हिन्दुस्तान का हर शहर, नगर, गांव इस तरह की विविधता अपने में समेटे हुए है कि जीवन भर अध्ययन करने के बावजूद एक व्यक्ति उसके एक प्रतिशत के हजारवें भाग को नहीं देख सकता है. ऐसी विविधता लिये समाज में जन्म लेना और पलना अपने आप में एक भाग्य है.
यह विविधता हमारे मानसिक विकास में एक बहुत बडा भाग अदा करती है, और यह एक कारण है कि भारतीय विद्यार्थी विदेशों में असामान्य प्रतिभा प्रदर्शित करते हैं. विदेशों में कार्यरत भारतीय डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, व्यापारीगण, एवं अन्य पेशों में लिप्त भारतीय अकसर असामान्य प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं. इसका भी एक कारण बचपन में उनको मिली विविधता है.
विविधता लेकिन धीरे धीरे खतम होती जा रही है. जिस तरह से एसेंबली लाईन पर एक कार बनती है, जहां हर कार्य निर्धारित गति से होता है, जहां यांत्रिक रूटिन में बंधी चीजों के अलावा कुछ भी नहीं होता है. बच्चे स्कूल बस में जाते हैं, आते हैं, होमवर्क करते हैं, थकावट की अधिकता से सो जाते हैं. बहुत हुआ तो टीवी देख लिया, लेकिन उसकी भी सीमा तय रहती है.
इतवार को भी मांबाप का टोकना जारी रहता है कि उनके विवाहित “मिस” ने इतवार के नाम पर जो अतिरिक्त होमवर्क दिया है उसे पूरा करना है. यह सब बच्चे तो समझदार, परिपक्व, या लायक बनाने के लिये नहीं बल्कि परीक्षा में नम्बर लाने वाली गऊ के नम्बरों का उत्पादन बढाने के लिये होता है जिससे स्कूल का रिजल्ट अव्वल रहे – विद्यादान द्वार समाज सेवा के लिये नहीं, बल्कि अगले साल फीस बढाने के लिये जो मांबाप इतने “अच्छे” विद्यालय में पढाने के लिये बिना चूंचपड किये दे दें.
गिल्लीडंडा, कबड्डी, खोखो, आईसपाईस आदि के लिये इनको कहां समय मिल पाता है. इन में से कितने लोग सिथोलिया खेलना जानते है. गर्मी की छुट्टियों में इन में से कितने लोग गांव में दादादादी या नानानानी के पास जा पाते हैं. कितने बच्चे हैं जिन्होंने गांव के नहरों में स्नान किया है, बैलगाडी में विनोदयात्रा की है?
इस तरह के कम से कम सौ बातें हैं जो मैं यहां जोड सकता हूँ. आधुनिकता की अंधी दौड में हमारे बच्चों का बचपन उन से छीन लिया जा रहा है.
पुनश्च: मैं अपने बच्चों को ये सारी चीजें उपलब्ध करवा सका, जिसका मुझे बहुत संतोष है !!
बचपन की मासूम शरारत, लुप्त हो गई आज.
कहाअँ खो गये खेल, कहाँ खोई किलकारी आज.
कहाँ गई दादी की लोरियाँ, कहानियाँ नानी की,
कहाँ गई छुप्पा-छुप्पी,बातें लगती कहानी की.
बचपन प्यासा यदि रहा, यौवन दीवाना होगा.
असमय फ़ूल खिला तो बोलो खूशबू कैसे देगा.
प्यार नहीं पाया बचपन में, क्या देगा वह आगे.
बिखर गये संस्कृति-सूत्र, टूटे सारे ही धागे.
कडियाँ सारी अस्त-व्यस्त, कहो तो कौन जोङेगा.
कौन संवारेगा भारत, और कौन शहादत देगा.
बच्चा हाथ से छूट गया तो, शेष बचेगा क्या फ़िर
सोचो बन्धु! पूरा जीवन नरक बने तेरा फ़िर.
गया लौट के ना आये, अब नई बात कुछ सोचो.
शिक्षा-तन्त्र समाज हाथों मं आये ऐसा सोचो.
शहरों में सामूहिक जीवन का आधार बङा है.
हर सोसाईटी में बच्चों का खेल चले यह सोचो.
(साभार — http://www.ummeedblogspot)
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आधुनिकता की अंधी दौड़ का दौड़ाक क्या कभी पीछे रहना चाहता है? केवल विद्याध्ययन ही नहीं, पूरा जीवन ही ऐसा ही संवेदन-हीन व यांत्रिक हो चला है.
आप अपने बच्चों को ये सारी चीजें उपलब्ध करवा सके, इसका संतोष मुझे लगता है, हर एक ब्लोगर को होगा.
आईसपाईस या आई स्पाई ?
सच्ची बात है जी!!
ज़माना बदला …….. तो सब कुछ बदल गया
अच्छा है कि हम भी जमाने के साथ चलें!!!!!
पर आपकी ज्यादातर चिंताएं वाजिब है जी!!
खेलों का बचपन से छिन जाना बहुत खतरनाक है। मुझे अफसोस रहा कि मेरे बच्चे वे खेल नहीं खेल पाए जो मैं खेल सकता था। लेकिन इस की कमी पूरी हुई तब जब उन्हों ने वे खेल खेले जो मैं नहीं खेल पाया था।
mere saath badhiya hai.. maine dono pidhiyon ke khelon ka bharpur lutf uthaya hai.. Gulli-danda aur Kancho se lekar Cricket, Baseball aur Rugby bhi.. 🙂
निरन्तरता और परिवर्तन में सन्तुलन बना रहना बहुत आवश्यक है।
@ अरविंद मिश्रा
“आईसपाईस या आई स्पाई ?”
डा मिश्रा, कल लिखते समय मुझे हिन्दी नाम एकदम याद नहीं आया था. इसे ग्वालियर इलाके में आईसपाईस ही कहा जाता था. असल में यह “लुकाछिपी” का एक नाम है.
आधुनिकता की अंधी दौड में हमारे बच्चों का बचपन उन से छीन लिया जा रहा है.
पुनश्च: मैं अपने बच्चों को ये सारी चीजें उपलब्ध करवा सका, जिसका मुझे बहुत संतोष है !!
” ये सच है आधुनिकता ने ना जाने जीवन से क्या क्या छीन लिया है ने , और बचपन वो तो जैसे न जाने कौन से अन्धकार में जा छुपा है… कोशिश तो सभी माँ बाप करते हैं मगर जो संतोष आपको हुआ वो शायद सबको नही होता होगा….”
regards
इसी का हमें मलाल है.
गिल्लीडंडा, कबड्डी, खोखो, आईसपाईस आदि के लिये इनको कहां समय मिल पाता है. इन में से कितने लोग सिथोलिया खेलना जानते है.
बहुत सटीक कहा आपने. जो इनर्जी गिल्लि डन्डा मे और कब्बड्डी मे है वो आज के विडियो गेम मे कहां? शायद बचपन से अब सब कुछ छिन चुका है. बिल्कुल यंत्रवत बचपन है आज. बहुत गंभीर बात है ये.
रामराम.
बचपन की मासूम शरारत, लुप्त हो गई आज.
कहाअँ खो गये खेल, कहाँ खोई किलकारी आज.
कहाँ गई दादी की लोरियाँ, कहानियाँ नानी की,
कहाँ गई छुप्पा-छुप्पी,बातें लगती कहानी की.
बचपन प्यासा यदि रहा, यौवन दीवाना होगा.
असमय फ़ूल खिला तो बोलो खूशबू कैसे देगा.
प्यार नहीं पाया बचपन में, क्या देगा वह आगे.
बिखर गये संस्कृति-सूत्र, टूटे सारे ही धागे.
कडियाँ सारी अस्त-व्यस्त, कहो तो कौन जोङेगा.
कौन संवारेगा भारत, और कौन शहादत देगा.
बच्चा हाथ से छूट गया तो, शेष बचेगा क्या फ़िर
सोचो बन्धु! पूरा जीवन नरक बने तेरा फ़िर.
गया लौट के ना आये, अब नई बात कुछ सोचो.
शिक्षा-तन्त्र समाज हाथों मं आये ऐसा सोचो.
शहरों में सामूहिक जीवन का आधार बङा है.
हर सोसाईटी में बच्चों का खेल चले यह सोचो.
आप तो बस संस्मरणात्मक मोड में ले जाते हैं – बरबस!
वाह! इतनी तत्परता! प्रणाम.
क्या हम मिलकर कुछ कर सकते हैं?…
बाल कवितायें लिखा करता हूँ….बतायें …उम्मेद साधक
शास्त्रीजी,
एकदम बचपन में पंहुचा दिया आपने, हमने तो मन भरके खेला है । आईसपाईस अथवा I Spy पर हमने एक पोस्ट लिखी थी, आप जरूर देखें ।
http://antardhwani.blogspot.com/2008/12/blog-post.html
बहुत आभार,
हमारे यहाँ भी आईस पाईस ही कहते हैं इसलिये आप मिश्रा जी की बात की चिन्ता न करें, हम संभाल लेंगे यहाँ से लोकल प्रमाण पत्र दिलवा कर.
नीरज क्लेम कर रहे हैं तो हम काहे पीछे रहें -हम भी तो लिखे हैं इस पर-कोई नीरज से कम थोड़े ही हैं:
http://udantashtari.blogspot.com/2007/09/blog-post_10.html
आपकी बात से मै पुरी तरह से सहमत हु। इस हाईटेक जमाने बच्चो का तो बच्च्पन कही खो गया है। वो घुल-मिठ्ठी मे लोटपोट होने का समय नही रहा। अब तो बच्चो को रोज स्नान करनी पडती है। मेरे विघार्थी जिवन मे शरद ऋतु मे सप्ताह मे एक बार ही नहाते थे।
मॉ पकडकर नहलाती थी और पत्थर घीस कर हाथ पैर का मैल उतार थी। आज का बच्चपन प्रोढ हो गया है। अब बच्च्पन तो मानो डायनाशोर के माफिक गायब हो गया है।
संसार की भावी पीढ़ी को केन्द्र में रख कर बहुधा देशों के पास कोई व्यापक दृष्टि है ही नहीं।
सारा बचपन तो छिनता ही है, भविष्य भी बहुत सन्तोषप्रद नहीं रहता।
अपना बचपन याद आ गया। बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया आपने। हमें बच्चों का मासूम बचपन छीनने का कोई हक नहीं है। खसकर तब जब हमने इसका भरपूर आनन्द उठाया है।
गाँव में `आइस-पाइस’ खेलते हुए हम बच्चों का यह उच्चारण जब पिताजी ने बार-बार सुना तो मुझे बुलाकर अंग्रेजी अध्यापक होने के नाते समझाया कि इसका शुद्ध उच्चारण ‘आई-स्पाई’ है। अरविन्द जी की बात भी कुछ वैसी ही है।
अब जानकार लोग यह बताएं कि यह eye-spy है या I-spy.
बचपन की अब उम्र कम होने लगी है शास्त्री जी…..ओर कहानिया वो अब टी वी में ढूढता है…..बूढे आश्रमों में जो है ..इसे समाज का ह्रास कहेगे …बचपन का नही
उम्मेद सिंह बैद साधक की कविता के लिये धन्यवाद.
बचपन के भूले बिसरे खेलों को याद करना सुखद लगा। पर समय की मार तो इन पर पडी ही है।
शास्त्री जी, आपने तो पुन: बचपन की स्मृ्तियों को सजीव कर डाला.
धन्यवाद……..
bachoo ke bachpan ke bare me apki chinta vajib hai mai bhe inke liye likna chahti hoo dhanyada triveni
sartji jee kyu aap dukhtee rag pe haath dharte ho. bachcho ko bilkul nahee pataa bachpan kya hotaa hai. aage badhne kee kutil hod ne unse ye haq chheena hai lekin ismai bechare bachcho ka kya dos tamachaa to aapne ham mata pita ko mara hai
Nida chacha kah gaye the
bhole bhale bachcho ko tum chaand sitaare chhoone do
chaar kitaabe padhkar ye bhee ham jaise ho jaayenge.