अनिल पुसादकर ने अपने आलेख वो बच्चा द्विअर्थी संवादो के मामले मे दादा कोंड़के को मात दे रहा था और लोग तालिया बज़ा रहे थे में एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है. इस कार्यक्रम में प्रश्नों के द्विअर्थी उत्तर दिये जा रहे थे. उन्होंने लिखा:
चैनल बदलते-बदलते बच्चों के एक कार्यक्रम पर मैं रूक गया।सोचा देखूं देश की भावी पीढी क्या कर रही है।एक बच्चा स्टेज पर दो लोगो की टेलिफ़ोन पर बातचीत सुना रहा था।गलत नंबर लगने के कारण वो कार के विज्ञापन दाता और बेटे के लिये बहु तलाश रहे सज्जन के बीच हूई बातों को बता रहा था।बाते क्या थी द्विअर्थी अश्लिल संवाद थे ।
बेहद फ़ूहड़ और अश्लिल बक़वास के दौरान सभी निर्णायक़ बेशर्मी से हंसते रहे।
कुछ दशाब्दियों पहले अमरीका में चालू हुआ था रियालिटी-शो, या “वास्तविकता का प्रदर्शन”. शुरू शुरू में यह सिर्फ सामान्य इंटरव्यू तक सीमित रहा लेकिन जब इस तरह के कार्यक्रम बढ गये तो दर्शक जुटाने के लिये इन कार्यक्रमों में अतिरिक्त “रस” डालना पडा. इस कारण प्रश्न धीरे धीरे व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने लगे, लेकिन टेलिविजन पर चेहरा दिखा कर रातोंरात “प्रसिद्धि” हासिल करने के लिये लोग कुछ भी करने को तय्यार होने लगे.
अंधे को क्या चाहिये, दो आखें! निर्माता लोग समझ गये कि “वास्तविक-प्रदर्शन” में उनकी तो लाटरी खुल चुकी है. बस हर उमर के, हर समाज के, स्त्रीपुरुषों से हर तरह के प्रश्न पुछे जाने लगे. कल रात कितनी बार सहवास किया से लेकर इस साल कितनी स्त्रियों/पुरुषों से सहवास किया आदि तो इन कार्यक्रमों में काफी आम और बचकाना प्रश्न होने लगे. असल प्रश्न तो इससे अधिक अश्लील एवं विस्तृत होने लगे, और उनको यहां नहीं लिखा जा सकता. अमरीकी समाज ने “अभिव्यक्ति की आजादी” के नाम पर इसे सहन किया और इसे देख देख कर वहां की आम जनता समाजिक/नैतिक बातों में एक दम संवेदनहीन बनने लगी.
सन 2000 के आसपास निर्माताओं को लगा कि अब डबल लाटरी खुलने वाली है. उन्होंने वास्तविक-जीवन-पोर्नोग्राफी (Rality Pornography) के नाम से टीवी चेनल शुरू किये. इस लिये उन्होंने पर अपने वीडियो-केमरेयुक्त गाडियों को ले जाकर बाजारो, बगीचों, नुक्कडों पर आने जाने वाली हर तरह की स्त्रियों को न्योता देना शुरू किया कि वे इस रीयालिटी-पोर्न में भाग ले कर एकदम टीवी पर आ जायें.
तब तक समाज इतना संवेदनशील हो चुका था कि प्रति दिन कई स्त्रियां इस बात के लिये तय्यार हो जाती थीं. इसके बाद गाडी के अंदर जाकर वे जो कुछ करते थे वह पूरा रिकार्ड करने प्रेषित कर दिया जाता था. जब इस तरह का पहला चेनल सफल हुआ तो और भी कई चेनल बाजार में पहुंच गये. आज अमरीका एवं अन्य पाश्चात्य राज्यों में इस तरह के काफी सारे चेनल हैं.
यदि आपको लगता है कि आजकल टीवी पर रिएलिटी चेनलों द्वारा जो कुछ दिखाया जा रहा है यह कहानी का अंत है तो यह आपकी गलती है. यह तो महज आरंभ है. अंत तो तब आयगा जब मेरी आपकी बहूबेटियों को सरे आम ये लोग न्योता देंगे कि सडक किनारे पार्क की गई उनकी गाडी में एक “शो” रिकार्ड करने के लिये पधारें.
यदि समय रहते हम न चेते एवं यदि हम ने इसका विरोध नहीं किया तो आने वाल कल बहुत भयानक होगा!
चिंतनीय !
‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं?’
very bad
all chennels are doing same
समय बदल और महौल दोनों बदल रहें, ऐसे बच्चे वह 10 साल की उम्र में जानते हैं जो हम हाई स्कूल में जान पाये! क्या करें अगर वह ऐसा नहीं सीखेगा तो अगले से पीछे रह जायेगा! किसी एक के बस की बात नहीं सबको आज़ादी की तरह एक सुर में दहाड़ लगानी होगी!
जी, कल रात वीक-एंड पर फ़्री थे तो घरवालों के साथ एक शो देख रहे थे जिसमे छोटे ( दस बारह साल के) बच्चें अपने कामेडी जोकेस सुना रहे थे…जिसमे एक बच्ची का डायलाग था..तब तक तो मेरा बच्चा बच्चा पैदा होकर आ जायेगा…
वाकई चिंतनिय है. पर आप जो चेतने की बात करते हैं वो मुश्किल है. ये तो समय की आंधी है, इसको कौन रोक पाया है. याद किजिये वो समय जब फ़िल्मों मे काम करने को बहुत बुरा माना जाता था. और भले घर की बहू बेटियां तो छोद दिजिये नीचे तबके की ओरते भी इनमे काम करने को तैयार नही होती थी.और महिला पात्र भी पु्रुषों द्वारा निभाये जाते थे.
अब आज देखिये..लोग खुद अपनी बहु बेटियों को हिरोईने बना कर फ़ख्र महसूस करते हैं. असल मे मुझे तो बडा मुश्किल लगता है.
रामराम.
चिन्ताजनक!!
बड़ी चिन्ता का विषय है। क्या करें, खुद को आइसोलेट कर लें? जमाने को क्या बदल पायेंगे।
विचारणीय!
इसके लिए संगठित प्रतिकार ज़रूरी है. और वह भी हल्के-फुल्के ढंग से नहीं, बहुत मजबूत तरीक़े से.
हर व्यक्ति दूसरे को कहता है कि अब कुछ करना होगा. हर जगह आक्रोश भी है. बस. कुछ होने के लिए हमें बस वहीं चमत्कार का ही इंतज़ार है. हम भी इसी फेर में हैं.
आप ने बिलकुल सच लिखा है, लेकिन आज बहुत से लोग, पब, सेक्स, अधनंगे कपडो को फ़ेशन, आजादी मानते है, ओर उन्हे इसी मे ही सब कुछ दिखता है, सीधे साधे लोगो को, उज्जड कहते है, इस लिये उन्हे तो यह सब अच्छा लगता है, उन्हे कोन रोक सकता है, लेकिन हम अपने ब़च्चो को शुरु से ही अगर समझाये की बेटा या बेटी यह सब गलत है, क्योकि यह इस लिये गलत है… कारण समझाया जाये तो बच्चा ऎसी बातो से दुर ही रहता है.
ताऊ की बात ठीक है पहले तवायफ़ भी फ़िलमो मे काम नही करती थी, ओर आज मां बाप अकड से उन्हे हीरोईन बनाते है, यानि एक महंगी तवायफ़, ओर फ़िर नाज करते है.जमाना बदला नही, जमाना गन्दी की तरफ़ जा रहा है, ओर जिस का अन्त क्या होगा… वेसे मै यहां एक बात जरुर कहुगां अभी युरोप मे इतनी खुल खेल नही जितनी हमारे टी ई वालो ने मचा रखी है.
धन्यवाद
इस बुराई में वृद्धि का एक कारण अभिभावकों की अपने पाल्य की गतिविधियों पर ठीक से ध्यान न देना भी है। सामाजिक दबावों और अन्य आर्थिक जरूरतों के पीचे भागते हुए उन्हें अपने बच्चे के साथ समय बिताने और उसे सही गलत का भेद समझाने की फुरसत ही नहीं है।
…उनके बारे में क्या कहना जिनके सिर पर अभिभावक का साया ही नहीं है। उन्हें तो सूचना क्रान्ति की पैदाइश इलेक्ट्रॉनिक माध्यम, टीवी, सिनेमा और फैशन की दुनिया अपनी जाल में फँसा कर पथभ्रष्ट कर ही रहे हैं। इतना ही नहीं कुछ माँ-बाप तो ऐसे घिनौने कार्यक्रमों में अपने बच्चे की शिरकत देखकर फूले नहीं समाते।
sahi kaha. dar-asal, yahan badi galti to un abhibhavakon ki hai jo ees daud me apane chhote chhote bachho ko dauda rahe hai.
bacche to wahi bolenge jo unhe sikha (yaa rataa) diyaa jata hai.
maine ispar kaafi pahale ek post likhi thi http://vijaywadnere.blogspot.com/2008/12/blog-post_23.html.