पिछले दिनों कुछ लोगों ने कर्नाटका के एक दारूखाने में घुस कर वहां जो लोग शराब पी रहे थे उनकी पिटाई की तो यह प्रश्न सब के मन में आया कि नैतिकता-पुलीस की जरूरत है या नहीं. यह प्रश्न हम सब को पूछना चाहिये क्योंकि कल हो सकता है कि मेरेआपके बेटेबेटी इस तरह के परिष्कृत ताडीखानों में पीतापिलाते नजर आयें, महज इसलिये कि वह ताडीखाना परिष्कृत है या वहा जाकर पीनापिलाना एक फैशन बन गया है.
प्रश्न के उत्तर में चिंतन एवं शास्त्रार्थ प्रेरित करने के लिये मैं निम्न बिंदु पाठकों के समक्ष रखना चाहता हूँ.
- समाज में नैतिकता के मानदंड जरूरी है, लेकिन इसे लागू करने का कार्य इस तरह की संस्थाओं एवं व्यक्तियों पर नहीं छोडा जा सकता है.
- बच्चों को शराबखानों (चाहे वहां देशी ठर्रा बेचा जाये या विदेशी वाईन) से बचाने की प्राथमिक जिम्मेदारी मांबाप की है.
- शराबखानों को परिष्कृत तरीके से या आकर्षक नामों से पेश करके युवाओं को शराब के आदी बनाने की कोशिशों का विरोध करना सरकार के नियमकानून निर्माताओं की भी जिम्मेदारी है.
- इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन जिन समाजों में युवकों-युवतियों को पीनेपिलाने की आदत डाल दी गई वे सारे समाज क्रमश: इसी कारण बर्बाद हो गये.
इसके अलावा कुछ और बातें भी याद रखनी चाहिये:
- अपने बच्चों की सुरक्षा हम सब की जिम्मेदारी है.
- इस सुरक्षा के लिये न केवल अपने बच्चों को सही दिशा देना जरूरी है, बल्कि समाज में जो गलत कार्य होते हैं उनका विरोध करना भी जरूरी है.
- इसका मतलब यह भी है कि अश्लीलता, अनाचार, नशा, शोषण, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध हम सब को आवाज उठाते रहना चाहिये जिससे कि इनके विरुद्ध एक माहौल पैदा हो, और जिसके प्रभाव से सरकार उन व्यापारों एवं संस्थाओं को नियंत्रण में रखें जिनका लक्ष्य जनता का नैतिक शोषण है.
सब से पहले तो सरकार अपने बज़ट का बड़ा हिस्सा मादक पदार्थों के व्यापार पर लगाए कर से वसूलना सिद्धांत रुप में त्याग दे और योजना बनाए कि कुछ वर्षों में अपने बजट के लिए इन पर निर्भरता समाप्त कर लेगी। फिर इन का उत्पादन और वितरण नियंत्रित करे।
में भी आपसे सहमत हूँ ! समाज में गिरते नैतिक मूल्यों का विरोध होना ही चाहिए लेकिन किसी दल द्वारा सांस्कृतिक पुलिस की भूमिका निभाना बर्दास्त करना ग़लत होगा इस तरह की कार्यवाही तो तालिबानी ही होगी !
तो शास्त्री जी के शास्त्रार्थ की यह नयी पेशकश ! मैं बहुमत के साथ रहूँगा !
सरकारे चल रही है आबकारी करों से तो सरकार इस मुनाफ़े के कारोबार पर अंकुश क्यो लगाएगी।शराब या नशे के खिलाफ़ पूरे समाज को उठ खड़ा होना होगा।
एक लोकतान्त्रिक समाज में क्या नैतिक है और क्या अनैतिक यह निर्धारित करने का अधिकार कुछ स्वयम्भू ठेकेदारों को नहीं दिया जा सकता।
This post is like a “political outburst ” of a politician. Major politicians from karnataka and center have deflected the total issue to what is acceptable by indian society and what is not acceptable by indian society.
The issue was why were woman beaten in a pub ?? I think when a person is a adult our constitution gives them freedom of selection to what they like .
Beating woman , kidnapping woman in the name of social sanctum is not for any message but its simply to tell woman where there place is .
Why none arrst has been made till now ?? Why bail was given ?
AND ABOVE AAL WHY YOU DID NOT WRITE AGAINST SUCH INCIDENTS WHERE WOMAN WERE SLAPPED AND BEATEN .
DOes the honour of young girls and woman not bother your concscience ???
Harping on social issues , law and order will happen only when we start expanding our mental status to understand that woman , man and child all need protection and not moral policing which we do when it suits us .
In the second instance where the 100s of youth were arrested was for drug trafficking and not just liquor . Now the question is who supplies these drugs to immpressionable teenagers . Why is there no law and order or policing for these drug suppliers .
South was famous for “respect of woman ” but dirty politicans have made it a mess . If a CM can show disrespect of Sandeep Unnikrishanan he can show disprespect to anyone .
Try to organise and monilse people to bring out new leaders who have broader outlook
youngsters need grooming and parents have to be role models for them but how manyu parents are , should be the question ?? and lawa and oprder should be same .
Ask the goverment to cancel the licence of all the pubs and shops that sell liquor CAN YOU ??
बच्चों को सही कदम दिशा देना हमारा, माता-पिता, समाज का काम है पर पुलिस नैतिकता से ठीक उल्टा हो रहा है। यदि कोई मुझसे पूछे कि किस तरह का समाज चाहूंगा – जहां लड़कियां पब में जाकर शराब पीने की स्वतंत्रता है, या समाज जहां पुलिस नैतिकता है तो निःसन्देह मैं वह समाज चुनना चाहूंगा जहां लड़कियों को पब में जा कर शराब पीने की स्वतंत्रता है। क्योंकि इस तरह की स्वतंत्रता ही लोगों की समझ को प्ररित कर सकती है कि यह गलत कार्य है। इतिहास गवाह है कि जब जब और जहां जहां शराब पीना मना किया गया वहां अवैध तरीके से शराब बनाने और पीने का सिलसिल शुरू हो गया जो कि समाज के लिये ज्यादा हानिकारक है।
मैं भी आपसे सहमत हूँ ! समाज में गिरते नैतिक मूल्यों का विरोध होना ही चाहिए ,वैसे कुछ बर्ग ऐसे हैं समाज में जिनसे न नैतिकता की अपेक्षा की जा सकती है और न वातावरण की पवित्रता की ….!
शास्त्री जी , आप की सारी बातो से सहमत हु, लेकिन यह काम समाज ओर सरकार को मिल कर करना चाहिये, लेकिन यह अन्य छुट पुट ठेके दारो ओर संगठनो से मार पिटाई करना सभ्य समाज का तारीका नही, प्रशन यह है कि क्या पब मे जाने से, अग्रेजी शराब पीने से ही हम सभ्य बन सकते है? क्या जिन देशो मे यह अग्रेजो के पब नही वहां लोगो को स्वतंत्रता नही??
पब, डिस्को, शराब खाने, जुया घर, ओर अन्य ऎसे ही घटिया स्थान, कुछ लोगो के लिये तो यह सब सभ्य हो सकते है, लेकिन सभी लोगो के लिये नही( मै अपने समाज की बात कर रहा हूं)
युरोप के लोगो की अपनी अलग सोच है, ओर अगर हम इन की नकल कर के अपने को सभ्य कहना शुरु कर दे तो … मुझे उस बन्दर की कहानी याद आ जाती है जो एक टॊपी बेचने वाले की सारी टोपिया, ऊठा कर अपने दोस्तो मे बाटं देता है, ओर फ़िर टोपी वाला अपनी सुझ बूझ से उन्हे वापिस लाता है, ओर अगर जरुरी ही है की हम ने इन युरोपियन लोगो की नकल ही करनी है, तो इन लोगो मै बहुत सी अच्छी बाते है, उन की नकल क्यो नही करते ? उन बातो से तो हम कोसो दुर है, ओरत हो या मर्द अपने समाज के अनुसार रहे तो ही सुखी रह सकते है, वर्ना
अग्रेजी बोलना. पब की तारीफ़ करना, अधंनगे जिस्म दिखाना यही है आज के सभ्य समाज की सोच , क्यो कि गोरे यह करते है, अमेरिकन यह करते है, वाह क्या सुंदर सोच है, लेकिन आज हमारा समाज जिस ओर भाग रहा है उस ओर बर्बादी के सिवा कुछ नही…..
सहमत।
@Rachna
देवी जी, आज दोचार मीटिंगों में व्यस्त था इस कारण अभी तक आपकी टिप्पणी का जवाब नहीं दे पाया था.
लगता है कि आजकल आप को हिन्दी में लिखे आलेख समझ में नही आ रहे है. मैं ने लिखा “समाज में नैतिकता के मानदंड जरूरी है, लेकिन इसे लागू करने का कार्य इस तरह की संस्थाओं एवं व्यक्तियों पर नहीं छोडा जा सकता है.”
लेकिन आपने मेरे आलेख की एक उलटी व्याख्या की है. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि आप आलेख को समझ कर टिप्पणियां किया करें.
आपकी सारी बातें उचित, सामयिक और आवश्यक हैं।
द्विवेदीजी की बात महत्वपूर्ण है। सरकारें दारू से राजस्व प्राप्त करती हैं और उसी राजस्व-धन से ‘शिक्षा’ संचालित होती है। ‘दारू के पैसों से सिंचित शिक्षा’ कैसी होगी-यह कल्पना की जा सकती है।
हम सरकार को ‘थर्ड पार्टी’ मानते हैं। मेरे विचार से यह ठीक नहीं है। सरकार हम बनाते हैं तो उस पर हमने नियन्त्रण भी करना चाहिए और यह नियन्त्रण होता है – हमारी सक्रियता से, हमारे प्रभावी और सार्थक हस्तक्षेप से तथा हमारी अनवरत जागरूकता/सक्रियता से।
ये सारे कारक एक साथ सक्रिय हों तो संकट से मुक्ति पाई जा सकती है।
लेकिन हर कोई प्रतीक्षा कर रहा है कि यह शुरुआत ‘कोई’ करे। यह ‘कोई’ भी ‘किसी और’ की प्रतीक्षा में है। परिणाम : संकट यथावत् है और ऐसा विमर्श भी।
mazedar 🙂
आपके विचारों से मैं सहमत हूँ. मेरे ब्लाग काव्य-कुञ्ज पर मेरी नवीन पोस्ट मेरी टिपण्णी है. कृपया पधारें.
सामाजिक बुराईयों में से एक नशाखोरी जिसका जिक्र आपने बाखूबी उठाया है, है तो कबीले-गौर लेकिन समाधान सुझाने की हौड में आप भूल गए की सामाजिक मूल्यों का निर्माण प्रत्यक्ष रूप से उत्पादन साधन-संसाधनों से उपजे मानवीय संबधों से होता है. आप सरकार या ठीक से यू कहें राज्य मशीनरी जिसमे विधान पालिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, शिक्षण संस्थाएं यानि कि अधिरचना को सीधे स्वर्ग से उतरी हुई कोई पवित्र शै मानते हैं और पैदावारी संबध जोकि किसी अधिरचना का आधार होते हैं को छोड़ देते हैं. आप लिखते हैं कि ,” शराबखानों को परिष्कृत तरीके से या आकर्षक नामों से पेश करके युवाओं को शराब के आदी बनाने की कोशिशों का विरोध करना सरकार के नियमकानून निर्माताओं की भी जिम्मेदारी है” यानि कि जैसा हमने जिक्र किया है आपकी नज़र में नियमकानून निर्माता शराब निर्माताओं से उच्च पदवी रखते हैं वैसे ही जैसे कि कोई गुलाम सपने में अपने मालिक को गुलाम बनाये होता है.
आप लिखते हैं कि ,” इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन जिन समाजों में युवकों-युवतियों को पीनेपिलाने की आदत डाल दी गई वे सारे समाज क्रमश: इसी कारण बर्बाद हो गये.” वाह साहब वाह ! इतिहास की आपकी इस मनोगत समझ की तो दाद देनी ही पड़ेगी! इतिहास का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले मोर्गन जैसे विद्वानों जिन्होंने सभ्यता के इतिहास का अध्ययन सभ्यताओं से पिछड चुके आदिम कबीलों में दीक्षा लेकर उनके साथ रच-बसकर किया और हमारी इस पृथ्वी पर एक दूसरे से कोसों दूर बसे इन कबीलों जिनके कुछ-कुछ अंश आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी जीवित हैं (आप चाहें तो वहाँ जाकर ख़ुद अध्ययन कर सकते हैं) इनके अध्ययन से कार्ल मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि सभ्यताओं का इतिहास लगभग पॉँच हज़ार से दस हज़ार वर्ष तक का है. इससे पहले समाज इन आदिम साम्यवादी कबीलों (जिनके कुछ-कुछ अंश आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में भी जीवित हैं) का था जिन्हें सभ्यता नहीं कहा जाता. सभ्यता का अर्थ होता वर्गों में बँटा हुआ समाज अर्थात गुलामों और गुलाम-मालिकों, किसानों और सामंतो और आज का उजरती-गुलाम और बुर्जुआ समाज. और आप चिंतित हैं और आप का इतिहास कहता है ,”युवकों-युवतियों को पीनेपिलाने की आदत डाल दी गई वे सारे समाज क्रमश: इसी कारण बर्बाद हो गये”. नहीं साहब नहीं, ये समाज शराबखोरी से नहीं बल्कि वर्ग संघर्ष से समाप्त हुए और आधुनिक समाज भी जो उजरती गुलामों और बुर्जुआ वर्ग के संघर्ष से समाप्त होकर एक उच्च समाज में रूपांतरित होगा न कि शराबखोरी से. शराबखोरी से तो पूंजीपतियों को मुनाफा होता है और इस समाज की आयु भी लम्बी होती जिसको बचाने के लिए आप भी फिक्रमंद हैं.
आप आगे लिखते हैं.” इसका मतलब यह भी है कि अश्लीलता, अनाचार, नशा, शोषण, भ्रष्टाचार आदि के विरुद्ध हम सब को आवाज उठाते रहना चाहिये जिससे कि इनके विरुद्ध एक माहौल पैदा हो, और जिसके प्रभाव से सरकार उन व्यापारों एवं संस्थाओं को नियंत्रण में रखें जिनका लक्ष्य जनता का नैतिक शोषण है. आप “व्यापारों एवं संस्थाओं को नियंत्रण में” रखने के पक्ष में हैं और यह काम सरकार से करवाना चाहते हैं जबकि हकीकत में पूंजीवाद में सरकार का काम निजी मुनाफे पर आधारित व्यापारों और उद्योगों जो कि आधुनिक उजरती गुलाम की हड्डियों से निचोडा जाता है और इस सुंदर और आकर्षक लगने वाले शब्द जिसे मार्क्स ने ‘अतिरिक्त मूल्य’ कहा है की पवित्रता की रक्षा करना होता है. साधारण शब्दों में व्यापार और उद्योग सरकारें अर्थात राज्य मशीनरी को नियंत्रित करते हैं न कि इसके विपरीत.