहीं सुनाते या दुष्ट छात्रों को संदेह का लाभ देकर छोड़ देते ?
अतः उन्हें क्षमा करते हुए आप यह घटना भूल जाएँ. इस घटना से हुए लाभ भी तो देखिये — (आपके शब्द –>) मैं ने अपने अध्यापक जीवन में मुक्त-चर्चा का सिद्धांत लागू कर दिया: मैं ने जहां जहां अध्यापन किया वहां विद्यार्थीयों को इस बात की आजादी दी कि यदि मेरे कथनी एवं करनी में विरोधाभास हो तो वे खुल कर मुझे बतायें.
ई-गुरू की बात बहुत अच्छी लगी।
इसीलिए सच्चे गुरू दुर्लभ होते जा रहे हैं। अच्छी व ज्ञानबर्द्धक पोस्ट।
आदर्णीय शास्त्रीजी।
हर व्यक्ति के जिवन मे नैतिकता होनी ही चाहिऐ। चाहे गुरु हो या शिष्य। आपने गलती नही कि हो पर उसका द्ण्ड आपको मिले तब यह प्रशन उठता है कि सजा अनैतिक थी या नही ? नैनिकता का पाठ पढानेवाला जो सजा देनेवाला बन जाता है ओर वो भी गुरु द्वारा तब आपका यह सवाल कितना जायज है? इसका विशलेषण करना जरुरी बन जाता है।
शास्त्रीजी यह बात तो अपने घर से शुरु होनी चाहिये। कभी कभी मा बाप द्वारा भी यह सजा निर्धारित हो जाती है चाहे अज्ञात या ज्ञात पर बच्चो को सुधारने के लिये कभी कभी नैतिकता कि बली चढानी पडती है। सजा के भाव को ध्यान मे रखे तो गुरुजनो एवम माता पिता कि फटकार आपके सवालो के परे रहनी चाहिये। क्यो कि इस सजा/फटकार मे भी नैनिकता के भाव छुपे हुऐ है। आप सजा के मुल उदेश्य को अलग करके ना देखे॥ कुछ लोगो कि उडदण्डता मे आप दोषी नही है और सामुहिक सजा मे आप भी पात्र बने तो इसे भी नैनिकता का पाठ ही माना जाये। सजा मे उदेशय को समाहित करे तब आपको शायद अनैतिकता नही लगे।
वैसे आचार्य श्री तुलसी ने गुरुओ के लिये एक बात कही थी=
“निज पर शासन फिर अनुशासन॥
उन्होने एक गीत के माध्यम से भी मानव से कहा था=
“सुधरे व्यक्ति,समाज व्यक्तिसे, राष्ट्र स्वय सुधरेगा।
नैतिकता कि सूर सरिता मे,
जन गन मन पावन हो।
सयममय जिवन हो।
मै आपको गुरु मानता हु मेरी भलाई के लिये आप द्वारा प्रदत दन्ड मै प्रसाद स्वरुप ग्रहण करुगा। आपका उपाल्हम नैनिकता का पाठ है मै उसे सहज ग्रहण करके नैतिकवान बनु ऐसा प्रयास रहेगा मेरा।
मै क्षमा चाहता हु आपसे, जो आपसे सिखा आदर पुर्वक मेरी भावनाओ कि अभिव्यक्ति आपके श्री चरणो मे।
खुद को पहले सुधरना होगा तभी हम दुसरों को सुधार सकते है । चाहे वह गुरू हो या अभीभावक हो ।
हें! हें!! हें!!!
चलिये अब तो समझ गये हम
गुरुदेव को नमन।
क्या प्रस्तुत लेख एक सामायिक चिन्तन से युक्त उदेश्य पुर्ण लगा ? हमारा भी विकृतियो से दम घुटता है। ओर वही लेखक जिसके हृदय मे आदमी आदमी के लिये प्यार है:॰ छटपटाने लगता है। मैने शास्त्रीजी के जब बिखरे हुए के तीनो विचारो को देखा तो ऐसा लगा कि एक ऐसा साहित्यकार जिसकी प्रेरणाये समाज व राष्ट्र को कुच्छ दे सकती है। कोयले की खान मे कोहनुर हीरे कि तरह छीपा है। शायद शास्त्री जी ने उपरोक्त लेखो मे दर्द छिपा रखा है। ओर मुझे उनके इस दर्द से मोहब्बत है।
अध्यापक ने दिया धोका-
लिखा किया समझा किया? –
अध्यापक या जल्लाद ?
पहले मे आपक्र द्वारा अध्यापको को नैनिकता की पाठ पढाने की कोशिस हुई।
दुसरे मे आपने आध्यापको के प्रति नैतिक बने रहने कि दुहाई देने लगे।
और आज स्वम नैतिकता का झोला पहन गुरुदेव चल पडे शिक्षको कि वाट लगाने।
लोग कन्फीयुज confuse हो गये आपके अलग अलग statment से। पाठक पहले दिन कि टीपणी मे शिक्षक को बुरा कहते है, दुसरे दिन कि टिपणी मे अपने आपको बचाते हुऐ शिक्षको के पक्ष मे बोलते है और वो ही पाठक अपने आप को आज टिपणी के लायक नही समझ पा रहा है। क्यो कि शास्त्री जी ने जो शतरज बिछाया उस पिझडे मे बडे बडे टिपियाकार तडफते नजर आ रहे है।
क्यो कि बेचारे टिप्णीकारो मे भी तो नैतिकता बाकी है की, एक ही सवाल पर तिन अलग अलग जवाब कैसे दे ?
आज क्या टिपियाते है?
E-Guru Rajeev -“शास्त्रीजी आप निर्विवाद रूप से हमारे नेता हैं.”
ranjan-“शायद इसलिए कहते है..”think twice b 4 you act”..
ताऊ रामपुरिया-“बहुत दुखद !शायद आपके आने वाले लेखों मे इस बारे मे भी कुछ विशलेषण मिलेगा !
Prashant (PD-E-guru se sahmati..
मानोशी-” इस ३०० लेखों मॆं positive भी ज़रूर मिला होगा आपको लिखने को मुझे आशा है।
बाकी पडे ३०० लेखो के लिये क्या ? आपके विचारो कि happy endig हो ऐसी मे उम्मीद करता हू। happy endig नही तो समझो कि अभी फिल्म बाकी है;
क्षमा गुरुदेव। क्या करु आखिर शिष्य आपका ही हु।
E-Guru Rajeev की बात से पुरी सहमति है मेरी!!!!
प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
मैं क्षमा प्राथी हूं पर आपकी बात ठीक नहीं है। लोगों ने वही समझा जो आपने लिखा। इसको ऐसे भी देखिये क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपनी बात ठीक से नहीं रख पाये।
मैं आपके आचरण के बारे में कुछ नहीं कहता क्योंकि आपके आचरण के बारे में कुछ भी कहना अनुचित होगा।
मेरे विचार से गुरू के आचरण में गलती नहीं थी। लेकिन यदि सावरकर वाली घटना सच है तो उनका आचरण गलत था। मैंने जितना उनके बारे में पढ़ा है उससे मुझे नहीं लगता कि यह घटना सही है। वे अवश्य उस लड़के नाम बताते जिसने वह गलती की थी।