“गुलाबी चड्डी” अभियान: एक विश्लेषण! (केवल वयस्कों के लिये)

Panties परसों सुरेश चिपलूनकर ने अपने चिट्ठे पर एक बहुत ही विश्लेषणात्मक और सशक्त आलेख “गुलाबी चड्डी” अभियान से ये महिला पत्रकार(?) क्या साबित करना चाहती है?  छापा था.  सारथी के हर पाठक के लिये  सुरेश का यह लेख जरा मन लगा कर पढना जरूरी है. सुरेश के आलेख की  विषयवस्तु, Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women नामक चिट्ठे पर छपा एक आलेख था.

मामले को समझने के लिये सबसे पहले तो आलोच्य चिट्ठे के नाम और उस  के भावार्थ को जरा देख लें:

  • Pubgoing: शराबखानों को आबाद करने वाली
  • Loose: चालू, या नैतिकता को तिलांजली देने वाली (सामान्यतया हिन्दी में जिन को छिछोरी कहा जाता है)
  • Forward: प्रगतिशील

वे खुद साफ साफ  बता रही हैं कि यह चिट्ठा “शराबखानों को आबाद करने वाली, नैतिकता को तिलांजली देने वाली चालू  (या छिछोरी)” स्त्रियों का चिट्ठा है एवं इसे अपने इस जीवनशैली को एक प्रगतिशील कदम मानते हैं. इस स्त्री-चिट्ठे पर जो कुछ कहा गया है सुरेश ने जब  उसका विरोध किया तो तमाम हिन्दी चिट्ठाकार सुरेश का विरोध करने एवं उस चिट्ठे का (या चिट्ठाकारों का) खुले आम समर्थन करने के लिये आ गये जो डंके की चोट पर कह रही हैं कि यह शराबखानों को आबाद करने वाली  चालू (छिछोरी) स्त्रियों का चिट्ठा है.  दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो कम से कम कुछ हिन्दी चिट्ठाकारों की नजर में:

  • शराबखानों को आबाद करने में कोई बुराई नहीं है, बल्कि महान हैं वे जो यह कार्य करते हैं
  • डंके की चोट पर इसे कहते फिरने में भी कोई बुराई नहीं है कि हम यह काम करते हैं
  • कुछ स्त्रियां यदि साफ कह दें कि कि उसका नैतिक स्तर “चालू” या “लूज” (छिछोरा) है तो उनको उनके इस “प्रगतिशील” नजरिये के लिये  हर तरह का नैतिक समर्थन मिलना चाहिये
  • इस नैतिक समर्थन के लिये जरूरी हुआ तो सुरेश जैसे समाजप्रेमी को हर तरह से जलील किया जाना चाहिये, उनके आलेख के विरुद्ध ऊटपटांग तर्क देना चाहिये, उनकी नाक में दम कर देना चाहिये जिससे वे आगे इस तरह की “प्रगतिशील” नारियों के विरुद्ध जबान न खोल सकें.

कुछ और भी बातें स्पष्ट हुई हैं:

  • राम सेना के नायक का नाम, पता, आदि “शराबखानों को आबाद करने वाली  चालू (छिछोरी) स्त्रियों  के इस चिट्ठे” पर छापने एवं उस आदमी को जलील करना स्त्रियों की  “आजादी” का लक्षण है
  • लेकिन जो लोग डंके की चोट पर यह कार्य  कर रहे हैं  यदि उन स्त्रियों का नाम पता आदि सुरेश छाप दो तो यह अपराध है, सेन्सरिंग है, उग्रवाद है, फासिज्म है. चित तो तू हारा सुरेश, पट तो मैं जीता सुरेश!

इसका मर्म निम्न है:

  • इसका मतलब है कि कई हिन्दी चिट्ठाकार तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक पाश्चात्य जगत के शराबखानों में जो छिछोरी संस्कृति दिखती है वह हिन्दुतान में भी आयात न हो जाये
  • इसका मतलब है कि  उनको पश्चिमी जगत से आयातित वह छिछोरी संस्कृति अधिक पसंद हैं जहा स्त्री को महज एक तवाईफ के रूप में देखा जाता है जिसको पिलाओ, “लिटाओ”, और उपयोग के बाद रद्दी की टोकरी में फेंक दो
  • इसका मतलब है कि  सुरेश जैसे देश-प्रेमी पुरुषों का विरोध करना चाहिये लेकिन जो स्त्रीचिट्ठा डंके की चोट पर कह रहा है कि वह चालू या छिछोरी स्त्रियों का चिट्ठा है उसका अनुमोदन होना चाहिये.
  • इसका मतलब है कि  जो लोग संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं वे संकुचित नजरिये वाले  फासिस्ट है, लेकिन दूसरी ओर जो लोग एक सुसंस्कृत समाज को को बर्बाद करना चाहते हैं वे हमारे मसीहा हैं

सामूहिक शराबखाने (चाहे वहा देशी ठर्रा बंटता हो या भारत-निर्मित विदेशी मदिरा बंटती हो), सभ्य समाज पर एक कलंक हैं. इनका विरोध होना चाहिये. लेकिन विरोध लोकतांत्रिक, कानूनसम्मत, तरीके से होना चाहिये. जिन्होंने लडकियों को पीटा वे इसे नहीं जानते. देश की संस्कृति का संरक्षण उनके हाथ नहीं छोडा जा सकता.

लेकिन जो जनानियां अपने चिट्ठे पर अपने आप को चालू या छिछोरी बता रही हैं और जो जनानियां लोगों से पराये पुरुषों को अपने जांघिये भिजवा रही हैं, संस्कृति का संरक्षण तो उनके हाथ कतई भी नहीं छोडा जा सकता है क्योंकि इन लोगों का मिशन सिर्फ तब पूरा होगा जब जब हिन्दुस्तान की हर स्त्री इनके समान ही “प्रगतिवादी”  और छिछोरी चिंतन की न हो जायें.

हमारी मां, बेटी, बहुओं को इस “प्रगतिवाद” की जरूरत नहीं है!! उनके अधोवस्त्र जहां रहने चाहिये वहीं रहेंगे. सभ्य परिवारों में ये नुमाइश की चीजें नहीं हैं — अत:  न तो उनकी नुमाइश होगी,  न ही पराये पुरुषों को भेजे जायेंगे.

सुरेश के चिट्ठे पर आई एक उल्लेखनीय टिप्पणी:

(Common Man) मैं तो कहता हूं कि पब और बार बन्द होने चाहिये. कडुवा सच यह है कि अगर इस तरह के स्वतन्त्रता चाहने वाले अंग्रेजों के समय या मुगलों के समय में पैदा हुये होते तो हम आज भी गुलाम होते. एक चुनौती इन सभी चड्डी ब्रिगेड के लिये – जायें अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, पाकिस्तान और विरोध प्रदर्शित करें, वहां के लोगों के प्रति भी इनके दिल में संवेदना होनी चाहिये या फिर यह केवल भारत तक ही सीमित रख क्षुद्रता का परिचय दे रहे हैं. ग्लोबल बनें. मकबूल फिदा हुसैन से अपने घर की किसी स्त्री की ऐसी ही सुन्दर तस्वीर क्यों नहीं बनवाते फिदा के समर्थक. बनवायें तो मुझे एक प्रति अवश्य दें, मैं आभारी रहूंगा. मर कर चले गये सुभाष, भगत, आजाद और अशफाक और शहादतों से पाई स्वतन्त्रता इसलिये दे गये कि छिछोरों के हवाले कर दी जाये. खुलेपन और नंगई में कोई तो सीमा होना चाहिये.

रही बात व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की तो बहुत लोग यह भी कहेंगे कि ब्लू फिल्में बनाना और दिखाना लीगल कर दिया जाये, चरस-गांजा-अफीम-स्मैक के सेवन, बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी जाये, मुस्लिम शरीयत के लिये चिल्लाते हैं, सिख अपना कानून बनायेंगे, ईसाई अपना, हिन्दू अपना. कुछ लोग कहेंगे कि नरमांस भक्षण की छूट दी जाये, दी जायेगी, कुछ यह कहेंगे कि अपने यौन सम्बन्धों को लाइव दिखाना चाहते हैं, छूट दी जायेगी?? सत्य यह है कि जिस समय स्वतन्त्रता मिली हम लोग उसे पाने के हकदार थे ही नहीं. आसानी से मिली चीज का मूल्य समझ में नहीं आता, जिन्हें इसका मूल्य पता था वे शहीद हो गये. बन्दरों को उस्तरा मिल गया.

एक और बात:

कई चिट्ठाकारों ने मुझे पत्र भेज कर बताया कि एकदो स्त्रियों को मेरे इस आलेख के साथ दिये गये चित्र पर आपत्ति है.  जब लाखों की संख्या में गुलाबी स्त्री-चड्डियां पुरुषों को भिजवाई जा रही हैं, तब ये दोतीन स्त्रियां उसका अनुमोदन करती हैं. एक गुलाबी स्त्री-चड्डी का चित्र सारथी पर आ गया तो उनको आपत्ति है.

यही तो  मैं इस आलेख में कहना चाहता था — जब वे नंगे हो जाते हैं तो वह "आजादी" है,  जब हम उनकी नग्नता की ओर इशारा करते हैं तो उनको आपत्ति है.

इसी दुहरे-नंगेपन का ही तो विरोध सारथी पर चल रहा है!!

[Picture by Modernista! Amsterdam]

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Author: Super_Admin

45 thoughts on ““गुलाबी चड्डी” अभियान: एक विश्लेषण! (केवल वयस्कों के लिये)

  1. गाँधी जो शराब बंदी के पक्ष मे थे के कथित चेले पब विरोधियों को गांधीगिरी के नाम पर गुलाबी चड्डी बाट कर गाँधी के विचारो के साथ बलात्कार कर रहे है ऐसा मेरा मानना है

  2. शस्त्री जी बेफिक्र रहें भारतीय संस्कृति इतनी उथली नहीं कि इन छिछले प्रयसों से रसातल में चली जाय !

  3. सत्य यह है कि जिस समय स्वतन्त्रता मिली हम लोग उसे पाने के हकदार थे ही नहीं।
    आसानी से मिली चीज का मूल्य समझ में नहीं आता, जिन्हें इसका मूल्य पता था वे शहीद हो गये।

    अपनी आवाज में मेरी आवाज भी शामिल कर लीजिए।

  4. लेकिन मेरा प्रश्न है कि यह पब या बार बंद कौन करेगा? जो विरोधी हैं उनमें से ज़्यादातर आपको वही मिल जायेंगे। कहना अच्छा लगता है लेकिन निभाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि रातों की रंगीन रोशनी में छिपी कालख की ज़हरीली मिसरी का स्वाद ऐसी महिलाओं के बदन से कौन महसूस नहीं करना चाहता। मैं तो कहूँगा वेलेन्टाइन का विरोध करने वाले आपको अक्सर ऐसी जगहों पर मिलेंगे। यह वो लोग हैं जो अपने मतलब और नाम के लिए कृष्ण और राधा को छिछोरा कह दें।

    “कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
    पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले।”


    मोसे नैना मिलाइके/छाप तिलक

  5. समस्या का निदान खोज रहे हैं पर समस्या पर बात नहीं करना चाहते . किसी ने भी इस बात पर बात नहीं की हैं की ये सब क्यूँ हो रहा हैं .
    बहुत सिंपल हैं ये कह देना ये गलत हुआ पर उसका जो असर हुआ वो नहीं बताया गया .समाचार हैं की
    मुतालिक ने अपना ऑफिस बदल लिया हैं
    मुतालिक मंगलोर मे अब कोई वलेंटाइन डे पर आन्दोलन नहीं करेगे
    बाकी जगह वो केवल उन लोगो के आगे विद्रोह दर्ज कराये गे जो अश्लील कपडे पहनते हैं .
    जो भी नारी समाज के सामने नोर्भीक हो कर और अपनी शरीर को भूल कर तन के खडी हो जा टी हैं उसको सब ही “ग़लत ” मानते हैं . आरे जिस नारी शरीर को ले कर इतनी हाय तोबा हैं उसको केवल और केवल शरीर माने जसे पुरूष शरीर वैसे ही नारी शरीर . क्यूँ नारी शरीर को इतनी तवाजो दी जाती हैं की उसको ढांके बिना भारतीये संस्कृति भ्रष्ट हो जायेगी . और जो ढांक कर रहती हैं उनको अनाव्रत करने के किये सब तैयार होते हैं वही पब मे हुआ .

  6. @Rachna

    आप ने कहा “समस्या का निदान खोज रहे हैं पर समस्या पर बात नहीं करना चाहते”

    एक काम कीजिये न! आप के अपने चिट्ठे पर समस्या के कारण और निदान पर एक लेखन परंपरा क्यों नहीं आप छाप देती? हम सब उसे जरूर पढेंगे.

  7. I am not a writer but after reading your article, i felt like you have expressed what i was feeling deep within my heart and am extremely thankful to you for this. These cheapsters should be dealt with seriously.
    Good analytical article. “Aapka mureed ho gayaa”

  8. सर क्षमा मांगने के साथ यह कहना चाहूंगा की आपने रचना जी को को प्रतिउत्तर दिया है वह बिना सोचे-विचारे जोश में आकर लिखा गया लगता है.. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लग रहा है..

    मैं सुरेश जी के लेखनी का दिवाना हूं, मगर इसका मतलब यह नहीं की जो कुछ भी वह कह दें उसे आंख मूंद कर मान लें.. मैं पब में किसी के भी जाने का विरोधी हूं और साथ ही यह भी स्वीकार करता हूं की मैं भी एक बार पब जा चुका हूं और मुझे उसका अफ़सोस भी है..

    यहां सुरेश जी और आपने अब तक जो कुछ भी लिखा है मैं उससे भी मैं असहमत हूं, क्योंकि आप दोनों के लेख से ऐसा लगता है कि आप दोनों ही प्रमोद मुतालिक की मार-पीट वाले विचार के समर्थक हैं..

    जो हुआ गलत हुआ.. जो हो रहा है वह भी गलत है.. मगर जिसने शुरूवात की उसे अनदेखा कर आप लोग उस पर तुले पड़े हैं जो अभी गलत कर रहे हैं.. यह अपरोक्ष रूप से पहले गलत का समर्थन ही मुझे लग रहा है.. जिसका समर्थन कम से कम मैं नहीं कर सकता हूं..

    अंत में मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा की यह पोस्ट मुझे सारथी के स्तर की बिलकुल नहीं लगी.. सारथी पर अब तक मैं दोनों ही पक्षों को देखता-सुनता आया हूं, मगर इस प्रसंग पर सारथी अपने स्वभाव से हटा हुआ लग रहा है और कहीं ना कहीं पितृसत्तावादी सोच हावी दिख रही है..

    (मेरे मन में आपका बहुत सम्मान है, मगर फिर भी कुछ कड़ी बातें लिखने से मैं खुद को रोक नहीं पाया.. विचारों की अभिव्यक्ति होना मैं ज्यादा जरूरी समझा.. मगर वह सम्मान अभी भी बरकरार है.. पुनः क्षमाप्रार्थी हूं..)

  9. ऊपर आपने जो तस्वीर लगाई है क्या वो आपके इस आलेख से मेल खाती है?????????

    ऊलटी हो रही है… कहाँ करू?

    जैसी यहा की फ़िज़ा है.. मुझे इस पर कोई कमेंट नही करना.. शायद आप मुझे ये कहे की मैं अपने ब्लॉग पर लिखू 🙂

  10. @प्रशांत

    प्रिय प्रशांत, मैं कम से कम तीन बार अपने आलेखों में कह चुका हूँ कि राम सेना ने जो किया वह गलत है. तुम ने उसे नहीं देखा इस कारण गलतफहमी में हो.

    रचना जी से सोच समझ कर ही कहा है कि जो वे कहना चाहती है वह दूसरों से कहलवाने के बदले खुद कह दें तो बेहतर होगा.

    इस संदर्भ में मेरे आलेखों पर पुनर्विचार करो.

    असहमति में कोई बुराई नहीं है. सुसंस्कृत समाज की विशेषता ही यह है कि हम आपस में आदर के साथ शास्त्रार्थ करें

    सस्नेह — शास्त्री

  11. @अनिल

    मैं ने भी सेना के तरीकों का अनुमोदन कहीं भी नहीं किया है.
    दर असल दोनों तरफ से ही गलत तरीके अपनाये जा रहे हैं

    सस्नेह — शास्त्री

  12. शास्त्री जी,
    आपकी इस पोस्ट पर बहुत अफ़सोस हुआ है। आप इस मुद्दे पर बहस के चलते भटक से रहे हैं। Figuratively और Literally में कुछ फ़र्क होता है लेकिन आपको उसका अर्थ Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women ही मिला। Facebook पर पाँच हजार से अधिक लोगों ने इसी नाम के ग्रुप को समर्थन दिया है लेकिन इस ब्लाग के टाईटल का अर्थ उसके शब्दों में नहीं है।

    अब इस मुद्दे पर बहस छिन्नावेषण तक आ चुकी है, आगे कहाँ जायेगी कोई पता नहीं।

  13. @नीरज रोहिल्ला

    प्रिय नीरज, 5000 नहीं यदि 50,000 लोग गलत बात का (स्त्रियों की चड्डी पुरुषों को भेजने का) समर्थन करें तो भी मैं उसका विरोध करूंगा.

    हां, शास्त्रार्थ के लिये खुले होने के कारण इसके विपरीत टिप्पणियों का हमेशा स्वागत रहेगा

    सस्नेह — शास्त्री

  14. कई चिट्ठाकारों ने मुझे पत्र भेज कर बताया कि एकदो स्त्रियों के मेरे इस आलेख के साथ दिये गये चित्र पर आपत्ति है.

    जब लाखों की संख्या में स्त्री-चड्डियां पुरुषों को भिजवाई जा रही हैं, तब ये स्त्रियां उसका अनुमोदन करती हैं. एक चित्र सारथी पर आ गया तो उनको आपत्ति है.

    यही मैं इस आलेख में कहना चाहता था. जब वे नंगे हो जाते हैं तो वह “आजादी” जब हम उनको नंगा कहते हैं तो उनको आपत्ति है.

    इसी नंगेपन का तो विरोध चल रहा है!!

  15. आप किस बात के विरोध में है ? मुतालिक का विरोध करने से या उसका विरोध करने के तरीके से ?समझ नही पाया ?
    जो संस्क्रती मुगलों ओर अंग्रेजो के बरसो के शासन काल में नही टूटी अचानक इतनी कमजोर कैसी हो गयी की चंद स्त्रियों के पब में जाने से टूट जायेगी ?क्या वाकई इतनी कमजोर है हमारी संस्क्रति ?इस देश में कितने पब है ? ओर कब से ? ?गाँवों में ,कितने पब है ?वहां की शिक्षा दर क्या है ?
    श्रीनगर का रास्ता क्यों कोई सेना नही देखती .जहाँ २३ लोगो को एक साथ खड़ा करके मारा जाता है ?कोई सेना दिल्ली की उस बस्ती में क्यों नही झांकती जहाँ श्रीनगर के विस्थापित है …..कोई इतना बड़ा विरोध तब क्यों नही कोई सेना उठाती जब पाकिस्तानी सेना हमारे भारतीय शहीद जवानो के शरीर का अपमान होता है ओर उनके शत विक्षत शरीर उनके परिवार को सौपे जाते है .कोई सेना तब कोई आन्दोलन क्यों नही चलाती ????कहने सुनने को ढेरो बातें है शास्त्री जी …..

    पर हैरानी से ज्यादा दुःख है की मूल मुद्दे से भटक-कर हम अजीब किस्म की अनर्गल गैर जरूरी बहसों में उलझकर रह गये है .कई जगह बहस का स्तर निहायत ही व्यक्तिगत ओर निजी हो गया है …क्या वास्तव में हम लोग पढ़े लिखे समाज का प्रतिनिधित्व करते है ?
    यदि विरोध के लिए चड्डी की जगह जूते या फूल जैसे विम्ब का इस्तेमाल होता तो ? बहुत सारे लोगो ने इस अभियान को पब कल्चर ओर वेलेंटाइन डे सीधा जोड़ दिया ..क्यों जोड़ा समझ नही आया .शायद शीघ्र प्रतिक्रिया देने की हड़बड़ी में .
    यहाँ सवाल किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हनन था …..केवल स्त्रियों के पब में जाने से संस्क्रति खतरे में क्यों है ?इस देश में कितने पब है ?ओर कितने शहरों में है ?
    ओर शराब के ठेके ?किस राज्य में अपराध ,बलात्कार सबसे ज्यादा है ?किस राज्य में स्त्री-पुरूष संख्या का अनुपात दर सबसे कम है ?किस राज्य में दहेज़ हत्या सबसे ज्यादा है ?इस देश के कितने गाँवों में लड़कियों के १२ तक स्कूल है .ओर उनमे से कितने लोग अपनी लड़कियों को १२ तक पढाते है ?क्या कारण है की हमने किसी पुरूष को अपनी पत्नी की मौत के बाद सती होते नही सुना ……..इतने वर्षो में भी….आज भी देश में ऐसे कितने मन्दिर है जहाँ स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है ,दलितों का प्रवेश वर्जित है ?कितने घरो में स्त्री को आर्थिक ओर दूसरे सामाजिक विषयों में निर्णय लेने की भागीदारी है ?बावजूद नौकरी करते हुए ?तो क्या सब जगह पब है ?पब आये तो शायद ३ साल हुए होगे या ४ साल …तो संस्क्रति कहाँ बैठी थी अब तक ?मुआफ कीजिये हम सब दोगले है …..
    आख़िर में एक बात सुरेश जी के लिए उनके लिए मन में आदर है क्यूंकि उन्होंने कई राष्टवादी मुद्दे उठाये है …ओर बेबाकी से उठाये है .जहाँ भी वे राष्टवादी मुद्दे उठाएंगे वहां साथ रहेगा .पर यहाँ उनसे असहमत हूँ…पर जानता हूँ असहमति व्यक्त करना भी अभिव्यक्ति ही है………
    पर इस ब्लॉग जगत में कभी कभी कुछ लोगो की खामोशी भी खलती है…..

  16. @Dr anurag

    प्रिय डा अनुराग, मेरा अलेख एक “विश्लेषण” है. यदि आप इस बात को नोट कर लें तो मामला स्पष्ट हो जायगा कि मैं किस बात का विरोध कर रहा हूँ. सारथी पर पधारने के लिये एवं टिप्पणी करने के लिये आपको मेरा आभार !!

    सस्नेह — शास्त्री

  17. यह बात अपनी जगह सही है की श्रीराम सेना द्वारा की गई मारपीट ग़लत है मगर उसका विरोध करने के लिए स्तरहीनता का सहारा लेना कहा तक सही है? कुछ पुरूष इस चड्ढी अभियान का जम कर समर्थन कर रहे है. उनको शायद यह और इतना ही समझ में आता है कि कुछ तथाकथित प्रगतिशील नारियो के हर काम सही और नारियो कि भलाई के होते है. और उनके समर्थन में जो पुरूष न हो उनका आँख मूँद कर विरोध करना चाहिए.
    प्रश्न यह है कि विरोध का क्या तरीका सही है इसका फ़ैसला कौन करेगा. अगर पुरुषों की आपत्तियों को दरकिनार भी कर दिया जाए तो क्यो न इस मुद्दे पर सामान्य महिलाओ के विचार जानने का सर्वेक्षण करा लिया जाए की पब में जाने की स्वंत्रतता में बाधक तत्वों को अपनी चड्ढी भेजना सही है या ग़लत. उम्मीद है की सामान्य नारी के विचार भी कम महत्वपूर्ण नही है मगर न उनको इस मुद्दे से मतलब है न वो बोल रही है.
    दूसरी बात, विरोध के और भी तरीके हो सकते थे मसलन आगामी लोक सभा चुनावो में वो सभी महिलाये उम्मीदवारी का पर्चा भर देती जो इस चड्ढी अभियान से जुड़ी है. अथवा वो सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध कुछ सार्थक काम करती जैसे कुछ स्थानों पर महिलाओ द्वारा पुरुषों का शराब पीना बंद कराने के लिए शराबखानों को तोडा गया है. इसके अलावा बहुत सी योग्य लड़किया सक्षम और योग्य होते हुए भी पैसे के या साधनों के अभाव में नौकरिया पाने से वंचित रह जाती है. ऐसी लड़कियों की सहायता के लिए वो नारिया क्यो नही काम करती जो नारी स्वतंत्रता के इन मुद्दों पर लड़ रही है. क्यो न महिलाओ के हितों के लिए संघर्ष करने वाली महिलाये कुछ ऐसा सार्थक और ठोस काम करे जिससे समाज की आम नारी जो साधनों के अभाव में पिछडी और जागरूक नही है उनका कुछ भला हो सके.

  18. बार बार ऊपर स्‍क्रोल कर खुद को विश्‍वास दिलाना पड़ा कि कि ये वाकई शास्‍त्रीजी का ही चिट्ठा है। (अगर शास्‍त्रीजी ने किसी अन्‍य को प्रकाशनाधिकार दे न दिए हों) आश्‍चर्यजनक तर्कश्रृंखला है… हिन्‍दी का एक सबसे दमदार चिट्ठा दीप्ति का लूज शंटिंग है… कोई हैरानी नहीं कि वो भी आपको छिछोरी दिखती होंगी… आखिर इसी चिट्ठे में दीप्ति बार बार बताती रही हैं कि छिछोरापन कैसे सुसंस्‍कृत लोगों की अवचेतन से भी टपक टपक पड़ता है।

    वाकई सुरे
    श चिपलूनकर भयानक देशभक्‍त हैं… और ये पत्रकार ब्‍लॉगर मित्र जो एक अन्‍य भयंकर देशभक्‍त मुतालिक को संदेश देना चाहती हैं उन्‍हें भयानक राष्‍ट्रदोही करार भी आप लगभग दे ही रहे हैं… तो क्‍या आदेश हुआ है सूसन के लिए राष्‍ट्रभक्‍तों की ‘शूरा’ में .. सरेआम कत्‍ल किया जाएगा ये केवल मारपीटकर बख्‍श देंगे।

    यदि व्‍यंग्‍य की भाषा छोड़कर सीधी भाषा में कहें तो आपकी तर्कश्रृंखला कुतर्क की ओर इतनी झुकी बस इसलिए लग रही है कि आप ‘प्रतीकात्‍मकता’ का एक सहूलियत भरा अर्थ मात्र लेना चाहते हैं. विरोध करने वालों के खिलाफ व्‍यक्तिगत छींटाकशी (और सेनाई लागों को राष्‍ट्रभक्ति के तमगे बॉंटने) की बजाय उस आसन्‍न संकट को समझने का प्रयास करें जो इन मुतालिकों से देशभर के सामने है। आप चड्डी से न करें, चीखकर कर लें पर इन्‍हें खूब जोर से ये संदेश दिए जाने की जरूरत है कि ये समाज किसी भी सेनाई कुक्‍कुट को बांग देकर मसीहा बनने की इजाजत नहीं देगा। लेकिन आप तो विरोध के स्‍थान पर विरोध का ही विरोध करने पर उतारू हो गए। खेद है

  19. @मसिजीवी

    प्रिय दोस्त, मुझे (कई कारणों से) उम्मीद थी कि आप आज जरूर मेरे चिट्ठे पर पधारेंगे. आप आये, बडा अच्छा लगा. वादविवाद तो लगा रहता है क्योंकि हम में से कोई भी आपस में एक दुसरे से शत प्रतिशत सहमत नहीं होता है. लेकिन असहमति के बीच जब लोग आपस में शास्त्रार्थ करते हैं — जैसा कि आप ने किया है — तो हरेक को सोचने का मौका मिलता है. यदि सोच में गलती हुई हो तो उसे सुधारने का भी मौका मिलता है. इसी कारण आप जैसे चितक-अध्यापक की टिप्पणी मेरे लिये काफी मायना रखती है.

    अब आते हैं विषय की ओर! मैं ने अपने सब लेखों में बार बार यह बात कही है कि सेना ने जो पिटाई की थी वह गलत है एवं नैतिकता के सुरक्षा का तरीका यह नहीं है. शायद इस बात की ओर आप ने ध्यान नहीं दिया है.

    मेरा यह आलेख तो सिर्फ दो, और केवल दो ही, बातों का विश्लेषण है. इसे उसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये.

    (1) — सुरेश के आलेख को लोगों ने तर्क की कसौटी पर नहीं कसा है
    (2) — नैतिकता न तो सेना के हाथ छोडी जा सकती है न ही Pub-going, Loose-living के हाथ दी जा सकती है.

    यदि आलेख को वस्तुनिष्ट तरीके से पढा जाये तो मेरा अनुमान है कि ये दोनों बातें व्यक्त हो जायेंगी.

    हां एक बात ओर, जब हर किसी को मूल चड्डी-विवाद “प्रतीकात्मक” दिख रही है तो मेरा अनुरोध है कि सारथी पर छपे आलेख को भी इसी नजरिये से देखा जाये.

    सारथी पर अपना अनुग्रह बनाये रखें!!

    सस्नेह — शास्त्री

  20. चड्डी वालियां वर्सेस चड्डे वाले

    प्रमोद मुतालिक और गुलाबी चड्डी अभियान चला रही (Consortium of Pubgoing, Loose and Forward Women) निशा (०९८११८९३७३३), रत्ना (०९८९९४२२५१३), विवेक (०९८४५५९१७९८), नितिन (०९८८६०८१२९) और दिव्या (०९८४५५३५४०६) को नमन. जो श्री राम सेना की गुंडागर्दी के ख़िलाफ़ होने के नाम पर देश में वेलेंटाइन दिवस के पर्व को चड्डी दिवस में बदलने पर तूली हैं. अपनी चड्डी मुतालिक को पहनाकर वह क्या साबित करना चाहती है? अमनेसिया पब में जो श्री राम सेना ने किया वह क्षमा के काबिल नहीं है. लेकिन चड्डी वाले मामले में श्री राम सेना का बयान अधिक संतुलित नजर आता है कि ‘जो महिलाएं चड्डी के साथ आएंगी उन्हें हम साडी भेंट करेंगे.’
    तो निशा-रत्ना-विवेक-नितिन-दिव्या अपनी-अपनी चड्डी देकर मुतालिक की साडी ले सकते हैं. खैर इस आन्दोलन के समर्थकों को एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि इससे मीडिया-मुतालिक-पब और चड्डी क्वीन बनी निशा सूसन को फायदा होने वाला है. आम आदमी को इसका क्या लाभ? मीडिया को टी आर पी मिल रही है. मुतालिक का गली छाप श्री राम सेना आज मीडिया और चड्डी वालियों की कृपा से अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सेना बन चुकी है. अब इस नाम की बदौलत उनके दूसरे धंधे खूब चमकेंगे और हो सकता है- इस (अ) लोकप्रियता की वजह से कल वह आम सभा चुनाव में चुन भी लिया जाए. चड्डी वालियों को समझना चाहिए की वह नाम कमाने के चक्कर में इस अभियान से मुतालिक का नुक्सान नहीं फायदा कर रहीं हैं. लेकिन इस अभियान से सबसे अधिक फायदा पब को होने वाला है. देखिएगा इस बार बेवकूफों की जमात भेड चाल में शामिल होकर सिर्फ़ अपनी मर्दानगी साबित कराने के लिए पब जाएगी. हो सकता है पब कल्चर का जन-जन से परिचय कराने वाले भाई प्रमोद मुतालिक को अंदरखाने से पब वालों की तरफ़ से ही एक मोटी रकम मिल जाए तो बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी. भैया चड्डी वाली हों या चड्डे वाले सभी इस अभियान में अपना-अपना लाभ देख रहे हैं। बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता.

  21. @आशीष कुमार ‘अंशु’

    “बेवकूफ बन रही है सिर्फ़ इस देश की आम जनता.”

    बहुत सही निरीक्षण!!!

  22. फ़िर आज खुल कैसे गये, उसी समय से बंदिश रखनी थी… मुझे राम सेना या किसी कुचरित्रा से लेना देना नहीं बस सही क्या है इससे मतलब है।

    “# Shastri JC Philip Says:
    February 13th, 2009 at 9:54 am

    @विनय

    सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय शराबखाने किस ने बंद करवाये थे?”

  23. आपकी इस पोस्ट को हड़बड़ी में लिखी गयी पोस्ट मान भी लेता.. पर आपकी टिप्पणियो में नैतिकता का पतन सॉफ झलकता है.. आप अपनी पर्सनल सेटिसफ़ेक्शन के लिए कहा से कहा पहुँच गये..

    पहले आपको लड़कियो के चड्डी भेजने पर आपत्ति हुई.. अब आप लड़कियो के ब्लॉग पर कमेंट करने पर आपत्ति उठा रहे है..

    आप ही के शब्द बता रहा हू.. आपने कुछ यू लिखा है..
    जब वे नंगे हो जाते हैं तो वह “आजादी” जब हम उनको नंगा कहते हैं तो उनको आपत्ति है..

    आप नंगा कहना ही क्यो चाहते है?? इसके पीछे प्रयोजन क्या है??

  24. @कुश

    प्रिय कुश, मेरे “नैतिक पतन” के बारे में आपके “सर्टिफिकेट” के लिये आभार!! मैं इसे मिटाऊंगा नहीं, यह सर्टिफिकेट सारथी पर बना रहेगा.

    अब आते हैं विषयवस्तु पर कि मैं नंगा क्यो कहना चाहता हूँ!! करण यह है कि “नंगा” के लिये “नंगा” के अलावा कोई शब्द एकदम समझ में नहीं आता है.

    हां, मेरे आलेख का “लडकियों के चिट्ठे पर टिप्पणी” से कुछलेनादेना नहीं है, न ही मैं ने ऐसा कहीं लिखा है, पता नहीं यह व्याख्या आप कहां से उठा लाये.

    सारथी पर आते रहें, टिप्पणी देते रहें, शास्त्रार्थ में भाग लेते रहें!!

    सस्नेह — शास्त्री

  25. शास्त्रीजी की बात तो सच है, पर जिन्हें नहीं समझना वे कभी नहीं समझेंगे, ‘विलफुल इग्नोरेंस’ जिसे कहते हैं न. वरना समझदार को इशारा ही काफी होता है.

    सोते को जगाना सरल है, पर सोने का नाटक करने वाले या मुर्दे को जगाना असंभव.

    डिस्क्लेमर: टिप्पणी को प्रतीकात्मक रूप में लें.

  26. @vivek

    बहुत सुंदर विवेक, बहुत सुंदर टिप्पणी.

    इस प्रशंसा को वास्तविक प्रशंसा के रूप में लें, प्रतिकात्मक नहीं!!

  27. @दिनेशराय द्विवेदी

    प्रिय दिनेश जी, वैचारिक जगत में शत प्रतिशत मतैक्य वैसे भी संभव नहीं है, खास कर जब किसी विषय में बहुत सारे घटक (धर्म, संस्कृति, राजनीति, व्यक्तिगत राय) जुडे हों. मतांतर चलने दें, बस आपसी वैमनस्य न हो. कम से कम मैं ने आज तक मेरे आलेखों की कटु आलोचना करने वालों से भी वैमनस्य नहीं पाला है.

    शास्त्रार्थ चलने दें, सच्चाई अपने आप विजय पताका फहरा लेगी!

    सस्नेह — शास्त्री

  28. शास्त्री जी धन्यवाद् इतने सुंदर विश्लेषण के लिए. बहुतो को समस्या है कि मुतलिक ने जो किया है वो ग़लत किया है और इसलिए चड्ढी बांटो अभियान पर कोई विरोध नही होना चाहिए. मै समर्थन करता हूँ उनसभी का और कभी समर्थन नही कर सकता मुतालिक जैसे लोगों का. पर एक प्रश्न जिसका जवाब मुझे चाहिए: अगर कोई स्त्री महिला सड़क पर खड़ा हो पेशाब कर रही हो और अगर किसी ने उसे मन करने की कोशिश कि तो क्या उस व्यक्ति को अपमानित करने के लिए वो महिला वही नंगा हो कर उसके ऊपर पेशाब करने लगेगी और आप उसका भी समर्थन करेंगे?
    मुद्दा की बात अगर ये है कि क्या हम मुतालिक या उसके तरीको का समर्थन कर सकते है? मेरा जवाब है कदापि नही और शायद बहुतों का जवाब यही होगा और हमे विरोध भी करना चाहिए उन तरीको का. करेंगे भी, आप भी करो हम साथ देते है. पर इसके लिए हम अपनी बहन बेटियों कि चड्ढिय नही बाँटेगे. और हम उनसे भी पूछेंगे जो इस अभियान का समर्थ कर रहे है कि क्या आप भी अपने बहन, बेटी और बीबी की चड्ढी उन्हें भेज रहे हो क्या?
    महिला अधिकारों की पैरोकारी करना अलग बात है, पर जब कोई आग में मुतने लगे तो उसे समझाने की भी जरुरत होती है, ना कि ‘श्रधेय माता तेरी जय हो’ कर के ख़ुद को स्त्रीवादी सिद्ध करने में.
    आप इस लेख से सहमत न हो तो कोई बात नही है. पूर्ण सहमती तो तानाशाही में ही हो सकती है. पर इसके लिए अनापशनाप तरीके से कुसंस्कृति को बढावा देने का प्रयास ना करे.

  29. आदरणीय शास्त्रीजी,

    आपकी चिन्ता जायज है। हिंसा (मुथालिक) और अश्लीलता (चड्ढी-प्रेषण) दोनो का विरोध करना होगा। भारतीयता की सांस्कृतिक पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए इन दोनो असुरों से लड़ना होगा। लेकिन मेरा मानना है कि इनका विरोध करने के लिए हमें भी हिंसात्मक या अश्लील तरीकों से परहेज करना चाहिए।

    आपने स्वयं इस आलेख को केवल वयस्कों के लिए उपयुक्त माना है। यानि आप स्वयं यह मानते हैं कि यहाँ कुछ ऐसी सामग्री है जिसे सार्वजनिक रूप से उपयोग किया जाना श्रेयस्कर नहीं है। कोई न कोई मर्यादा यहाँ अतिक्रमित हो रही है। कदाचित्‌ टिप्पणियों में और अन्यत्र भी इसके विरोध का आधार इस चिठ्ठे की स्थापित छवि से कुछ अलग भाषा शैली और चित्र का प्रयोग है।

    सादर!
    (सिद्धार्थ)

  30. शास्त्री जी,
    क्षमा चाहता हूं पर निराशा हुई है आपसे। आपने भले ही यह कहा है की सेना के कार्यों का अनुमोदन आपने नहीं किया पर आपके आक्रमण की धार पूरी तरह उन लोगों और समूहों के विरुद्ध केन्द्रित है जो मुतालिक और उसके ग़ुण्डों की भर्त्सना/निन्दा/आलोचना कर रहे हैं। चरित्र और नैतिकता क्या खानपान से तय होते हैं आचरण से नहीं? आपकी दृष्टि में शराब पीना अनैतिक और भारतीय सँस्कृति के विरुद्ध हैं। फिर तो लगभग सारे आदिवासी, मिज़ोरम,मेघालय व अन्य क्षेत्रों के निवासी जिनके लिये शराब दैनिक आहार का एक हिस्सा है आपकी परिभाषा के अनुसार अनैतिक और अभारतीय हुए । और मेरे सीमित से अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि महिलाओं का मान-आदर वे लोग इन भारतीय सँस्कृति के स्वघोषित ठेकेदारों से हज़ारगुना जानते और करते हैं। कुछ लोग पब में शान्ति से बैठ कर शराब पीना पसन्द करते हैं और कुछ अन्य बिना पिये ही हुड़दंग और मारपीट करके पूरे समाज को आतंकित करते हैं तो एक सभ्य जनतान्त्रिक समाज में हमें यह तय करना होगा कि हम किसके साथ हैं और किसके विरुद्ध।

  31. indeed every body has the right to lodge the protest against atrocities but they must understand that we have certain social norms and above all we must think that what we are going to achieve by the way of protest. i dont say that i or anybody has the right to tell anybody how to protest but there must be someone to guide the society. a civilized society cant be left to be guided by some so called forward person who just want the liberty to live as per their norms and standards. in their terms it may be asked who are these persons to guide sriram sena how to protest.
    every action has the reaction and so on so if pink panty is the reaction of the act of sena then these protests against this pink panty campaign are the reactions of pink panty campaign.
    they also mean to say that pink panty campaign has the right to tell the limits of others but nobody has the right to tell them their limits or question their way of protest?
    they also mean to say that only these few persons behind this campaign are the only wise persons in this country to decide all the terms for the society and any voice against their campaign is not fair? how this could be justified?
    do only these persons behind such campaign are the true representative of the society or half world and only they have the right to decide what is right and what is wrong?

  32. @Amar Jyoti

    अमर जी, आप ने एक बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया और
    उसके लिये आभार. यही खुले शास्त्रार्थ की विशेषता है कि हम
    सब एक दूसरे से सीखते हैं.

    आप ने पूर्वी भारत का उदाहरण अच्छा दिया है. लेकिन इस में और पब कल्चर में काफी अंतर है.

    मुझे लगता है कि इस विषय पर मेरे विचारों को बहुत ही न्यूट्रल तरीके से एकाध दो लेखों में प्रस्तुत कर दूँगा, और इससे मामले का और अधिक खुलासा होगा.

    सारथी पर अपना अनुग्रह बनाये रखें !!

    सस्नेह — शास्त्री

  33. आदरणीय बन्धुओं, न तो मैं श्रीराम सेना का समर्थक हूं और न ही इन लोगों द्वारा की गयी मार-पीट का. नशा किसी भी धर्म में अच्छा नहीं बताया गया और न ही इसमें मुझे भी कोई अच्छाई दिखाई देती है. नशे में धुत होकर आदमी गलत कार्यों की ओर मुड़ता है या कहें कि गलत काम करने के लिये ही नशा करता है. क्या विरोध जताने के लिये चड्डी और कंडोम ही सूचक हैं? क्या हम अपने घर और सार्वजनिक जीवन में भी इन चीजों से विरोध जताते हैं. यह तरीके मात्र सेन्सेशन पैदा करने के लिये हैं. वैलेन्टाइन डे कोई मनाये, न मनाये, ठीक है, विरोध करे, न करे वह भी ठीक है, लेकिन लट्ठ लेकर पीटना एक अपराध है, फिर चाहे वह एक आम आदमी करे, नेता या पुलिस. मेरा आक्रोश है तो यह कि लगभग रोज ही एक क्लिप टीवी पर आती है जिसमें पुलिस लोगों को जानवरों की तरह पीटती है, लेकिन आजतक ऐसे पुलिसवालों के लिये तो किसी ने फूल नहीं भेजे.

  34. Congratulations to all the learned people for this high voltage discussion.
    But I want to say to all those who are “Looking After” Indian Culture; and protesting the freedom of living being:-> just look after it within your Home, if possible.
    Whatever may be the nudeness around, you can very well protect old values within your family.
    Just make sure that none of your family women get “corrupt” by these Western values being displayed openly.( Ask them what they will do if they were free to live, without boundations proposed by you).
    I bet that all of you moral policemen are a big failure when it will come to follow the same rules for your own family women.(Please be honest)
    If not, then all of our society is going back to the Era of Ram-Rajya( to be very sure).

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