मेरे आलेख वास्तविकता-प्रदर्शन -– जुगुप्सा प्रदर्शन ! और उसके पहले के कुछ आलेखों पर मिली कई टिप्पणियां काफी चौंकाने वाली एवं दिल को भेद जाने वाली हैं.
स्पष्ट है कि आज भारतीय समाज, सामाजिक मूल्य, धर्म, धार्मिक, नैतिकता, नैतिक मूल्यों के साथ बलात्कार हो रहा है, लेकिन हम में से अधिकतर मूँह बाये खडे हैं. जड हो गये हैं. अधिकतर लोगों को समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें. यह बहुत ही भयावाह स्थिति है.
स्थिति की भयावाहता इसलिये अधिक है कि हम लोग एक से चार दिन तक समाज को दर्द देने वाले आतंकवादियों के विरुद्ध कम से कम मानसिक रूप से एक जुट हो गये थे, लेकिन जो नैतिक आतंकवादी भारतीय समाज के मूल ढांचे को और इसकी नीव को खोद रहे हैं उनके विरुद्ध हम एकजुट नहीं हो पा रहे हैं. नैतिकता से संबंधित आधारभूत सच्चाईयों को दीमक लग रही है और ढांचा कभी भी ढह सकता है लेकिन हम “क्या किया जा सकता” है का जवाब नहीं पा सके हैं.
दर असल हम प्रौढ लोगों को एक अच्छा, बनाबनाया, स्थिर समाज मिल गया. यह समाज मूल्यों पर आधारित था. यहां बापबेटे, चाचाताऊ, बुआफूफा, भाईबहिन, नौकरचाकर, अपना स्थान जानते थे. अपनी सीमा नहीं लांघते थे. लगभग हर चीज का अपना स्थान था और इसे हर कोई जानता था. इन चीजों को अब तोडा जा रहा है. संपर्क माध्यम, द्रश्य-श्रव्य माध्यम अब धंधेबाजों के बुलडोजरों का काम कर रहे हैं और सीमाओं को बेदर्दी से तोड रहे हैं, हर सामाजिक मूल्य को नोचखसोट रहे हैं. हम चुप हैं. हमें जब सब बनाबनाय मिल गया तो हम क्यों परेशान हों.
हम भूल जाते हैं कि हमें सब कुछ बना बनाया अपने आप नहीं मिला, बल्कि हमारे बडे बूढों के कारण मिला. वे जानते थे कि समाज की कुछ सीमायें हैं, मर्यादायें हैं. इनको बनाये रखने के लिये उन में से कई लोगों ने अपनी जान तक दी. प्राण जाये पर वचन न जाये उनका आदर्श था.
यदि हम में से कम से कम कुछ लोग इस नजरिये को मजबूती से नहीं पकडेंगे तो हमारे नातीपोतों को सिर्फ नैतिक अंधकार से भरा एक संसार मिलेगा. यकीन नहीं होता तो पाश्चात्य राज्यों के देख लीजिये. हिटलर को याद कर लीजिये. [Picture by dotcompals]
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उल्लेखनीय प्रविष्टि. धन्यवाद
यह समाज मूल्यों पर आधारित था. यहां बापबेटे, चाचाताऊ, बुआफूफा, भाईबहिन, नौकरचाकर, अपना स्थान जानते थे. अपनी सीमा नहीं लांघते थे.
आदरणीय शास्त्री जी, आपकी इन बातों को अभी कोई ‘मुँहफट’ टाइप व्यक्ति सामन्ती सोच बताकर हवा में उड़ा देगा। स्वतंत्रता के नाम पर सभी मर्यादाओं और वर्जनाओं को तार-तार करते हुए आधुनिक समाज में स्वच्छन्दता ने घर जमाना शुरू कर दिया है।
आपकी चिन्ता बिल्कुल जायज है। किन्तु जायज बातों को हँसी में उड़ाने का फैशन चल पड़ा है। अपराध मुस्करा रहा है और शराफत शर्मा रही है।
समाज बदलता है, मूल्य भी बदलते हैं। लेकिन मानवीय मूल्यों का संरक्षण और अमानवीय मूल्यों का क्षरण समाज को स्थिर मजबूत बनाता है। इस से विपरीत प्रक्रिया सामाजिक संगठन के ढाँचे को आमूल बदलने की आवश्यकता प्रदर्शित करती है।
जो ये सोचते हैं कि इस प्रकार के उच्छृंखल युवा और लोग सिर्फ़ बातों और समझाइश से मान जायेंगे, वे नादान हैं, ऐसे लोग “इग्नोर” करने पर और अधिक नंगे होंगे… ऐसे लोग सिर्फ़ जूते खाकर ही ठीक होंगे, लेकिन जहाँ किसी ने ऐसी को्शिश की उसे तत्काल “फ़ासीवादी” और तालिबानी घोषित कर दिया जाता है, जबकि यदि समाज बढ़ती नंगई पर वाकई इतना ही चिंतित है तो इस प्रकार की “धुलाई ब्रिगेड” को समर्थन मिलना चाहिये, लेकिन ऐसा होता नहीं है, मतलब यह कि हम सभी पाखण्डी हैं…
आप की बात सही है।लेकिन जब कोई सुनना ही ना चाहे तो कोई क्या करें। आज की पीड़ी नैतिकता की अपनी परिभाषा गड़नी चाहती है।यदि कोई अंकुश लगाना चाहे तो वही हो रहा है जो सुरेश जी कह रहे हैं।
सत्यवचन, शास्त्री जी!
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गुलाबी कोंपलें
भाड में जाये नैतिकता !!
आप भी आर्टिकल लिखना छोडिये. अभी-अभी हमारे पड़ोस में नया-नया पब खुला है. आपको उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया जाता है. 🙂
@E-Guru
हम तो वहां काऊंसलिंग की दुकान खोल कर बैठेंगे.
उदघाटन के लिये आप को बहुत से लोग मिल जायेंगे, लेकिन जो जिंदगियां वहां तहस नहस होंगी उनकी मदद के लिये कम लोग मिलेंगे.
सस्नेह — शास्त्री
कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं आपने। परन्तु कुछ प्रश्न और भी ऐसे हैं जिनका समाधान किये बिना चीज़ों को नैतिक/अनैतिक घोषित करने से कोई समस्या हल नहीं होगी बल्कि अनेक नई समस्याएं भी उठ सकती हैं। मसलन:-
भारतीय समाज क्या पूरे भारत में एक जैसा है?
भारतीय सँस्कृति की परिभाषा क्या है?
नैतिकता की अवधारणा क्या देश,काल,और परिस्थिति से निरपेक्ष होती है?
नैतिकता हमारे खान-पान से तय होती है या हमारे आचरण से?
महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं आपने!!!आपकी चिन्ता बिल्कुल जायज है!!!! समाज बदलता है, तो मूल्य भी बदलते हैं।
पर कोशिश यही रहनी चाहिए कि कुछ मूल्य जो शाश्वत होते हैं …….. वो अक्षुण रहे !!!!
आपने लिखा जो है तो सही पर उसके समर्थन मे खडा होना थोडा मुशकिल काम है लोगो के लिये क्यो कि लोग नैतिकता दिखाते है- उस पर चलते नही है। आपका कहने का मतलब जहॉ तक मै समझता हु वो य ह है कि नैतिकता वैतिकता गई भाड मे इस नैतिकता को ताऊ कि भैस के गले मे डाल आओ!
अब प्रशन यह ऊठता है कि ऐसी विपर्यस्त स्थिति मे गुरुदेव आपके बताये मार्ग पर चलना ठिक है? समाज मे नैनिक मुल्यो का अवतरण कैसे हो ? क्या आप इस बारे मे सोचने को मजबुर नही कर रहे ? जिवन मे नैतिक मुल्यो का अवतरण युग कि माग है।वर्तमान भोगवादि समाज कि तमाम विसगतियो , विरुपताओ, और विडम्बनाओ के बिच नैनिक मुल्यो को जिन्दा रखना उदेश्य पुर्वक आप जैसे बडे लेखक कि सबसे बडी जिम्मेदारी है। यह इन्शानियत का भी तकजा है। इन्सान को जिन्दा रखना बहुत जरुरी है,केवल “आहर, निन्र्दा, भय, मैथुन वाला इन्सान नहीअपितु उससे बेहतर हर मायने मे, पर फिलाल ऐसा नही है।
यु सदियो से है आदमी का वजुद,मगर
आज भी तरसती है ऑखे,इन्सान के लिये॥
बहराल नैतिक मुल्य समाज धर्म परिवार देश के लिये महज जेवर नही होते है अपितु वे उसके प्राणो का स्पन्द होते है।
आइये हम सभी ब्लोग लेखक कोशिश करे कि न केवल लेखन मे वरन जीवन मे यथा शीघ्र नैतिक मुल्यो का अवतरण करे।
गुरुदेव ई गुरु के तेवर>>>>>>>>>> कुछ उखडे उखडे लग रहे है भाई>
नैतिकता?? शास्त्री जी, यह नैतिकता तो आज सच मै एक मजाक बन गया है, लोग उसे अनपढो ओर गवारो की बात मानते है( सभी नही) हम जब भी संस्कारो की बाते करे तो काफ़ी लोग, जो बुराईया है इस समाज मे उन्हे आगे कर देते है, ताकि बात आगे ना बढे,
लेकिन अगर हमे साफ़ सुथरा समाज लाना है तो हमे अपने बच्चो मे, ओर अपने मै वही संस्कार लाने होगे जो हमारे बुजुर्गो ने हमे दिये है, वर्ना एक दिन हम सब का पतन जरुर है, क्योकि जडो से कट कर कोई भी पोधा ज्यादा जीवत नही रहता, ओर एक समाज जब अपनी नैतिकता , अपने संस्कार से हट जायेगा तो…
बाकी सारी बात आप ने अपने लेख मै कह दी है, ओर मै उस से पुर्ण्ता सहमत हुं.
धन्यवाद