महाजाल पर सुरेश ने गजब का एक-लाईना दिया है “भ्रष्ट अधिकारियों की नींद हराम करें …”
सुरेश के चिट्ठे पर मैं टिप्पणी कम करता हूँ, लेकिन पढता हर आलेख को हूँ. कुछ बातों से असहमत हूँ, अधिकतर बातों से सहमत हूँ. बुद्धिजीवी समाज में शत प्रतिशत आपसी सहमति वैसे भी जरूरी नहीं है. लेकिन ऊपर जिस वाक्य का हवाला मैं ने दिया है उस से शत प्रतिशत सहमत हूँ.
हिन्दुस्तान आज जिस हालात में है वह किसी से छुपा नहीं है. लेकिन युक्तियुक्त तरीके से न सोचने के कारण एक बात हम सब से छुपी हुई है –- कि इस महान देश को इस हालत में रहने की जरूरत नहीं है. आज कोई हिन्दुस्तानी किसी अन्य देश में पहुंच जाता है तो यदि उसे वहां सीढी के सबसे नीचे खडा कर दिया जाये तो भी अंतत: वह सबसे ऊपर की सीढी पर पहुंच जाता है. कारण यह है कि वह अपनी उन्नति के लिये कार्य करता है.
लेकिन वही हिन्दुस्तानी अपने देश में काम नहीं करता है. “चलता है, चलने दो” के फलसफे पर चलता रहता है. ऐसा चलने दें तो फल यह होगा कि जल्दी ही हम मानसिक तौर पर अगले “ईस्ट इंडिया कंपनी” या अगले “ब्रिटिश साम्राज्य” के आधीन हो जायेंगे. यह मानसिक गुलामी शारीरिक गुलामी से सौ गुना नारकीय होगी.
लेकिन हम सब इस अंधी दौड, इस विनाशकारी प्रवाह, को तोड सकते हैं. यदि इस तरह के आलेखों को पढने वाल दस लोगों में से एक पाठक, लाखों शहीदों की कुर्बानी को याद कर, इस देश को पुन: सोने की चिडिया बनाने का संकल्प ले लें तो यह हो सकता है. अकेला चना भाड नहीं फोड सकता, लेकिन अकेला व्यक्ति बहुत कुछ कर सकता है.
इस क्रांति के लिये अगली बार जब किसी सरकारी दफ्तर जायें (नगर पालिका, पानी, बिजली, एकाऊटेंट जनरल, शिक्षा विभाग, सरकारी विद्यालय) तो कृपया अपने अधिकार का उपयोग करें. अपने अधिकार के लिये किसी भी व्यक्ति से “न” स्वीकार करें. वह जमाना लद गया जब सरकारी दफ्तरों का चपरासी भी लाट साहब होता था. लगे रहें, जब तक आपका काम न हो जायें.
जब एक सीमा से अधिक नागरिक अपने अधिकारों की मांग करने लगेंगे, तब क्रांति की वह नींव पड जायेगी जो आज की निष्क्रियता को जला कर खाक करे देगी.
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भ्रष्ट अधिकारियों की नींद हराम करें …बहुत जरुरी हो गया है अब. बिल्कुल सहमत हूँ.
लोगों को खुद ही नींद बहुत आती है। दूसरों की नींद हराम करने के खुद जागना पड़ता है जी!
आप ने सही कहा है। लेकिन इस जागने की कीमत भी देनी पड़ती है।
बात तो पते की है लेकिन साथ में नेताओं की नींद भी हराम करने की जरूरत है और इसकी शुरूआत वोट देने से हो सकती है। इसलिये इस चुनाव में घर से बाहर निकलें और जरूर वोट करें, उसके लिये अभी और आज ही रजिस्ट्रेशन करायें।
लेकिन हम सब इस अंधी दौड, इस विनाशकारी प्रवाह, को तोड सकते हैं.आपके इस लेख और विचारो से हम भी सहमत है….”
Regards
सही कहा आपने.
पर हमें तो वैसे ही नींद कम आती है. नींद की गोली लेनी पडती है. 🙂 कोई हमारी क्या नींद हराम करेगा?:) आखिर ताऊ (अफ़सर) जो ठहरे.
रामराम.
सही कह रहे हैं आप- “जब एक सीमा से अधिक नागरिक अपने अधिकारों की मांग करने लगेंगे, तब क्रांति की वह नींव पड जायेगी जो आज की निष्क्रियता को जला कर खाक करे देगी. ”
धन्यवाद इस आलेख के लिये.
भ्रष्टाचार तो आम आदमी की सहमति से ही होता है……जब तक हम अपने काम को दूसरों से महत्वपूर्ण समझते रहेंगे…….और उसे करवाने के लिए हर नियम कानून की धज्जियां उडाएंगे…..तो अधिकारी को तो भ्रष्टाचार का मौका मिल ही जाता है।
दुसरे की नींद हराम करने के लिए पहले खूद को जागना पड़ता है. 🙂
बात सही लिखी है.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध पूरे भारत को खड़ा होना पड़ेगा। भ्रष्ट करके गुलाम बनाना सबसे आसान मार्ग है। आजकल लोगों को यह कहकर उनका मुँह बन्द करने की कोशिश की जाती है कि “कौन भ्रष्ट नहीं है?” । मैं मानता हूँ कि यह बहुत बड़ा झूठ है । भारत की अधिसंख्य जनता भ्रष्टाचार से त्रस्त है; बहुत छोटी सी ही संख्या को इससे लाभ है।
बिल्कुल सही. एक मित्र हैं जिनकी आदत है की वे जो कुछ भी गडबडी देखते हैं एक पोस्ट कार्ड पर सम्बंधित अधिकारी और उसके ऊपर वाले को लिख कर भेज देते हैं. दिन में कम से कम १० पोस्ट कार्ड भेजते हैं.
कह तो सही रहे हैं आप भी और इत्ते सारे ब्लॉगर वरिस्थ और गरिस्थ भी!!
पर आप यकीन माने या न माने ……… सारे कार्य अब प्यार से हुए तो ठीक नहीं तो दबंगई का भीजोर हो चला है !!
वैसे अब हम कामना भी तो भगत सिंह के किसी पड़ोसी के घर में होने की करते हैं !!
शास्त्री जी, मै करता हू, यह काम (भ्रष्ट अधिकारियों की नींद हराम करें ) मओइ जब भी किसी काम के सिलसिले मै (भारत मै) किसी दफ़्तर मै गया, या फ़ि कही भी मेरे से किसी ने रिशवत मांगी, मै तो जोर जोर से बोलने लग जाता हुं, जिस का लाभ यह होता है कि लाईन मे लगे अन्य लोग भी मेरा साथ देते है, या बाहर खडे लोग, ओर वो अधिकारी हाथ जोड कर फ़टा फ़ट काम कर देता है, ओर मेरे साथ शायद कई लोगो का काम बन जाता होगा, ओर कई बार ऎसा हुआ है, अब मेरी मां मुझे कही नही भेजती, डरती है कही कोई मार ही ना दे… लेकिन मुझे कोई डर नही चाहे सामने पुलिस अधिकारी ही क्यो ना हो, ओर मेने देखा है अगर आप सच्चे है तो सामने वाला ज्यादा नही टिक पाता.
धन्यवाद
अधिकारी परमानेण्ट होता है और नेता टेम्परेरी। नेता भी अधिकारी के कहने पर चलता है। सच बात तो यह है कि देश को अधिकारी ही चला रहे हैं और समस्या की जड में भी ये ही हैं।
किन्तु शुरुआत करे कौन? हम कुछ भी खोना नहीं चाहते और सब कुछ पाना चाहते हैं।
हमें समस्या पता है, समस्या का कारण पता है और समस्या का निदान भी पता है। किन्तु हम ‘किसी और’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ‘वह’ आए और अफसरो से मुक्ति दिलाए। ‘वह और’ भी ‘किसी और’ की प्रतीक्षा कर रहा है।
वैसे अब तो यह मर्ज इतना बढ़ चुका है कि दो-चार या सौ लोगों के प्रयासों से कुछ नहीं होगा… एक महाअभियान की जरूरत है… मैं भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी को कानून के सामने नंगा खड़ा देखना चाहता हूँ, मैं अपने जीवनकाल में देखना चाहता हूँ कि लोग रिश्वत मांगने वाले कर्मचारी को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ाकर मार रहे हैं… और वह गिड़गिड़ा रहा हो… लेकिन मेरे चाहने से क्या होता है…