दो शताब्दियों तक अनगिनित शहीदों का खून बहाने के बाद हिन्दुस्तान को आजादी हासिल हुई थी. लेकिन जब 1947 में देश आजाद हुआ तो इस देश की आर्थिक व्यवस्था एवं धन को ब्रिटिश लुटेरा साम्राज्य हर तरह से लूट चुका था.
गांधी बाबा ने तो अपनी इच्छा से एक धोती में जिंदगी बिताई थी, लेकिन इन लुटेरों ने जाने से पहले देश के 99 प्रतिशत लोगों को उस हालत में पहुंचा दिया था कि खानाकपडा मुश्किल था. कैसी विडम्बना थी कि उन साम्राज्यवादियों के आर्थिक मंसूबों के कारण एक समय हम हिन्दुस्तानी सागर के पानी को सुखा कर मट्टी के मोल बिकने वाला नमक तक नहीं बना सकते थे.
फल यह हुआ कि 1950 और 60 की पीढियों को कभी भी वह नहीं मिल पाया जो उनको मिलना चाहिये था. यह सच है कि इस कमीघटी के बावजूद उस पीढी ने ऐसी नीव डाली कि आज उनके बच्चे ब्रिटिश ही नहीं सारे पश्चिमी देशों की मलाई बटोर रहे हैं. लेकिन इस काम को अंजाम देने के लिये 1950 एवं 60 आदि की पीढियों ने जो कुछ किया उसे बार बार याद दिलाना जरूरी है.
मैं अपनी कहानी से चालू करता हूँ. पैदायिश से ही कुशाग्र बुद्धि था और जब मैं 3 साल का था तब की घटनायें एक चित्र के समान याद है. वर्णमाला सिखाने में किसी को कोई परेशानी न हुई. बस पापा एक स्लेट पर लिख कर दे देते थे और मैं अपने आप लिख लिख कर सीख और याद कर लेता था. पहली में जाने से पहले (तब एलकेजी और यूकेजी नहीं होते थे) ही एक से सौ तक सीधी और उल्टी गिनती सीख ली थी.
दूसरी में पहुंचा तो चौथी की किताबें और आठवीं में पहुंचा तो सीनियर लोगों की ग्यारहवी की विज्ञान की पाठ्य पुस्तकों को ऐसे पढता था जैसे कि कोई उपन्यास का मजा ले रहा हूँ. किताबों के प्रति मोह ऐसा था जैसा सोने के प्रति मिडास राजा का था. (इस मोह को एक चौथाई झाड दिया मेरी पत्नी ने, विवाह के पहले 25 सालों में. बाकी झाडना उनके वश की बात नहीं थी अत: उन्होंने हार मान ली है). लेकिन कहानी में जरा आगे निकल गये. पुन: दूसरी में पहुंचते हैं.
दूसरी कक्षा से किताबों और कहानियों का चस्का लगा, लेकिन तब सिर्फ कुबरे के बच्चे ही किताबें खरीद सकते थे — पर वे नहीं खरीदते थे. विद्यालय में पुस्तकालय जैसी कोई चीज नहीं थी. यदा कदा कोई साथी कोई पाठ्येतर किताब ले आता था तो उसके पैर पड कर मैं उसे एक दिन के लिये ले लेता था और अगली सुबह लौटा देता था.
चौथी में आते आते किताबों के लिये मन बुरी तरह से कसमसाने लगा था, लेकिन उस समय एक किलो चावल 50 पैसे का था तो इंद्रजाल कामिक 70 पैसे का आता था. जिस समाज में पेट भर खाना मिल जाना बडी बात थी वहा डेढ किलो चावल की कीमत में सिर्फ एक बार पढने के लिये उपयुक्त कॉमिक कौन खरीद कर देता. लेकिन इस कसमसाहट के कारण पढने के लिये एक नया रास्ता निकाल लिया.
प्लास्टिक का थैला तो सिर्फ रेडीमेड कपडे खरीदने पर दिखता था, बाकी सब कुछ कागज में पैक होता था. शक्कर, चावाल आदि अच्छे मोटे कागज से बने लिफाफों में पंसारी देता था. उन दिनों हिन्दुस्तान एवं धर्मयुग नामक दो स्तरीय पत्रिकायें थी जिनको रद्दी में खरीद कर कागज के बडे मजबूत लिफाफे बनाये जाते थे. जिस दिन घर में पंसारी के यहां से माल आता था, उस दिन मां से कह कर लिफाफों को बिन फटे हथिया लेता था. फिर पानी लगा कर, लेई गीली करके, उनको खोल कर सुखा लिया जाता था. इस तरह फ्री-फंड में पढने के लिये कुछ सामग्री मिल जाती थी.
लेकिन मेरा जो बौद्धिक-मानसिक स्तर था उसके लिये यह बौद्धिक खुराक पर्याप्त नहीं थी. इस बीच अंग्रेजी की कुछ किताबें इधर उधर लोगों के पास दिखने लगी थीं लेकिन हिन्दी माध्यम के पढे मेरे लिये अंग्रेजी किताब का काला अक्षर हाथी बराबर था. हां रिश्ते में दोचार लोग ऐसी नौकरियों में लग गये थे जहां हिन्दी पुस्तकों का अथाह संग्रह था. ये लोग चाहते तो बडे आराम से प्रति दिन दस हिन्दी किताबें लाकर मुझे दे सकते थे. लेकिन दैनिक अनुनयविनय के बावजूद उन में से किसी ने भी एक भी किताब लाकर नहीं दी. वे हर बार पूछते थे, तू क्या करेगा किताबें पढ कर.
वे नहीं समझ पाये कि यदि उस समय नियमित रूप से किताबे दे कर यदि वे मेरे बौद्धिक विकास में मदद करते तो मैं बौद्धिक विकास में आसामान छू सकता था. इस बात की कसक आज भी मेरे दिल में है जिसे कोई नहीं मिटा सकता!
क्रमश:
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रोचक है संस्मरण !
सोना आग मे तप कर ही निखर पाता है . सीमित साधन शायद आगे बड़ने की प्रेरणा देते है .
सीमित साधन शायद आगे बड़ने की प्रेरणा देते है!!!!
रोचक संस्मरण !!!!!
कमाल है ग्वालियर में रहते हुए आप ने कोई पुस्तकालय क्यों नहीं तलाश लिया?
आपका किस्सा अच्छा लग रहा है.. ऐसा लग रहा है जैसे अपने पापाजी का ही किस्सा किसी और के मुंह से सुन रहा हूं, बस थोड़ी हेर-फेर के साथ..
यदि उस समय नियमित रूप से किताबे दे कर यदि वे मेरे बौद्धिक विकास में मदद करते तो मैं बौद्धिक विकास में आसामान छू सकता था. इस बात की कसक आज भी मेरे दिल में है जिसे कोई नहीं मिटा सकता
” आपकी बचपन की किताब को पढना अच्छा और रोचक लगा, आख़िर की पंक्तिया जरुर कुछ मन को दुखी कर गयी, आप जैसे न जाने कितने लोग होंगे जो इस स्तिथि से गुजरे होंगे और यही कसक आज भी…..”
Regards
“
आप सब हम उम्रों की कहानी दोहरा रहे हैं !
@माननिय द्विवेदी जी , चोथी क्लास की कहानी चल रही है उसमे इतने छोटे बच्चे को लाईब्रेरी मे बिना पेरेन्ट्स के कौन घुसने देगा ? और पेरेन्ट्स को उस जमाने मे बच्चॊ के प्रति ये लाड प्यार नही हुआ करता था ! वो अपने कार्य क्षेत्र मे व्यस्त रहते थे !
और प्राईमरी ( ५ वीं ) के बाद हाई स्कूल मे तो स्कूल मे भी अच्छी लाईब्रेरी थी ! हमारी भी पढने की भूख ६ ठी कक्षा यानि हाईस्कूळ मे जाने के बाद ही शांत हूइ !
बहुत अच्छे सन्स्मरण चल रहे हैं ! चलने दिजिये !
राम राम !
शास्त्री जी , कभी कभी साधनों की कमी के कारण अधिक मेहनत करने की प्रवृत्ति बनती है , जो साधनों के बीच रहने वालों में नहीं होती।
बौद्धिक विकास में आजका कद वैसे भी आसमान को छूता है। पर कसक तो कसक ही हो, उसका क्या किया जा सकता है।
क्या जमाना था। नेस्केफे का डिस्पोजेबल ग्लास पहली बार देखा था। कॉफी पीने के बाद धो कर महीना ड़ेढ़ महीना इस्तेमाल किया था!
आपका ये लेख पढकर पुरानी यादें ताजा हो आईं । मुझे भी बचपन में पढने का इतना शौक था कि सब्जी वाले लिफाफे भी फाडकर उनपर लिखे लेख नहीं छोडता था । 31 अक्तूबर 1984 को जब इंदिरा जी की हत्या हुई तो मैं दूसरी क्लास में पढता था । उस दिन यकीन नहीं हुआ कि देश के प्रधानमंत्री को भी कोई मार सकता है । बचपन में मैं ये समझता कि वो तो भगवान हैँ ना कि इंसान । उस से अगले दिन से लेकर आज तक अखबार मिस नहीं किया । किसी परिचित ने एक बार लाइब्रेरी का रास्ता क्या दिखाया एक ही साल में पूरी लाइब्रेरी पढ डाली । 15 साल की आयु तक आते आते कोई सरिता, मुक्ता , ग्रहशोभा, मेरी सहेली नहीं छोडी । चाचा चौधरी बिल्लु पिंकी और नागराज की कामिक्स की तो ऐसी रेल बनाई कि बता नहीं सकता । एक ही रात में 35 कामिक्स और वो भी लेट कर ……येही रुटीन हर रात……आज भी उसे भुगत रहा हूँ। चश्मे का नंबर -8 है जो आज भी एक बहुत बडी समस्या है। खैर पढने का आज भी इतना शौक है कि हर रोज कम से काम 3 या 4 हिन्दी और 1 या 2 अंग्रेजी अखबार पढे बिना खाना ही हजम नहीं होता । किसी दिन समय ना मिले तो अगले दिन आनलाईन पढनी पडती है।
आपकी पंक्तिया मन को दुखी कर गयी, आप जैसे न जाने कितने लोग होंगे जो इस स्थिति से गुजरे होंगे. आप की पंक्तियों ने मुझे मेरे डैडी के जीवन के वो अभाव याद दिला दिये जिनके चलते डैडी क्रिकेटर नहीं बन पाए,जबकि इस क्षेत्र मे बहुत प्रतिभाशाली थे वो..उसकी कसक आज भी मेरे दिल में है.मगर अनगिनत त्याग करके अपनी बेटियों को हर सुविधा देने का जो अनोखा खेल उन्होने असल ज़िन्दगी में खेला, उस त्याग का मान रखने को प्रयासरत रहूँगी सारी उम्र… .
अभावग्रस्त आरंभिक जीवन व्यक्ति को अतिरिक्त परिश्रम के लिए वाध्य करता है. यही बात संगीता पुरि जी ने भी कही है. आजकल के बच्चे जो उस “इनिशियल अड्वॅंटेज” को लेकर बड़े हुए हैं, क्या ऐसे अपने सन्स्मरण लिख पाएँगे. इसलिए प्रसन्न रहें और देश को ……
सही बात कही है आपने,पर मेरे यहा एसी बात नही थी । क्यों कि मेरे गांव मे मेरे पैदा होने से पहले की स्थापित एक सार्वजनिक लाइब्रेरी थी । इसलिये कभी हिन्दी पुस्तको का अभाव नही हुआ । आपकी यादों मे झांक कर मजा आ रहा है।