मेरे आलेख कमजोरदिल इसे न पढें में मैं ने एक गुरू की कहानी बताई है जो लूट के अलावा कुछ नहीं जानता था. इस पर पा.ना. सुब्रमणियन जी ने टिपियाया कि
लगता है कि आपको जितने भी गुरुजन मिले सभी बड़े दुश्ट प्रवृत्ति के रहे. केवल सहानुभूति जताई जा सकती है. कविता वैसे अच्छी बन पड़ी है अब इसके लिए प्रेरणा तो उसी दुश्ट गुरु से मिली. उनका आभार कर देश को आगे बढाये.
टिप्पणी के लिये आभार. यह सही है कि मुझे लाईब्रेरी की सुविधा नहीं मिली, एकाध बार अध्यापकों ने सजा दी, लेकिन इन अध्यापकों को दुष्ट की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. मुझे अपने सारे जीवन में एक से एक समर्पित अध्यापक/अध्यापिकायें मिलते रहे हैं और कुल मिला कर एक अध्यापिका मिली जिसे दुष्ट कहा जा सकता है, एवं एक या दो अध्यापक मिले जिनको धंधेबाज कहा जा सकता है. उस अध्यापिका ने जरूर मेरे एवं मेरे दो साथियों के साथ बहुत बुराई/बेईमानी की थी लेकिन इससे हमारे भविष्य पर कोई असर न पडा.
मानव जीवन की एक विशेषता है कि जिस बात की ओर हम अधिक ध्यान देते हैं वह हमारे सोच एवं हमारे जीवन की दिशा को निर्धारित करता है. सौभाग्य से मैं ने अपने दुष्ट अध्यापको की ओर न तो अधिक ध्यान दिया, न उनके शोषण के बारे में फिकर की. इसके बदले आपना सारा ध्यान पढाई, पुस्तक-पठन, अपने शौक आदि को दिया. परिणाम यह हुआ कि एक शोषित विद्यार्थी के बदले एक पोषित विद्यार्थी के रूप में आगे बढने का मौका मिला.
मेरे अच्छे अध्यापकों में से एक थे दांडेकर सर. रिटायर्ड थे, लगभग 70 या अस्सी साल के थे, अनुशासन के मामले में बहुत कडे थे, और सठिया-सत्तरा चुके थे. लेकिन भौतिकी पर उनकी पकड और उसे समझाने का तरीका ऐसा था जैसे कोई जादूगर अपनी मास्मरिक शक्ति का प्रयोग कर रहा है. उन्होंने कक्षा में आरडी बॉटल, निकल्सन अपेरटस, और पता नहीं कौन कौन से उपकरण लाकर दिखाया और सिखाया. आज कितने भौतिकी के अध्यापक हैं जो यह करते हैं या जो इन उपकरणों के बारे में जानते है.
दांडेकर सर के कारण भौतिकी पर मेरी ऐसी पकड हो गई कि आज 55+ साल की उमर में भी आंख मीच कर भौतिकी पढा सकता हूँ. किसी भी किताब को देखने की जरूरत नहीं है. भौतिकी में एम एससी करते समय मुझे दो ऐसे अध्यपक (डा रामजी श्रीवास्तव एवं डा के जी बन्सीगिर) मिले जिनको “जादूगर” कहा जा सकता है. उनकी कक्षाओं में उच्चतर भौतिकी पढना ऐसा आसान लगता था जैसे कहानी सुन रहे हों.
आज मैं इन तीनों अध्यापकों को नमन करता हूँ !!
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जीवन में हर तरह के इन्सान मिलते है कुछ बुरे तो कुछ अच्छे ! और अध्यापक भी इसी श्रेणी में आते है !
यदि सही शिक्षक मिल जाए तो कठिन विषय भी आसान से लगने लगते है . आप भाग्यशाली रहे आपको ऐसे शिक्षक मिले और वह गुरु भी भाग्यशाली रहे आप जैसा शिष्य मिला जो उनका नाम तो रोशन कर रहा है .
हर पेशे में अच्छे और बुरे, लालची और उदार लोग मिलते हैं। अध्यापकों में भी।
main apni baat kahun to kuchh adhyapak hain jinhe yaad kar sakta hun aur bahut maanta bhi hun, magar mere chhatra me mere vikas me kisi adhyapak ka koi ullekhniya yogadna nahi raha..
aaj jitna gyan prapt hai vo sabhi yaa to papa ka diya hua hai ya phir mera khud se arjit kiya hua..
हर पेशे में हर स्वभाव के लोग मौजूद हैं. इसे शायद नहीं रोका जा सकता है.
गुरू का प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ता है। मुझे इण्टरमीडिएट में भौतिकी के गुरू अच्छे मिले तो हाईस्कूल की ही तरह डिस्टिंक्शन मिला, और गणित वाले धन्धेबाज निकल गये तो अंक ९६% से घटकर ६०% पर आ गये।
जीवन के हर क्षेत्र मे अच्छे या बुरे लोग मिलते ही हैं और हमारा स्कूली जीवन भी जीवन का एक पार्ट ही है ! हमने तो एक गुरुमंत्र लेलिया कि बुरा बुरा भूल जाओ और अच्छा २ याद रखो ! जिन्दगी मे मुश्किल से दो चार लोग खराब मिले होंगे उनकी वजह से पूरा जगत तो खराब नही हो सकता !
रामराम !
उम्र मे आपसे १५ साल छोटा हु। तो आप समझे ले कि हमारे गुरुजन आपके गुरुजनो से विचारिक टेक्नोलॉजी से कुछ कदम आगे ही होगे। मेरी कक्षा दस तक की पढाई राजस्थान के मेरे गॉव मे हुई थी। यह बॉत कक्षा आठ कि है। हमारी स्कुल का ड्रेस कोड था खाकी नेकर व सफेद शर्ट। नये नये ट्रासफर होकर आये हमारे पी टी मास्टर प्रमोदकुमारजी वैशणव ने स्कुल ड्रेस नही पहनने कि सजा सुना दी। जाओ, ओर बहार धुप मे खडे हो जाओ। दोपहर का समय था करीब ४०से ४२ डीग्री टेम्प्रेचर था। दस ही मिनट मे मेरी हालत खराब हो गये। शुरु से ही मुझे हॉफ पेण्ट पहनने को शर्म महसुस होती थी सप्ताह मे एक दो बार बिना ड्रेसकोड के स्कुल जाने कि आदत हो गई थी। कारण था पुर्व मे किसी भी गुरुजन ने मुझे किसी भी गलती के लिये सजा नही दी थी। इसका मुख्यकारण था मेरे पापा राजनिति मे थे और राजस्थान मे ऊचे पदो पर थे । उनका नाम सोहरत का मुझे फायदा मिला। सभी गुरुजनो का मेरे घर गॉव मे हो या जयपुर हो पापा से मिलने जाते अपना काम करवाने।उसका सहज ही फायदा मुझे मिलता रहा । जिससे मै नियमो का उलघन करना सिख गया। हॉ तो बॉत कर रहे थे मुझे धुप मे खडे दस मिनट हुये ही थे कि हमारे पॉच साल से हेडमास्टरजी गफुर खॉ राउन्ड पर आये मुझे धुप मे खडा देख रुके, पुच्छे कि क्या बात है ? मैने कहॉ मारसा (मास्टरसाहब) ने मुझे यहॉ खडा रहने को कहा है। सर ने तुरन्त नये आये पी टी मास्टर प्रमोदकुमारजी को बुलाया उनके कान मे कुछ कहा, हेडमास्टरजी के जाने के बाद पी टी मास्टर जी ने मुझे कक्षा मे जाने को कहा। मै भाग कर अपनी कक्षा मे जाकर बैठा। पर आज मुझे कुच्छ अलग महसुस हुआ। शायद मेरी हेगडी टुटने के सकेत थे। शाम को ही प्रमोदकुमारजी मेरे घर पर तसरीफ ले आये। पापा घर पर नही थे इसलिये मॉ से मिल गये। दुसरे ही दिन पापा ने मुससे कहा मम्मी कह रहती तेरे स्कुल के मास्टर साहब आये थे? क्या बात है पढाई तो ठीक चल रही है। कुछ मस्ती तो नही कि तुमने ? हम पापा से डरते थे तुरन्त पुरी बॉत बोल दिये। तब पापा का मेरे उपर माथा ठनका, मुझे कडक शब्दो मे हिदायत दे डाली आजके बाद कोई भी नियम तोडा तो मेरे से बुरा कोई नही होगा। यहॉ से दुर भेज देगे हॉस्टल मे जहॉ तुझे कोई नही पहचानेगा कि तु कोन है? दुसरे दिन पापा स्वम स्कुल आये, हेड मास्टरजी के रुम मे मुझे भी बुलाया, पी टी मास्टर जी भी मोजुद थे। पापा ने पी टी मास्टरजी को शाबाशी दी, मै मन ही मन हैरान था। और पापा, हेड मास्टरजी कि तरफ मुखातिब होकर बोले-” मारसा ! आजके बाद महावीर कोई गलती नही करेगा उसकी गलती के लिये मै हाथ जोड आपसे माफि मॉगता हु। दृश्य बहुत भावुक बन चला था। २५ वर्षो तक गाव के सरपचपद पर रहे,पचायत समिती के प्रधान, जिल्हा प्रमुख, राजस्थान काग्रेस के जिला एवम राज्य के विभीन्न उच्च पदो पर रहने वाले व्यक्ति ने महावीर बालक के साथ-साथ मेरे गुरुजनो को भी सिख दे डाली। वो दिन और आज का दिन तक सब कुछ ठीक है। सीर्फ मेरे पिताजी अब नही है। जो मेरे जिवन के सबसे बडे गुरु थे। वो गुरुओ के भी गुरु थे।
कहने का मतलब साफ है हर सिक्के के दो पहलु है। आप घटीत घटनाओ को किस रुप मे लेते हो यह व्यक्ति-व्यक्ती कि बुज-सुज पर निर्भर करता है॥॥
और उस मास्टर का क्या कहूं जो दूसरी कक्षा मै चालीस तक के पहाङे मैं एक गलती पर चालीस डंडे मारता था….बङा ही निर्दयी..एक छोटे बालक पर इतना अत्याचार…आज दिन तक रोज सुबह उठकर उनको नमन करता हूं…उनकी वजह से कभी कक्षा मैं दूसरा नं नहीं आया…आज मैं चर्म रोग विशेषज्ञ हूं …सोचता हूं यदि वे न होते तो मैं भी यहां नहीं होता
अध्यापक भी आसमान से नहीं उतरते बल्कि इसी समाज से आते हैं।उनमें भी मानवीय अच्छाइयां-बुराइयां होना स्वाभाविक ही है।
परम आदरणीय शास्त्री जी,
गुरुजनों के विषय में आपके इस आलेख ने हमें भी पाठशाला के ज़माने की याद दिला दी. जब हम भौतिकी पढा़ करते थे । अब तो बस इतनी ही याद रह गई है के —
एक दोलन करने में लोलक (पेण्डुलम) जितना समय लेता है उसे लोलक का दोलन-काल कहते हैं !
सदैव आप जैसे गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त रहे, इसी अभिलाषा के साथ ।
— आपका बवाल
जो गुरू बिना मेहनत किये तनख्वाह लेते थे उनके अन्तिम दिन बहुत बुरे गुजरे है । और जिन्होने बिना किसी पक्षपात के बच्चों का भविष्य निर्माण किया उन्हे हम हमेशा आदर देते है ।