जब आप का बच्चा उल्टासीधा बोलने लगे!

Mother हम सब अपने बच्चों को एक स्वस्थ और नैतिक समाज प्रदान करना चाहते हैं, और उससे भी यही उम्मीद करते हैं कि वह आगे जाकर एक स्वस्थ और नैतिक समाज का निर्माण करेगा. लेकिन जिस तेजी से घटनायें घट रही हैं उससे स्पष्ट है कि यदि हम लोग जल्दी न करें तो यह सपना धरा रह जायगा.

चित्र: माँ होने की उमर नहीं हुई, लेकिन दो बच्चों के मातृत्व का भार कंधों पर आ चुका है. यह है मुक्त-चिंतन (तथाकथित) एवं मुक्त यौनाचार आदि का सामाजिक प्रभाव!

कारण है पिछले 200 साल में पश्चिमी देशों में विकसित हुई (छद्म) नैतिकता का भारत में थोक आयात. यह आयात आधुनिकता, मनोरंजन, प्रगति, आजादी  आदि सुनाम लेबलों के अंतर्गत हो रहा है अत: अधिकतर लोगों को पता नहीं चल रहा कि इस लेबल के जो पार्सल प्रति दिन हिन्दुस्तान पहुंच रहे हैं उसके अंदर माल क्या आ रहा है.

मैं ने तलवार या कलम -– किसे चुनें? में याद दिलाया था कि कलम की ताकत द्वारा भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट किया जा रहा है. तेज तर्रार लोग क्या करते है?? में मैं ने याद दिलाया था कि महज डंडे के जोर पर हम संस्कृति के इस क्षय को रोक नहीं सकते हैं. मनोनियंत्रण का अचूक अस्त्र — “गहन-पैठ” !! और गैरों के मनोनियंत्रण के लिये अचूक नुस्खे!! में मैं ने बताया था कि किस तरह गहन-पैठ के मनोवैज्ञानिक औजार द्वारा अराजकत्ववादी लोग भारतीय मनों में पाश्चात्य अराजकत्ववाद का गहन इंजेक्शन लगा रहे हैं और लोगों को पता नहीं चल रहा है.

पश्चिम में नैतिक अराजकत्व का जो परिणाम है वह हम देख ही रहे हैं. एक बाप कालकोठरी में अपनी ही बिटिया को बंद करके 25 साल तक उससे जबरन सहवास करता है, उसके द्वारा चार पांच बच्चे जनता है, और उन सभी को कालकोठरी में ही पालता है. किसी को कानोकान खबर नहीं होती. उसी समय पश्चिम में 12 और 13 साल के बालक अपनी 13 से 15 साल की गर्लफ्रेंडों द्वारा बच्चे पैदा कर रहे हैं. बलात्कार, स्त्रीहत्या, स्त्रीअपहरण, वेश्यावृत्ति, विवाहेतर शिशु-जन्म का दर “यौन-मुक्त” पश्चिम में  दिनोदिन आसमान छूने को दौड रहा है. यौनरोगों की तो स्थिति पश्चिम में यह है कि डाक्टरों ने हाथ खडे करने शुरू कर दिये हैं.

यह सब एक दिन में नहीं हुआ. बल्कि गहन-पैठ के मनोवैज्ञानिक औजार द्वारा अराजकत्ववादी लोगों ने पश्चिमी समाज को धीरे धीरे बदला, “कंडीशन” किया. गहन-पैठ है ही एक ऐसा औजार कि चर्चा/वकालात/प्रचार एक अच्छे विषय (मसलन आजादी, सामाजिक समानता) की होती है लेकिन इसकी आड में तमाम सारे समाजविरोधी/अनैतिक विषय लोगों के मन की गहराईयों में “सरका दिये” जाते हैं. इसके कुछ उदाहरण लीजिये:

  • नारी मुक्ति आंदोलन की आड में हिन्दुस्तान में स्वच्छंद जीवन, व्यभिचार, एव इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले शिशुओं को गर्भपात द्वारा शिशुहत्या की सीख दी जा रही है
  • शिशुहत्या नरहत्या है, जिसकी इसकी गंभीरता को कम करने के लिये इसके लिये “बच्चेदानी की सफाई” जैसी शब्दावली का प्रयोग बढाया जा रहा है
  • हिन्दुस्तान-निर्मित “विदेशी” शराब परोसने वाले शराबखानों को फैशन, प्रगति एवं आजादी के “प्रतीक” के रूप में प्रचार किया जा रहा है
  • रीयालिटी-शो (वास्तविकता-प्रदर्शन) की आड में बच्चों से अश्लील वार्तालाप करवाया जा रहा है एवं ऐसे हीन कृत्यों के प्रति मां बाप को संवेदनहीन बनाया जा रहा है
  • बाल्टियाना दिवस (वेलेन्टाईन) जैसे पाश्चात्य उत्सव उत्सव, आनंद, आजादी के नाम पर प्रचारित किये जाते हैं, जब कि बाल्टियाना दिवस का असली असर जवानों को व्यभिचार के लिये प्रोत्साहित करना है (यकीन न हो तो आंकडे देख लीजिये कि उस दिन कितनी कुंवारी लडकियां “उल्लास और मस्ती” की आड में अपनी अस्मत खो देती हैं और कितने छोकरे नशा करके एक्सीडेंट करते हैं)
  • पाश्चात्य नव वर्ष (दिसंबर 31 की रात को) उत्सव उत्सव, आनंद, आजादी के नाम पर जवानों की जो महफिलें जमती हैं उनमें कितनी कुंवारी लडकियां अपनी अस्मत खो देती हैं और कितने छोकरे नशा करके एक्सीडेंट करते हैं (यकीन न हो तो बडे शहरों के आंकडे जांच लीजिये)
  • हिन्दुस्तानी लेखकों को उनकी अंग्रेजी पुस्तकों के लिये जब कोई “विदेशी” पुरस्कार मिल जाता है तो हम सब नशे में झूमने लगते हैं, जबकि इन में से कई लोग इन उपन्यासों/पुस्तकों में भारत-विरोधी भावनाये पाठकों में मन में “सरकाती” जाती हैं.

कुल मिला कर कहा जाये तो महज एक अच्छी चीज का “नाम” भर लेकर लोगों को उत्साहित किया जाता है या भडकाया जाता है, लेकिन उसकी “आड” में अनजान युवायुवतियों के मन में तमाम तरह की अनैतिक, समाजविरोधी, कुकर्म की इच्छा “सरका दी” जाती है. मां बाप इन बातों का ख्याल नहीं रखते और अंत में जब बच्चा/बच्ची घर में अश्लील वार्तालाप शुरू करदेता है, या नशा करने लगता है, या अडोसपडोस की लडकियों को अपनी वासना का शिकार बनाता है, या लडकी जब आके कहती है कि मम्मी मैं “प्रेग्नेंट” हूं और पता नहीं मेरे मित्रों में से यह किस की औलाद है तब तक पानी सर के ऊपर से गुजर चुका होता है.

आधुनिकता जरूरी है. आजादी जरूरी है. पुरातनपंथ का परिष्कार जरूरी है. लेकिन ये काम उन लोगों के हाथ में नहीं छोडे जा सकते जो इन बातों की आड में बडे ही चालाकी से हमारे बेटेबेटियों के मनों में “गहन-पैठ” की मदद से समाजविरोधी एवं अनैतिक चिंतन को उनके निष्कलंक मनों की गहराईयो में  “सरका रहे” हैं.

यह चिंतन-विश्लेषण परंपरा अभी जारी रहेगी . . .  मेरी प्रस्तावनाओं में यदि कोई गलत बात आप देखते हैं तो शास्त्रार्थ की सुविधा के लिये खुल कर मेरा खंडन करें. आपके द्वारा किया गया खंडन या आपकी टिप्पणी मिटाई नहीं  जायगी. [Picture by ~MVI~]

इस लेखन परम्परा के लेख आलेख के क्रम मे:

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Author: Super_Admin

28 thoughts on “जब आप का बच्चा उल्टासीधा बोलने लगे!

  1. शास्त्री जी हम सांस्कृतिक संक्रांति /संघात के कठिन दौर से गुजर रहे हैं -अस्तबल से घोडे छूट चुके हैं और वे अंधाधुंध सरपट दौड़ चले हैं -हम अपने सुनहले नियमों को भूल एक क्षद्म इन्द्रधनुषी दुनिया और नारद मोह की मरीचिका में फँस गये हैं -ऐसे में आप सरीखे सचेतकों की प्रासंगिकता तो है मगर आप कहाँ तक कामयाब होंगे यह संदिग्ध है !
    मगर यह भी देखना होगा कि नैतिकता के प्रहरी पर उपदेश कुशल बहुतेरे की ही भूमिका में ही न रहें बल्कि स्वयम आदर्श भी स्थापित करें -होता तो यही है कि हम आदर्श की बातें तो बहुत करते हैं मगर वह सब दिखावा ही साबित होता है -ऋषि तुल्य जीवन त्याग और बलिदान मांगता है -हम दूसरों से ही आदर्श की अपेक्षा करते रह जाते हैं ! इसलिए आज विश्वसनीयता का भी बडा संकट हमारे सामने है .कोई किसी का विश्वास ही नहीं करना चाहता -राजकिशोर जैसा उम्रदार चिन्तक एक नारी ब्लॉग पर सारे पुरुषों को अविश्वास के काबिल घोषित करता है और एक टिप्पणीकार मंशा पर ऐसा अविश्वास और नीतिक साहस की कमी ही कि उसकी टिप्पणी माडरेट क्र दी जाती है -हम दोहरे मानदंडों ,एक घटिया किस्म की अहमन्यता और नैतिक दुर्बलता के महौल में जी रहे हैं ! भारत अब विसंगतियों और विडंबनाओं का देश हो चला है और ऐसे में आपकी चिंता वाजिब है !

  2. पश्चिम में नैतिक अराजकत्व ….बाप का बेटी के साथ जबरन सहवास….. 12 और 13 साल के बालकों का बच्चे पैदा कर रहे हैं. बलात्कार, स्त्रीहत्या, स्त्रीअपहरण, वेश्यावृत्ति, विवाहेतर शिशु-जन्म का दर “यौन-मुक्त” पश्चिम में दिनोदिन आसमान छूने को दौड रहा है…

    उक्त सभी बातें भारत में भी हैं लेकिन पश्चिम के प्रभाव से ही नहीं। अधिकतर हमारी स्वयं की सांमंती आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था, सड़ी गली मान्यताओं, जातिवाद, दहेज, लड़कियों को भार समझना संस्कृति को बचाए रखने का सारा बोझा स्त्रियों के माथे धर देने की प्रवृत्ति का उस में बहुत बड़ा योगदान है। क्यों विधवा को अपमानित जीवन जीना पड़ता है। उसे सामान्य महिला के रुप में स्वीकार न कर सारा जीवन उस का शारीरिक और यौन शोषण जारी रहता है। लड़कियों को बचपन में ब्याह दिया जाता है। पढ़ने और अपने पैरों पर खड़े होने के अवसर नहीं दिए जाते। और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आने के पीछे भी हमारी कमजोरियों का बहुत बड़ा योगदान है।
    हम अपनी खुद की सामाजिक आर्थिक कमजोरियों का ठीकरा पूरी तरह से पाश्चात्य सभ्यता पर नहीं फोड़ सकते। हमें अपनी कमजोरियाँ पहले देखनी चाहिए। उन्हें जड़ों से उखाड़ना जरूरी है। वरना वे समाज को हमेशा नर्क बनाए रखेंगी।

  3. शास्त्री जी हम सांस्कृतिक संक्रांति /संघात के कठिन दौर से गुजर रहे हैं -अस्तबल से घोडे छूट चुके हैं और वे अंधाधुंध सरपट दौड़ चले हैं -हम अपने सुनहले नियमों को भूल एक क्षद्म इन्द्रधनुषी दुनिया और नारद मोह की मरीचिका में फँस गये हैं -ऐसे में आप सरीखे सचेतकों की प्रासंगिकता तो है मगर आप कहाँ तक कामयाब होंगे यह संदिग्ध है !
    मगर यह भी देखना होगा कि नैतिकता के प्रहरी पर उपदेश कुशल बहुतेरे की ही भूमिका में ही न रहें बल्कि स्वयम आदर्श भी स्थापित करें -होता तो यही है कि हम आदर्श की बातें तो बहुत करते हैं मगर वह सब दिखावा ही साबित होता है -ऋषि तुल्य जीवन त्याग और बलिदान मांगता है -हम दूसरों से ही आदर्श की अपेक्षा करते रह जाते हैं ! इसलिए आज विश्वसनीयता का भी बडा संकट हमारे सामने है .कोई किसी का विश्वास ही नहीं करना चाहता -राजकिशोर जैसा उम्रदार चिन्तक एक नारी ब्लॉग पर सारे पुरुषों को अविश्वास के काबिल घोषित करता है और एक टिप्पणीकार की मंशा पर ऐसा अविश्वास और नैतिक साहस की कमी दिखती है कि उसकी टिप्पणी माडरेट कर दी जाती है -हम दोहरे मानदंडों ,एक घटिया किस्म की अहमन्यता और नैतिक दुर्बलता के महौल में जी रहे हैं ! भारत अब विसंगतियों और विडंबनाओं का देश हो चला है और ऐसे में आपकी चिंता वाजिब है !

  4. इन थोडे उद्वरणो से स्पष्ट हो जाता है कि अग्रेजो के बाद उसी पथ पर चलकर इस बार भारत की पहचान तथा गोरव को नष्ट करने के लिये पश्चिम सभ्यता के माध्यम से भयानक षडयन्त्र हुआ। क्या इसी विषैले पश्चिम इतिहास से भारत कि नयी पीढी का निर्माण होगा? होगा तो रुप कैसा होगा? क्या यह उसीका का सेम्पल मात्र है जो शास्त्रीजी बता रहे है ? स्वामी विवेकानन्द, रविन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गान्धी, यदुनाथ सरकार, डॉ, काशीप्र्साद जयसवाल, और जयचन्द विधालकार जैसे महापुरुषो एवम इतिहासकारो कि आत्माए आह भर रही होगी। क्या हम अहसास कर सकेगे कि यह विघ्वन्स कलम कि ताकत से हो रहा है ।

  5. शास्त्रीजी, अरविंदजी और द्विवेदी जी से सहमत, आपने भी कुछ जरूरी मुद्दों को उठाया है लेकिन इनको रोकने या सुधार करने के लिये दूसरों को दोष देकर पहल करने की जरूरत मुझे नही लगती। हमारे यहाँ ये भी कहा गया है ना “चंदन विष व्याप्त नही लिपटे रहत भुजंग”। अंधाधुंध भागने रहने के इस युग में अपने आदर्श और विचारों को मजबूत करने की बहुत जरूरत है।

  6. सहमत हूं आपसे,आज ज़रूरी है विचार करना,वर्ना कल तो पानी सिर से काफ़ी ऊपर निकल चुका होगा।

  7. @Arvind Mishra

    प्रिय डा अरविंद, चिंतन को प्रेरित करने वाली आपकी टिप्पणी के लिये आभार.

    1. कम से कम दस चिट्ठाकार मुझे यह बात बता चुके हैं: नारी मुक्ति के लिये सबसे अधिक होहल्ला जिस चिट्ठे पर होता रहता है वहां सबसे अधिक टिप्पणियां माडरेट होती हैं. उसका कारण दिया जाता है “मेरा चिट्ठा है, भाड में गई तुम्हारी टिप्पणी”. चिंतन-चर्चा उनका लक्ष्य नहीं, बल्कि पुरुष-आक्रमण उनका लक्ष्य है. इसके बावजूद कुछ पुरुष चिट्ठाकारों को वहां मत्था टेके बिना खाना हजम नहीं होता जिससे कि उनके विरुद्ध विमर्श न हो जाये.

    2. सामाजिक परिवर्तन के लिए किसी न किसी को पहल करनी होगी.

  8. @दिनेशराय द्विवेदी

    “हम अपनी खुद की सामाजिक आर्थिक कमजोरियों का ठीकरा पूरी तरह से पाश्चात्य सभ्यता पर नहीं फोड़ सकते।”

    शत प्रतिशत सहमत! मेरा इरादा यह करने का नहीं है.

  9. @Tarun

    ” दूसरों को दोष देकर पहल करने की जरूरत मुझे नही लगती।”

    प्रिय तरुण, दूसरों को दोष देकर पहल नहीं किया. संयोग की बात है कि जो मुद्दे उठाये गये हैं वे दूसरों के कारण भारत में आ रहे हैं.

  10. नारी मुक्ति के लिये सबसे अधिक होहल्ला जिस चिट्ठे पर होता रहता है “मेरा चिट्ठा है, भाड में गई तुम्हारी टिप्पणी”.
    कुछ पुरुष चिट्ठाकारों को वहां मत्था टेके बिना खाना हजम नहीं होता

    कुछ महिलाये पुरुषो के विरुद्ध आग उगलने कि दुकाने खोल रखी है। वहॉ अपने पुरुष भाई, बहिने बनकर टिपियाने पहुच जाते है जबकी महिलाओ कि टीप्णीया वहॉ ना के बराबर होती है। आपने मेरे मन कि कशिश को उकेरा है, अच्छा लगा।

  11. @डॉ अरविन्द
    @डॉ शास्त्री
    आप दोनों दो अलग अलग ब्लॉग के विषय मे बात करते दिख रहे हैं . राजकिशोर का आलेख कहां हैं ये डॉ अरविन्द ,डॉ शास्त्री को बताना भूल गए और डॉ शास्त्री अपने मे इतना डूबे हैं की राजकिशोर कहा और किस ब्लॉग पर लिखते हैं उनको पता नहीं .
    कम से कम तीर तो सही छोडे क्रॉस talk से संस्कृति कया सुधर जाए गी

  12. @hindi blogge

    यह आलेख एक से अधिक स्थानों पर छपा है. आपका अभार कि आप ने याद दिलाया कि मुझे यह बात नहीं मालूम है!!

  13. मुझे तो यह संक्रमण काल दिखाई दे रहा है. समस्या और भी बढने वाली है. जो सामाजिक ्परिवेश के लिये घातक होगा. हम किसी और पर जिम्मेदारी डाल भी देंगे तो उससे हासिल क्या होगा? अन्तत: उसको भुगतना तो हमे ही है.

    रामराम.

  14. आपकी लेख सीरीज बेहद शानदार चल रही है, मैं कोशिश करके भी इतना अच्छा नहीं व्यक्त कर सकता था… सारे मुद्दे आपने समेटे हैं… और “नसीहत” भी दे डाली,,,, बेहतरीन…

  15. @प्रिय सुरेश,

    जिन चिट्ठाकार मित्रों ने मुझे सोचने के लिये प्रेरित किया उन सब का मैं दिल से आभारी हूँ.

  16. आपकी कुछ बातों से सहमत हूँ पर कुछ से बिल्कुल नहीं…एक मुद्दे पर बात करती हूँ. आपने चित्र लगाया है और कहा है “माँ होने की उमर नहीं हुई, लेकिन दो बच्चों के मातृत्व का भार कंधों पर आ चुका है. यह है मुक्त-चिंतन (तथाकथित) एवं मुक्त यौनाचार आदि का सामाजिक प्रभाव!”. ऐसा हमारे यहाँ गाँव में कितने दिनों से प्रथा चली आ रही है, बाल विवाह गैर कानूनी होने के बावजूद क्या रुक सका है. छोटी लड़कियों की अधेड़ उम्र के पुरुषों के साथ शादी कर दी जाती है, उसमें उसकी मर्जी भी पूछी जाती है? ऐसा जब हमारे देश में जाने कितने सालों से होता आ रहा है तो आप इसे विदेश का प्रभाव कैसे कह सकते हैं.

    और जो पिता के व्यभिचार का उदहारण आपने दिया है…क्या आप जानते हैं ऐसे कई परिवारों में ऐसी बात बाहर न आने पाये इसलिए लड़की को मार देते हैं…पिता, चाचा, दादा, रिश्तेदार…और ऐसे किस्से न किसी अखबार में छपते हैं न मीडिया तक पहुँचते हैं…ऐसा हमारे यहाँ भी होता है और उन जगहों पर होता है जहाँ दूर दूर तक बिजली तक नहीं पहुँची है.

    पश्चिम से आई चीज़ों के अन्धानुकरण की वजह से कई कुरीतियाँ जोर पकड़ रही हैं पर हम अपनी सारी समस्याओं के लिए उन्हें दोष नहीं दे सकते.

  17. @puja upadhyay

    पूजा जी, शत प्रतिशत सहमति की जरूरत नहीं है. बस आप ने इतना मान लिया:

    “पश्चिम से आई चीज़ों के अन्धानुकरण की वजह से कई कुरीतियाँ जोर पकड़ रही हैं”

    यह पर्याप्त है. मैं मुख्यतया इन कुरीतियों की ही बात कर रहा हूँ

  18. @ पूजा,

    भारत में यह होता रहा है तो ज़रूरत इस बात की है की यह सब रोका जाए, न की इसकी आड़ लेकर ज़हर की बाढ़ को जस्टिफाई करने की. पर आपका तो कहना है की, क्योंकि यह सब किसी और रूप में कुछ हद तक समाज में मौजूद था तो नए पैकेज में इसे अपना लेने में कोई बुराई नहीं है. पहले भी नुकसान स्त्री का था, अब वह सब रोकने की जगह खुले तौर पर अपनाने से भी नुक्सान में कौन रहेगा?

    अगर उद्यान में कुछ पेड़ पौधों पर कीडे लगने लगे हैं तो ज़रूरत है की ज़्यादा देखभाल की जाए और उद्यान फ़िर हरा भरा किया जाए, पर चूँकि पहले ही कुछ पौधों पर कीडे थे तो सारा बगीचा कीडों को खिला दो, और बगीचा उजाड़ दो.

    इंसानी शरीर में हमेशा कुछ न कुछ समस्या रहती है, ज़रूरत है इलाज और सही खुराक की. पर अगर हम कहें की यह तो पहले ही सर्दी जुकाम से पीड़ित था, तो हमने इसे टीबी, निमोनिया, सिफलिस, मेनिन्जाईटिस के कीटाणु इसके शरीर में डाल दिए तो कुछ बुरा नहीं किया. “बीमार के इलाज से अच्छा है की वह मर जाए!” आपकी पिछली टिप्पणी तो कुछ यही इशारा करती है.

  19. @विवेक, आपने मेरी टिप्पणी को ठीक से पढ़ा नहीं और बिल्कुल निराधार बात कही जो विषय से भटकाने वाली है… इसलिए आपको इसमे ऐसे इशारे नज़र आने लगे जो हैं ही नहीं. शास्त्री जी का मत है की कुछ बुराइयाँ हमारे समाज में विदेशों से आ रही है, मैंने दो उदहारण देकर कहा की ये बुराइयाँ यहाँ पहले से हैं. आप इसी बारे में द्विवेदी जी का कमेन्ट पढिये…सार्थक बहस में मुद्दों पर बात होती है पर ये देखना जरूरी है की हम भटकें नहीं…ये कहने से की ये कुरीतियाँ हमारे यहाँ पहले से हैं उनका होना वांछनीय नहीं हो जाता.

  20. @pooja

    भटकाव नहीं कुछ फिगरेटिव उदहारण हैं. असली कथन पहले पैरा में है, बाकी दो में मैंने अपनी बात स्पष्ट की है.

  21. शास्त्री जी आप के यहां आ कर लगता है किसी योगी के आश्रम मे आ गये हो, बहुत अच्छा लगता है, बाकी आप का आज का लेख भी हमेशा की तरह से बहुत ही सुंदर लगा,आप की हर बात से सहमत हुं, लेकिन असली बा को हटा कर लोग फ़िर से पहले अपनी ही बुरी बात आगे रखते है, जिस के कारण हम सब असली मुद्दे से भटक जाते है, भारत मे बाल विवाह होता था, जिस का कोई कारण था, वो कारण वेफ़जुल नही था, लेकिन अब भी लोग बच्चो की शादी करते है, लेकिन कितने परतिशत, बहुत कम, कितने लोग अपनॆ बच्चो से गंदी हरकते करते है, बहुत ही कम, तो क्यो हर बहस पर हम इन्ही बातो को आगे ला कर बात बदल देते है,
    आप ने जो विचार रखा है वो उचित है, ओर उस पर बिलकुल बहस हो, लेकिन गडे मुरदे साथ मे ना उखाडे जाये, कुछ लोगो की बुराई सारे समाज की बुराई नही, लेकिन आने वाली बिमारी से तो सारे समाज को बचा सकते है, वरना ……
    शास्त्री जी आप लगे रहे अपने प्रयास मै. धन्यवाद
    पश्चिम को जितना मेने नजदीक से देखा है ३० सालो मे , क्या यह लोग जो इस पश्चिम की तरफ़ दारी करते है, उन्होने तो सिर्फ़ किताबो मे ही इसे पढा है, क्या उन्होने इन लोगो को इतना नजदीक से देखा है, इन लोगो का दर्द देखा है, वो लोग तो इन का चमच्माता चेहरा देख कर सोचते है कि पश्चिम वाले बहुत सुखी है… ओर यही इन सब की पहली भुल है.
    हर हंसने वाला सुखी नही होता, लेकिन ….

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