ग्वालियर (मप्र) में एक उन्नत किला है जो शहर से लगभग 330 फुट ऊंचे एक चट्टान पर स्थित है. इसकी लम्बाई कई किलोमीटर और क्षेत्रफल भी कई वर्ग किलोमीटर है.
छायाचित्र: तेली की लाट, ग्वालियर किला. (छायाचित्रकार: शास्त्री. सारथी का हवाला देकर आप इस लेख एवं चित्र का पुनरूपयोग कर सकते हैं)
पिछले 1000 सालों में इस किले पर उन्नत भारतीय वास्तुशिल्प के इतने भवनों का निर्माण हुआ है कि सुबह से शाम अनवरत चलने के बावजूद आप उन सबको एक बार नहीं देख सकते हैं.
बचपन में हम लोग अकसर पैदल इस किले पर जाते थे, और यह अपने आप में एक रोमांचकारी अनुभव हुआ करता था. किले पर एक 100 फुट से अधिक ऊची एक इमारत है जिसे आजकल तेली की लाट कहा जाता है. मैं बचपन से यह नाम सुनता आया हूँ, लेकिन पिछले दिनों जब अनुसंधान के नजरिये से ग्वालियर किले का अध्ययन शुरू किया तो अचानक लगा कि इस भवन के साथ जुडे दोनों शब्द (तेली और लाट) गलत है.
किले के इतिहास के साथ कोई तेली नहीं जडा है, कम से कम आज तक जो जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर. न ही इस तरह के भवनों को लाट कहा जाता है. अफसोस यह है कि इस किले के अतीत की बहुत सारी जानकारी लुप्त हो चुकी है या अनपढे या अनुसंधान से दूर शिलालेखों में पडे हैं. यदि किले पर किसी जमाने में कोई पुस्तकालय या राजकीय ग्रंथालय रहा भी होगा तो वह नष्ट किया जा चुका है. मुगलों ने काफी समय इस किले पर नियंत्रण रखा था और उस समय उन्होंने यहां काफी तबाही मचाई थी. मूर्तियां खंडित कर दी थीं और कम से कम दो मंदिर (सास बहू मंदिर) चूने से भरवा दिये थे जिनको अंग्रेजों के जमाने में कुछ इतिहासप्रेमी अंग्रेजों ने साफ करवाया था. विनाश के दौरान क्या क्या नष्ट हो चुका है इसका अनुमान नहीं है.
तेली की लाट भूरे बलुए (बालूई) पत्थर का बना है जिसकी ग्वालियर और आसपास के इलाके में भरमार है. 100 फुट ऊंचे इस इमारत के अंदर प्रवेश करने पर 30 से 40 फुट ऊंचाई पर छत दिख जाती है. उस छत के ऊपर कोई कक्ष है क्या, वहा कैसे पहुंचा जा सकता है, इन चीजों का कोई अनुमान नहीं होता. अंदर बस एक ही कक्ष है और उसमें किसी तरह की कोई मूर्ति नहीं है. निर्माण एवं शैली एक दम दक्षिणभारतीय है और इसका कंगूरा देखने से आपको इसका अनुमान हो जायगा.
इस अतिविशाल इमारत में दरारें आना शुरू हो गई हैं, लेकिन पुरावस्तु विभाग ने इसे विनाश से बचाने की कुछ कोशिशे की हैं. जमीन से ऊचाई बहुत अधिक होने के कारण तडित-चालक लगा कर बिजली गिरने से इसकी सुरक्षा कर दी गई है.
लेकिन तेली की लाट कैसे बनी, किसने बनाई, यह मंदिर है क्या, इसके अंदर मूर्तियां क्यों नहीं है अदि प्रश्न अभी भी सुलझे नहीं है. तेली को शायद लाट की जरूरत नहीं थी, लेकिन काफी इतिहास के लुप्त हो जाने के बावजूद जो बचा है उसे देख कर हम हिन्दुस्तानियों को अपनी उन्नत संस्कृति के इस तरह के चिन्हों पर अभिमान करने की जरूरत है.
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तेली की लाट दिखाने और परिचय कराने का धन्यवाद।
बहुत अच्छी जानकारी …अच्छा लगा तेली की लाट के बारे में जानकर
“तेली की लाट के बारे में विस्तरत जानकारी के लिए आभार , पहली बार ही पढा इस दर्शनीय स्थल के बारे में”
regards
शास्त्री जी नमस्कार,
इतिहास की एक बढ़िया जानकारी मिली है. धन्यवाद.
ऐतिहासिक विरासत से परिचित कराने के लिये आभार।
प्रथा दृष्टया हमें यह तेली का मंदिर नहीं लग रहा है. हमने जो तेली का मंदिर देखा था उसका शिखर तमिलनाडु के मंदिरों जैसा था. अब हमें उस मंदिर की थोड़ी बहुत जानकारी तो है पर चित्र देख कर दुविधा की स्थिति में आ गये. कृपया एक बार और जाँचकर पुष्टि करें कि यह चित्र सही लगा है. कहीं कोई चूक तो नहीं हुई. पूरी संभावना बनती है कि हम ही ग़लत हो. सठिया जो गये हैं.
यह भी संभव है कि यह चित्र सामने (फ्रंट) का ना होकर बाजू (साइड) का हो जिसके कारण शिखर में गोल दिख रहा हो. हम आपको अलग से एक दो चित्र भेज रहे हैं.
तेली की लाट कैसे बनी, किसने बनाई, यह मंदिर है क्या, इसके अंदर मूर्तियां क्यों नहीं है अदि प्रश्न अभी भी सुलझे नहीं है.
आपने और उत्सुकता बढादी है इसमे.
रामराम.
आधिकारिक तौर पर यह मदिर नागर शैली में ११वी शताब्दी का बना माना जाता है. वैसे इसे उत्तर और दक्षिणी शैली का मिला जुला रूप भी कहा गया है लेकिन स्पष्ट तह इसपर उड़ीसा के मंदिर निर्माण शैली का प्रभाव दिखता है (शीर्ष भाग). मूलतः यह विष्णु का मंदिर था क्योंकि मुख्य द्वार के ऊपर गरुड़ विद्यमान है. इस मंदिर में तेलंग ब्राह्मणों के द्वारा पूजा का प्रावधान रहा ऐसी एक मान्यता है. हो सकता है घिस पिट कर वह तेली का मंदिर कहलाने लगा हो.
कहीं पढा था कि किले की नींव में नरबली दी जाती थी, जो स्वेच्छा से होती थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह बात सच हो और फिर उसकी याद में यह लाट बना दी गयी हो।
इतिहास की एक बढ़िया जानकारी मिली!!