कल कचरे से पीएचडी तक 001 आलेख में मैं ने किताबों के प्रति मेरे लगाव के बारे में बताया था. चौथी कक्षा में आते आते मैं आठवी कक्षा तक की विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें पढने लगा था, लेकिन इसके बावजूद पर्याप्त पुस्तकें नहीं मिल पाती थीं.
मेरी आदत पंसारी से आने वाले लिफाफों को, इधर उधर कचरे में फेंके गये पुस्तकों को एवं छपे पन्नों को पडने की हो गई. लेकिन फिर भी पढने को पर्याप्त सामग्री न मिलती थी. पांचवीं कक्षा में पढते समय पिताजी के प्रोत्साहन के कारण गर्मी की छुट्टियों में एक किताब की दुकान पर काम करने लगा. यह हर साल का नियम बन गया. महीने भर में पांच से दस रुपये मिल जाते थे.
इस पैसे को मेरी इच्छा के अनुसार खर्च करने की आजादी पिताजी ने दे रखी थी, लेकिन दो महीने की आय मुश्किल से चार से छ: किताबें खरीदने के लिये पर्याप्त होती थी. हां, इस तरह काम करने के कारण मैं बचपन में ही आत्मनिर्भर होने लगा.
आठवीं में मैं ने पहली बार एक वैज्ञानिक लेख लिखा जो "विज्ञान प्रगति" में छपने के लिये स्वीकृत भी हो गया. मुझे 11 रुपये का जो चेक मिला उससे मेरे एक परिचित इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत लाईब्रेरी मेरे लिये खोल दी. लेकिन मैं उसका उपयोग अगले 6 साल न कर सका क्योंकि अंग्रेजी नहीं जानता था. पढाई हिन्दी माध्यम से हुई थी.
जब मैं आठवीं में था तो पता चला कि शहर में एक सरकारी "सेंट्रल लाईब्रेरी" है जिसमें कम से कम 80,000 किताबों का संग्रह है. उनके हिन्दी का संग्रह बहुत अच्छा था. मैं उसी दिन उसके दफ्तर में चला गया. लेकिन 1960 आदि में सरकारी दफ्तर का छोटे से छोटा कर्मचारी भी अपने को लाट साहब का बाप समझता था, अत: उससे ऊपरे के लोगों का क्या कहना. दफ्तर के लोगों ने उस महीने के 25 से लेकर 30 तक हर दिन मुझे यह कहके टरकाया कि "आज तनखा मिलने वाली है, अत: कोई मेंबर नहीं बनाया जायगा". आखिर दो हफ्ते के चक्कर बाद कार्ड मिला तो नग्न सत्य पता चला कि आप लाईब्रेरी के अंदर नहीं जा सकते.
कार्ड केटलाग देख कर नंबर दें और यदि किताब हो तो दे दी जायगी. अकसर एक से दो घंटे इंतजार करने के बाद बता दिया जाता था कि किताब नहीं है. वहां कर्मचारियों एवं कुछ पाठकों की मिलीभगत थी जहां मेरे जैसे भुनगे कोई महत्व नहीं रखते थे. (दिनेश जी के प्रश्न का उत्तर दे दिया है !!). नवीं में विद्यालय में एक लाईब्रेरी खुली तो वे दो हफ्ते में एक ही दिन किताब देते थे. दो हफ्ते बाद किताब की बारी के दिन स्कूल बंद हो तो फिर दो हफ्ते इंतजार करना पडता था.
बीएस सी के लिये कालेज पहुंचे तो अथाह हिन्दी पुस्तकों का भंडार मिला लाईब्रेरी में. लेकिन सिर्फ एक परेशानी थी — हिन्दी पुस्तकें इशू नहीं की जाती थी. लाईब्रेरियन का कहना था कि हिन्दी पुस्तकें पढ कर बच्चे बिगड जायेंगे. असल कारण यह था कि वहां भी एक गेंग था जिनके लिये यह अथाह सागर रिजर्व था !! एम एस सी की तो वहां भी लाइब्रेरियन एवं नियमों का यही चक्कर था. पाठ्येत्तर पुस्तकों का बडा संग्रह था लेकिन वे इशू नहीं होते थे.
कुल मिलाकर कहा जाये तो जो मेरी मदद कर सकते थे, उन्होंने नहीं की. जिन्होंने मदद की उनके पास पुस्तकें नहीं थीं. जैसा मैं ने पिछले लेख कचरे से पीएचडी तक 001 में कहा था, इस बात की टीस हमेशा मेरे जीवन में रहेगी.
लेकिन जैसा सुब्रमनियन जी ने कहा: अभावग्रस्त आरंभिक जीवन व्यक्ति को अतिरिक्त परिश्रम के लिए वाध्य करता है. यही बात संगीता पुरि जी ने भी कही है. आजकल के बच्चे जो उस “इनिशियल अड्वॅंटेज” को लेकर बड़े हुए हैं, क्या ऐसे अपने सन्स्मरण लिख पाएँगे. इसलिए प्रसन्न रहें और देश को …… पा.ना. सुब्रमणियन
जो अभाव मैं ने देखे, उनकी टीस हमेशा जिंदगी में रहेगी, लेकिन उन अभावों के बावजूद मै एक से अधिक क्षेत्रों में आसमान छू सका. अपनी पहली पीएच डी के दौरान अचानक एक नया रास्त खुला और फिर तो किताबों की बरसात होने लगी. लेकिन यह मेरी अपनी मेहनत थी, किसी की मदद नहीं. 1994 में मेरी व्यक्तिगत लाईब्रेरी बढ कर 30,000 पुस्तकों से अधिक हो गई. (यह कैसे हुआ, यह बाद में कभी बताऊंगा). उस साल पत्नीबच्चों की अनुमति से (क्योंकि वे सब एक से एक पुस्तकप्रेमी हैं), इन में से 20,000 पुस्तकें दो संस्थाओं को एवं लगभग 8000 पुस्तकें अपने परिवार और मित्रों में बांट दीं. अब 2000 के करीब होगे, और यदि कोई मांगता है तो हो सके तो उदारता से दे देता हूँ.
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आपका सफर प्रेरणादायी रहेगा उनके लिए जो इसलिए सुबिधा के आभाव मे ह्तौत्साहित हो जाते हैं
मैं आपकी निरन्तर पढ़ने की जिजीविषा एवं दृढ़ निश्चय को प्रणाम करता हूं.
“1994 में मेरी व्यक्तिगत लाईब्रेरी बढ कर 30,000 पुस्तकों से अधिक हो गई.”
मैं हतप्रभ हूं. सबसे बड़ी बात २८००० पुस्तकों को बांट देना है.
इतनी पुस्तकें !चलिए लायिब्रेरिओं ने आपको इतना रुलाया तो यह तो होना ही था !
मुझे भी पुस्तकों से प्रेम है और बहुत अच्छी पुस्तकों का संग्रह है पर ३०,००० का नहीं।
हम पर ईश्वर की कृपा थी। मैंने अपने जीवन का कोई भी लहमा आभाव में नहीं बिताया। मां की तरफ से हमें कोई भी पुस्तक कभी भी, चाहे उसका कितना ही दाम क्यों न हो, खरीदने की छूट थी।
मैं लोगों को पुस्तक देने पर भी विश्वास करता हूं। मैंने सैकड़ों नयी पुस्तके मित्रों को भेंट में दी है इसमें मैंने कभी कंजूसी नहीं की। इन मित्रों में कुछ हिन्दी चिट्ठकारी से मिले मित्र भी हैं।
मैं लोगो को अपनी पुस्तकें पढ़ने के लिये देने मैं विश्वास करता हूं और हमेशा देता हूं पर उन्हें वापस भी चाहता हूं क्योकि उसमें बहुत सी आउट ऑफ प्रिन्ट हो चुकी हैं और मैं चाहता हूं कि वे मेरे पास रहें क्योंकि जितनी सुरक्षा से मैं उसे रख सकता हूं उतना कोई पुस्तकालय भी नहीं। अक्सर लोग उनका मूल्य ही नही समझ पाते।
पुस्तकें बांटने और संस्थाओं को देने वाली बात समझ आती है। मेरे एक मित्र के पास इतनी ही पुस्तकों का संग्रह था। खूब लोग पढ़ते थे। उन के देहान्त के उपरांत पूरे पुस्तकालय को क्या हुआ पता ही नहीं लगा।
आपका लेख प्रेरणादायी है । जब मै सुरत मे नोकरी के लिये रहता था तो वहा एक बाजार लगता था । रवीवार के दिन जब सामान्य बाजार बन्द रहता था तो उनकी बन्द दुकान के सामने कुछ रद्दी वाले पुरानी पत्रिकाए,पुस्तके बेचा करते थे ।मैने वहा से अनगिनत पुस्तके बहुत कम पैसो मे खरीद कर पढी है । बाद मे उनको बांट दिया ।
शास्त्री जी, बढ़िया प्रेरणादायी लेख.
मुझे भी पुस्तकों से बहुत प्रेम है। कहीं से मुझे पढने में आ गया था कि पुस्तकें सबसे अच्छी मित्र हैं। बस इसी वाक्य का प्रभाव मुझे पुस्तक-प्रेमी बना दिया। शहर में जाने पर बिना कोई नयी पुस्तक लिये लौटना अजीब सा लगता है। इस प्यार से लाभ भी बहुत हुआ है।
अजीब विडंबना है!
आजकल पुस्ताकालय में किताबें मिल जाएंगे पर पाठक हैं कहाँ?
टीवी, विडियो, सिनेमा और अंतरजाल, मोटर साइकल पर इधर उधर घूमना, malls में समय नष्ट करना और मोबाईल फ़ोन पर घंटो तक बात/sms करने के बाद किसे फ़ुरसत है किताबें पढ़ने के लिए।
वैसे मैं भाग्यशाली रहा हूँ।
बचपन में किताबों की कोई कमी नहीं थी।
मुम्बई शहर में बचपन बिताया था। एक अच्छी स्कूल में पढ़ता था जहाँ पुस्तकालय से किताबें ले सकता था।
इसके अलावा कोमिक्स और उपनयास तो circulating library से मंगवाकर पढ़ते थे। महीने में पाँच या दस रुपये देकर सदस्य बन जाते थे। दोस्तों का network भी अच्छा था और आपस में किताबों की लेन देन होती थी।
मेरा एक विशेष शौक था। अखबारों से रोज़ के comic strips काटकर एक आल्बम में चिपकाकर अपना अलग comic book तैयार करता था।
Indian Express में छ्पने वाला Tarzan, Ilustrated Weekly से Phantom के कई आल्बम मैंने तैयार किये थे और क्षण में मेरे हाथों से निकल जाते थे। दोस्त ले जाते थे और उनके बीच ही circulation चलता था और कभी भी मेरे पास वापस नहीं आता था।
इसके साथ R.K Laxman के हजारों pocket cartoon का भंडार था मेरे पास. Editorial page पर Thought for the day भी काटकर आल्बम में चिपका लेता था। माँ परेशान होती थी। कहती थी अखबार में इतनी काटा – फ़ूटी के बाद रद्दिवाला क्यों खरीदेगा इसे? रहम करो!
पता नहीं वे सब आज कहाँ खो गए हैं। इस प्रकार के कई सारे आल्बम तैयार हुए थे।
अच्छा हुआ उस जमाने में टी वी वगैरह नहीं थे। नहीं तो हम भी किताबों से वंचित रह जाते।
मनोरंजन और सूचना के लिए रेडियो सुनते थे।
और हम जैसे लोग (माँ-बाप की अनुपस्थिति में) पढ़ाई/होमवर्क करने के साथ साथ रेडियो भी सुनते थे, खासकर जब कोई क्रिकेट का टेस्ट मैच चल रहा हो और commentary का प्रसार होता हो या जब बिनाका गीतमाला चल रहा हो।
रोचक लेख। बीते हुए दिनों की याद दिला दी आपने। धन्यवाद।
बहुत अच्छा लगा आपका ये संस्मरण
एक बार मैं भी सेंट्रल लाइब्रेरी गया था….वहां के कर्मचारियों का व्यवहार अब भी कमोबेश वैसा ही है…हालांकि मेरी उमर को देखकर वे ज्यादा चूं-चपड़ नहीं कर रहे थे…शायद किशोरों या बच्चों को ज्यादा परेशान करते हों…वैसे भी मैं किताबों को खरीदकर पढ़ने का शौकीन हूं सो लाइब्रेरी जैसी जगहों की कमी उतनी खलती नहीं
बढ़िया! सारथी के साथ सभी संस्मरणात्मक मोड में चले गये हैं!
यह पोस्ट पढने के बाद आपकी कल वाली पोस्ट पढी । वाचनालय के कर्मचारियों के व्यवहार के बारे में पढकर आश्चर्य और अविश्वास हुआ । मेरे कस्बे की जनसंख्या तब मुश्किल से दस हजार थी लेकिन वहां के सार्वजनिक वाचनालय के और मेरे स्कूल वाले वाचनालय के कर्मचारी मानो किताबें इश्यू करने के लिए उतावले बैठे रहते थे । इतना ही नहीं, हमारे वाचनालय प्रभारी रामगोपालजी पांचाल सर, अपनी ओर से हमें किताबें सुझाया करते थे । उनकी सुझाई किताब यदि उस समय किसी को इश्यू की गई होती तो वह किताब आते ही वे कक्षा में हमें सूचित कर दिया करते थे ।
बहरहाल, आपकी पोस्ट अत्यधिक प्रेरक और रोचक है ।
अच्छी जानकारी दी है आपने |
I’m really surprised to read about the behavior of Librarians –
but glad to hear how you over came every obstacle in your life to reach where you are.
warm regards,
-L
Arvind
sir
being a book lover i am glad to read your article. i can identify my school days to some extent.i used to beg for books from my “rich” friends.i used to buy “chandamama” and “champak” with my pocket money . “Ramcharitmanas” and “Mahabharta” was available in my home so i was able to went through these classics. now fortunately i am working in a university library.Sir being a librarian i find great satisfaction in providing right book to the right reader .i wait eagerly for readers of literature .in this enthsiasm some time i get my seniors angry. Sorry for writing in english next time i will write in hindi
आपकी लगन को सलाम. जिस किस्म के पुताकालायाध्यक्षों का आपने ज़िक्र किया है उनसे मेरा भी पाला पडा है – देश में शिक्षा की कमी की काफी जिम्मेदारी ऐसे लोगों पर है.