कल ज्ञान जी ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा था जिसका जवाब मैं ने ज्ञानदत्त जी का प्रश्न 001 में आंशिक रूप से दिया था. आप लोग जो सोचते हैं उसकी तुलना में ज्ञान जी का प्रश्न बहुत बुद्धिमता एवं "ज्ञान" से भरा है. उदाहरण के लिये उन्होंने "इनीशियल एडवाण्टेज" का नाम लिया, लेकिन उसे परिभाषित नहीं किया क्योंकि अलग अलग लोगों के लिये "इनीशियल एडवाण्टेज" अलग अलग होते हैं.
नरेश सिंह ने इस बात को कुछ और स्पष्ट किया: "वक्त के साथ साथ इनीशियल एडवांटेज की परिभाषा भी तो बदल रही है । मोबाइल, बाइक,महगीं जींस ये सब आज कि इनीशियल एडवांटेज हो गये है ।"
इसी कारण, मेरा अनुमान है, कि ज्ञान जी ने इनीशियल एडवाण्टेज का नाम लिया, लेकिन इसे परिभाषित नहीं किया. न ही उन्होंने "अंग्रेजी भाषा" जैसी एक या दो बातों में इसे बांधने की कोशिश की. इसी व्याप्ति के कारण उनके प्रश्न को मैं ने इतना महत्व दिया.
जैसा मैं ने इस संदर्भ में याद दिलाया, 1950 और 60 की पीढियों में से अधिकतर लोगों को इनीशियल एडवाण्टेज नहीं मिल पाया. ताज्जुब है कि इनीशियल एडवाण्टेज न मिलने के बावजूद ज्ञान जी, ताऊ जी, एवं मुझे अपने अपने क्षेत्र में बढने सो कोई न रोक सका. हम से उमर में कुछ कम दिनेश जी एवं अन्य कई प्रिय चिट्ठाकारों को इस कमी ने आगे बढने से न रोका. इन में से कोई भी सडक छाप नहीं है बल्कि अपने अपने पेशे में उन्नत स्थानों पर हैं. क्यों ? शायद इसका एक उत्तर इस तरह से दिया जा सकता है:
तितली की इल्ली शंखी बन कर पेड के एक डाल पर कुछ दिन टिकी रहती है. एक दिन अचानक उसके बाहर निकलने का समय आता है तो कसमसाहट शुरू होती है. हलचल के आरंभ होने से लेकर उस आवरण से बाहर निकलने तक का सारा समय छटपटाहट में बीतता है. उसे बाहर निकलने के लिये कुछ एड्वाण्टेज चाहिये लेकिन शंखी से निकलने में कोई उसकी मदद नहीं करता. उसे कठोर संघर्ष करना पडता है. संघर्ष के अंत में वह अपने कडे खोल से निकल कर कुछ क्षण अपने पंखों को सुखाती है और फिर ऐसे आत्मविश्वास के साथ उड जाती है जैसे कि वह हमेशा यहीं रही हो.
अब इसका विपरीत जरा देखें. आज से कुछ साल पहले एक वैज्ञानिक प्रयोग में दस बीस तितलियों के शंखी से निकलने के समय शंखी को काट कर उनको आजाद कर दिया गया. किसी भी तितली को संसार में पैर रखने के लिये संघर्ष न करना पडा. लेकिन आश्चर्य, उन में से हर तितली बाहर निकली, पंख फैलाने की कोशिश की, शराबी के समान नियंत्रण खो दिया, और जमीन पर गिर गई. उसको सब कुछ मिला जो उसे संसार में लाने के लिये पर्याप्त था, लेकिन प्राथमिक स्तर पर संघर्ष नहीं मिलने के कारण वह संसार में जीने की ताकत न पाई. शायद यही है ज्ञान जी प्रश्न का एक उत्तर.
मैं इस बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ कि जिन लोगों को इनिशियल एडवाण्टेज नहीं मिला उनके मन में हमेशा एक कसक रहती है कि काश वह मिल गया होता तो मैं शायद और भी ऊंचा पहुंच गया होता, और भी बहुत कुछ समाज को दे सकता. मेरे मन में यह कसक हमेशा रहती है. लेकिन शायद इनिशियल एडवाण्टेज न मिलने के कारण जो संघर्ष करना पडा उसने हम सब को एक सुंदर तितली के समान एक बेहतर व्यक्ति बना दिया है. यह है विधि का विधान!!
यदि आपको टिप्पणी पट न दिखे तो आलेख के शीर्षक पर क्लिक करें, लेख के नीचे टिप्पणी-पट दिख जायगा!!
Article Bank | Net Income | About India । Indian Coins | Physics Made Simple
सही है, इनीशियल एडवांटेज़ की बातें एक सुविधाजनक सोच हैं !
दृढ़ इच्छा-शक्ति के सम्मुख यह गौण हो जाता है !
सही है लोहे को भी तलवार बनने के लिए आग में तपना पङता है।
सुंदर समापन. आभार.
“इनिशियल एडवाण्टेज नहीं मिला उनके मन में हमेशा एक कसक रहती है कि काश वह मिल गया होता तो मैं शायद और भी ऊंचा पहुंच गया होता,”
ये तो हम जिनको मानते है कि उनको मिला है पर आप उनसे तो जरा पूछ कर देखिये ! क्या वो सन्तुष्ट हैं भी ? मेरे एक परिचित का बेटा है , उसने यहां के इन्जिनिरिन्ग कालेज से पास किया है और उसका मित्र MS करने अमेरिका चला गया ! अब परिचित के बेटे कि हसरते ही रह गई कि काश वो भी MS अमेरिका जाकर कर पाता !
मेरे हिसाब से सन्तुष्टि का कोई स्तर तो होगा ! आज परिचित का बेटा शानदार नौकरी मे है पर उसकी पीडा यथावत है !
शायद आसमान का कोई अन्त नही होता !
राम राम !
सही कहा आपने। अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा होता, तो ऐसा हो जाता, वैसा होता, तो फिर क्या होता। पर होता वही है, जो होना होताह है।
सही कहा आपने। अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा होता, तो ऐसा हो जाता, वैसा होता, तो फिर क्या होता। पर होता वही है, जो होना होता है। हमारे सोचने से कुछ भी नहीं होता।
शायद इनिशियल एडवाण्टेज न मिलने के कारण जो संघर्ष करना पडा उसने हम सब को एक सुंदर तितली के समान एक बेहतर व्यक्ति बना दिया है. यह है विधि का विधान!!
———-
आप शायद सही हैं। या शायद प्रारम्भिक स्पीड अगर होती तो दौड़ बेहतर दौड़ पाते! खैर!
‘हिम्मत हौसला और लक्ष्य को पाने का जूनून भी इसमे अपनी अहम भूमिका निभाता है , यहाँ आपकी इस बात से मै सहमत हूँ इनीशियल एडवाण्टेज न मिलने के बावजूद ज्ञान जी, ताऊ जी, एवं मुझे अपने अपने क्षेत्र में बढने सो कोई न रोक सका.”
सहमत हूँ आपसे
आप ने सही कहा। हम शायद कुछ प्रारंभिक सुविधाओं के चलते कुछ क्षेत्रों में कमजोर रह गए।
यह एक ऐसी बात है जो थोङे से शब्दो मे बयां करना मुश्किल है । महत्वकाक्षां का कोइ अन्त नही है,लेकिन इसके बिना सृष्टी(दुनिया) चल भी तो नही सकती है । केवल रोटी कपङा मकान ही सब कुछ नही होता है ।इनिशियल एडवाण्टेज कि कसक सबके मन मे रहती है लेकिन दिन रात इसकी चिन्ता मे घुलना भी बेवकूफ़ी है। पहले अवसर ज्यादा थे आज प्रतिस्पर्धा ज्यादा है । मुझे जिन्दगी का व्यवहारिक अनुभव कम है । इस लिये ज्यादा कुछ नही कहुगां।
यह मामला आनुवंशिकी बनाम वातावरण का ही है -कुछ लोग भुइंफोर होते है उन्हें कितना ही विपरीत वातावरण क्यों न मिले कुछ बन कर दिखा ही देते हैं और कुछ लोग तमाम सुविधाओं के बावजूद रह जाते हैं -यह जीन का कमाल है !
कुछ लोग भुइंफोर होते है उन्हें कितना ही विपरीत वातावरण क्यों न मिले कुछ बन कर दिखा ही देते हैं.
वाह क्या बात है. 🙂
Yes, The Butterfly comes out after the process of metamorphosis.
But human heart has this strange qualty called, “”repining restlessness” …which can only be quenched after Nirvan …
बिलकुल सही व्याख्या है यह। अरविन्द जी ने अनुवांशिकता और वातावरण के दो तत्वों का मिश्रण करके बात और स्पष्ट कर दी। यदि हमारे भीतर काबिलियत है तो कोई न कोई रास्ता बना ही लेंगे। लेकिन सुविधाओं के अभाव में अच्छी प्रतिभा भी दब कर रह जाती है। यदि दोनो का उचित मेल हो जाय तो ‘नेहरू’ बनते हैं, प्रतिभा हो और सुविधा नहीं तो ‘लाल बहादुर शास्त्री’ बन कर रह जाना पड़ता है। और केवल सुविधा हो प्रतिभा कम हो तो राहुल गान्धी …
“हम सब को एक सुंदर तितली के समान एक बेहतर व्यक्ति बना दिया है. यह है विधि का विधान!!”
*****EXCELLENT
http://ombhiksu-ctup.blogspot.com/
अक्सर हम सोचते हैं कि ऐसा होता, तो ऐसा हो जाता, वैसा होता!!!!
#
@Arvind Mishra—->यह मामला आनुवंशिकी बनाम वातावरण का ही है -कुछ लोग भुइंफोर होते है उन्हें कितना ही विपरीत वातावरण क्यों न मिले कुछ बन कर दिखा ही देते हैं और कुछ लोग तमाम सुविधाओं के बावजूद रह जाते हैं -यह जीन का कमाल है !
आदरणीय शास्त्री जी,
आपकी लेखनी का तो कायल हूं ही लेकिन आप दूसररों को प्रोत्साहित करने में जो लग्न दिखाते हैं वह भी काबिले दाद है।