पिछले दिनों कर्नाटका के अंग्रेजी-दारुखाने (पब) में घुस कर शराबियों की जो पिटाई की गई थी उसके जवाब में गुलाबी चड्डी अभियान नामक चिट्ठे ने लोगों का आह्वान किया था कि लोग श्रीराम सेना के लोगों को गुलाबी चड्डियां भेजें. उन लोगों के अनुसार गुलाबी रंग इसलिये चुना गया था कि उसे सामान्यतया स्त्री-चड्डी का प्रतीक माना जाता है.
चिट्ठागजत में इस अभियान का पहला विरोध किया था सुरेश चिपलूनकर ने अपने आलेख “गुलाबी चड्डी” अभियान से ये महिला पत्रकार(?) क्या साबित करना चाहती है?. सुरेश के आलेख को देखे बिना मैं ने गुलाबी चड्डियां -– फल क्या होगा? सारथी पर छापा और उनके आलेख को देखने के बाद मैं ने सारथी पर “गुलाबी चड्डी” अभियान: एक विश्लेषण! (केवल वयस्कों के लिये) नामक आलेख छापा.
सारथी के कई मित्रों ने लिख कर और दूरभाष पर पूछा कि इस मामले में मैं ने इतना कडा रूख क्यों अपनाया है. इसके उत्तर में मैं ने मामले की पृष्ठभूमि के रूप में निम्न आलेख छापे:
- तलवार या कलम -– किसे चुनें?
- तेज तर्रार लोग क्या करते है??
- मनोनियंत्रण का अचूक अस्त्र — “गहन-पैठ” !!
- गैरों के मनोनियंत्रण के लिये अचूक नुस्खे!!
- जब आप का बच्चा उल्टासीधा बोलने लगे!
- कुंवारी कैसे स्त्री बन जाती है!
इन आलेखों में मैं ने बताया था कि आज का विज्ञापनलोक, आजादी की चर्चा, संचार माध्यम आदि काफी हद तक उन लोगों के नियंत्रण में है जो गहन-पैठ के अचूक अस्त्र की सहायता से लोगों के मन में कई गलत बातें बडे ही चालाकी से “सरका कर” उनका मनोनियंत्रण कर हिन्दुस्तानियों को पश्चिम का खरीददार बना रहा है. अच्छी चीजों का खरीददार नहीं बल्कि पश्चिम की भ्रष्ट नैतिकता का खरीददार क्योंकि एक भ्रष्ट समाज में शराब से लेकर व्यभिचार तक को “यह तो आधुनिकता का लक्षण है” कह कर बेचा जा सकता है.
गुलाबी चड्डी अभियान कहने को तो “आजादी” का प्रतीक था, और इस कारण बहुत सारे लोगों ने इस का समर्थन किया. लेकिन इस गहमागहमी में इसके चिट्ठे पर जो बात धीरे से “सरका दी” गई थी उसकी तरफ बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया कि यह (चिट्ठे के ही शब्दों में) चिट्ठा निम्न किस्म की स्त्रियों का है.
- Pubgoing: शराबखानों को आबाद करने वाली
- Loose: चालू, या नैतिकता को तिलांजली देने वाली (सामान्यतया हिन्दी में जिन को छिछोरी कहा जाता है)
फल यह है कि जिन लोगों ने इनका साथ दिया उन सब के मन में यह बात बैठ गई कि जब हम ने साथ दिया है तो अब शराबखानों को आबाद करने में या छिछोरेपन में क्या गलत है.
अब जरा विश्लेषण की ओर आते हैं. सामान्य जीवन में हमे उन शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये जो हमारे जीवन और नैतिकता के साथ तालमेल नहीं बैठाते. हम में से कोई भी इस तरह की बोली या इस तरह का उदाहरण नहीं काम में लाता. निम्न वाक्यों पर ध्यान दीजिये:
- जिस तरह एक चोर चोरी के लिए सावधानी से प्लान बनाता है, उसी तरह जीवन के हर कार्य के लिये तुमको प्लान करना चाहिये
- जिस ध्यान के साथ जेबकतरा शिकार के जेब की तरफ ध्यान देता है, उसी तरह ध्यान से तुमको अध्यापक की बातें सुननी चाहिये
- जिस तरह से जाली नोट बनाने वाला हर छोटी बात पर ध्यान देता है, उसी तरह अपनी नौकरी में हर छोटी बात पर ध्यान देना जरूरी है
- जिस तरह एक तवाईफ अपने नाचगाने को गंभीरता से लेती है उसी तरह तुम को अपना पेशाई कार्य गंभीरता से लेना चाहिये
- जिस तरह से एक वेश्या ग्राहक को आकर्षित करती है उसी तरह तुमको अपने धंधे के लिये ग्राहक आकर्षित करना चाहिये
मैं यकीन से कह सकता हूँ कि 50 आईक्यू वाला मंदबुद्दि व्यक्ति भी इन वाक्यों का प्रयोग नहीं करेगा. कारण यह है कि ये वाक्य “तकनीकी” रूप में सही होते हुए भी “नैतिक” स्तर पर उचित नहीं है. सभ्य समाज में इस तरह के वाक्यों के लिये कोई जगह नहीं है. जिन परिवारों में इस तरह की ओछी बोली बोली जाता है वहां उनका नैतिक स्तर भी इतना ही ओछा होता है.
हम सब जानते हैं कि “अशुभ” बातें नहीं बोलनी चाहिये. उसी तरह गांठ बांध जान लीजिये कि सभ्य समाज के लोगों को “अनैतिक” बातें भी नहीं बोलनी चाहिये. प्रतीकात्मक तरीके से भी इनका उपयोग रोज की बातचीते में नहीं होना चाहिये. अत: यदि कोई डंके की चोट पर दावा करता है कि वह “शराबखाने को आबाद करने वाली छिछोरी स्त्रियों का कुनबा” है तो सभ्य एवं नैतिक संसार से उनका कोई लेनादेना नहीं है. उनका बहिष्कार होना चाहिये.
आखिरी बात: इस तरह के अनैतिक वाक्य, इस तरह के आंदोलनों से जुडने वाले बुद्धिहीनों के मनों में, गहन-पैठ कर जाते हैं एवं उनके नैतिक स्तर को छिछोरा बनाने में मदद करते है. पढेलिखे परिवारों के वे जवान लोग जो नियमित रूप से सिर्फ छिछोरे किस्म के अंग्रेजी पिक्चर देखते हैं या जो सिर्फ छिछोरे किस्म के अंग्रेजी उपन्यास पढते हैं उनके मनों/जीवनों में उभरते नैतिक छिछोरेपन को देख लीजिये, सच्चाई समझ जायेंगे. सवाल स्त्रीविरोध/पुरुषविरोध का नहीं, बल्कि नैतिक छिछोरेपन के विरोध का है.
[इस आलेख के साथ यह लेखन परम्परा समाप्त होती है. गहन-पैठ को जितने आसानी से हो सका उतने आसानी से मैं ने समझाने की कोशिश की है. यह विषय मैं पिछले 35+ सालों से क्लासरूम में पढाता आया हूँ. आज की आप की टिप्पणी में एक बात जरूर इंगित कर दें कि इस तरह के चिंतन-प्रेरण किस्म के आलेख आगे भी देखना चाहेंगे या नहीं]
मेरी प्रस्तावनाओं में यदि कोई गलत बात आप देखते हैं तो शास्त्रार्थ के नजरिये से खुल कर मेरा खंडन करें. आपके द्वारा किया गया खंडन या आपकी टिप्पणी मिटाई नहीं जायगी. [Picture by dcfdelacruz]
चिंतन-प्रेरण से जीवन में सीख मिलती है. जरुरी नहीं हमेशा सहमत ही हों. आप जारी रहें.
निश्चय ही देखना चाहेंगे इस तरह के आलेख. मैं इन आलेखों पर बहुमूल्य टिप्पणियां न कर पाऊं, ऐसा तो हो सकता है, पर इन्हें पढ़्ना चाहता हूं निरन्तर ही .
शास्त्री जी आपने अपनी बातों को बहुत प्रभाव शाली तरीके से रखा है बल्कि अपने तई न्याय किया है -मगर फिर भी कहूँगा कि यह एक विवादास्पद विषय है और इस पर एक राय कायम करना मुश्किल है ! तुलसी बाबा तक जब एक जगह कह गएँ हैं कि कामी पुरूष को जैसे स्त्री देह प्यारी हो ,कंजूस को दमडी वैसे ही मुझे मेरे प्रभु प्रिय हों !
अब इस उदाहरण को क्या कहेंगे आप -हो सकता है यह मानस का प्रक्षिप्त अंश हो मगर ऐसे वाक्य तो प्रचलन में रहे ही हैं और शाब्दिक अर्थ बोध के बजाय भाव बोध पर ज्यादा बल देते हैं !
बहरहाल आपकी स्थापना की सार्वजनिक जीवन के कुछ नैतिक नियम अवश्य हो से मैं पूरा इत्तिफाक रखता हूँ ! आपके यहाँ होने से कम से कम कम हमें नैतिकता का अहसास तो है -यह क्या कमहै ?
@Dr.Arvind Mishra
डा अरविंद, काव्य में हमेशा अतिशयोक्ति रहती है एवं कई बार गद्य (सामान्य भाषा) में स्वीकृत सीमाओं को तोडा जाता है. लेकिन यह महज एक अपवाद है, और अपवाद “सामान्य” को गलत नहीं सिद्ध करता.
आपकी टिप्पणी के लिये एवं प्रश्न के लिये आभार !!
@समीर लाल
समीर जी, शत प्रतिशत सहमति नहीं, खुली चर्चा अधिक जरुरी है क्योंकि चर्चा से सीमाओं का पता चल जाता है.
टिप्पणी के लिये आभार !!
@हिमांशु
प्रोत्साहन के लिये आभार हिमांशु!!
Dr Arvind, the expression I was looking for was “Poetic License”. The very fact that it is a “license” show that it is not normal. That is exactly what I have been trying to say.
— Shastri
शास्त्री जी,
‘लिबर्टी’ और ‘लाइसेन्स’के बीच की सीमा रेखा कोई पत्थर की लकीर नहीं होती अपितु
देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है। इसी तरह एक युग के सामाजिक-धार्मिक कर्तव्य दूसरे युग में अपराध की श्रेणी में भी आ सकते हैं।(उदाहरणार्थ सती प्रथा,नरबलि आदि) इस बारे में एक विशद चर्चा हो सके तो हम सभी लाभान्वित होंगे।
@amar jyoti
अमर जी, आपने बहुत सही बात कही है. इस विषय में जरूर चर्चा करेंगे!!
किसी ने किसी से पूछा – तुम्हारे पिता जी का नाम क्या है?
‘राम कुमार’ ।
‘कुमार’ में कौन सा ‘कु’ है – ‘कुत्ते वाला’ या ‘कूड़े वाला’ ?
फ़ालो करें और नयी सरकारी नौकरियों की जानकारी प्राप्त करें:
सरकारी नौकरियाँ
@Anunad Singh
प्रिय अनुनाद जी, आप ने जो टिप्पणी दी है उसे सिर्फ समझदार ही समझ सकता है, और यही सही है. आखिर यह पूरी लेखन परम्परा ही ऐसे लोगों के लिये ही तो लिखी जा रही है, न कि उनके लिये जो समझना (और सोचना) नहीं चाहते.
सस्नेह — शास्त्री
असल मे समीर जी की बात मे वजन है. हम प्रजातांत्रिक व्यवस्था को औन्सरण करते हैं तो हमे अपनी बात कहने और उतना ही जरुरी है कि दुसरों की बात भी सुनी जाये, ये भी सामने वाले का हक है.
देखा जाये तो ये पूरी श्रंखला ही बडी विचारणीय रही.
रामराम.
@ताऊ रामपुरिया
शुक्रिया ताऊजी!! शत प्रतिशत सहमति नहीं, प्रजातांत्रिक व्यवस्था में खुली चर्चा अधिक जरुरी है क्योंकि चर्चा से सीमाओं का पता चल जाता है.
टिप्पणी के लिये आभार !!
मैं यह कहना चाहता हूं कि आपके यहां इतनी व्यापक और विशद चर्चा हुई जो और कहीं होना मुमकिन ही नहीं था. लोगों ने खुलकर तर्क-वितर्क किया, सहमति-असहमति व्यक्त की, बहुत सुन्दर और बहुत अच्छा लगा. मुझे अतिश्योक्ति वर्णन या फिर मक्खनबाज का खिताब न दिया जाये तो मैं यही कहना चाहूंगा कि आपके रूप में वैदिक मनीषी अभी भी विद्यमान हैं.
ओखली मे सिर डाल ही दिया है तो मुडने से क्या डरना। लगे रहो।
@common man
आपकी टिप्पणी के लिए दिल से आभार. कृपया सारथी के रचनात्मक आंदोलन को अपना प्रोत्साहन देते रहें.
आप ने नोट किया होगा कि “शास्त्रार्थ” के नजरिये से हर व्यक्ति को अपनी बात कहने के लिये सारथी प्रोत्साहित करता है, एवं छद्म-बुद्धिजीवियों से बिल्कुल अलग, सारथी पर छपी विपरीत टिप्पणियों को कभी मिटाया या माडरेट नहीं किया जाता. कारण यह है कि हम सब ज्ञान की खोज में है और हम सब एक दूसरे से सीख सकते हैं. यहां तक कि विपरीत विचार रखने वालों से भी सीख सकते हैं.
सारथी पर आते रहें!
सस्नेह — शास्त्री
@HEY PRABHU YEH TERA PATH
“ओखली मे सिर डाल ही दिया है तो मुडने से क्या डरना। लगे रहो।”
वाह वाह, क्या बात कही है!!
हां यह ओखली से अधिक “खरल” है जहां कूट कूट कर सब को स्वास्थ्य प्रदान करने वाली औषधि का निर्माण होता है.
सस्नेह — शास्त्री
मानव स्वाभाव ऐसा है कि वह निरन्तर परिवर्तनशील होता रहता है। इस लिए हरेक नयी सोच उसे प्रभावित करती है। लेकिन सही और गलत की धारणाए सबकी अलग-अलग होती हैं।यह उसकी व्यक्तिगत सोच पर निर्भर करती है।शायद इसी लिए वह ऐसी बातें भी ग्रहण कर लेता है जिस के दूरगामी परिणाम बहुत बुरे हो सकते हैं।मुझे लगता है कि इस प्रकार की सोच बाजार अपने आर्थिक लाभ के लिए पैदा करते हैं।(जरूरी नही कि आप भी इससे सहमत हो)इस लिए इस तरह की चर्चा निरन्तर चलनी रहनी चाहिए।आप का प्रयास सराहनीय है।
अरविन्द जी और शास्त्री जी!
यह सिर्फ़ काव्य में अतिशयोक्ति का मामला नहीं है. तुलसी को पढते हुए बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत होती है. पूरे सन्दर्भ-प्रसंग को ध्यान में रखे बग़ैर अगर आप तुलसी को उद्धृत करेंगे तो बडे भयावह नतीजे होंगे. चाहे आप “ढोल-गंवार ….” वाली चौपाई को ही ले लें. यहाँ न तो उनका अर्थ आध्यात्मिक है और वह सामंतवाद का समर्थन कर रहे हैं. बात वही है जो उनके विरोधी मानते हैं, लेकिन सन्दर्भ बिलकुल भिन्न है और अगर ग़ौर से देखें तो मालूम होता है कि वस्तुत: तुलसी उसी बात के विरुद्ध खडे हैं जिसके लिए उनका विरोध हो रहा है. ठीक इसी तरह अरविन्द जी की उद्धृत चौपाई में भी है. यहाँ वस्तुत: तुलसी अपने समसामयिक समाज पर व्यंग्य कर रहे हैं. ध्यान रहे, तुलसी अक्सर बहुत चुटीली भाषा का इस्तेमाल करते हैं और वह कोई अदना कवि नहीं हैं. अपनी भाषा, शैली और कथ्य को लेकर तुलसी जैसे सतर्क हैं, वैसी सतर्कता बहुत बाद में सिर्फ़ मिल्टन के यहाँ दिखाई देती है. ठीक इसी तरह उनका चुटीलापन लैम्ब और जीबी शॉ दोनों मिलकर निभा पाते हैं. इस तरह अगर देखेंगे तो तुलसी का कहा और शास्त्री जी के कहने में कहीं कोई विरोधाभास नहीं दिखेगा आपको. शास्त्री जी की मूल स्थापना ” सभ्य समाज के लोगों को “अनैतिक” बातें भी नहीं बोलनी चाहिये. प्रतीकात्मक तरीके से भी इनका उपयोग रोज की बातचीते में नहीं होना चाहिये.” सौ फ़ीसदी सही है. सचमुच तुलसी से इस बात का कोई अंतर्विरोध नहीं है.
@मैं पिछले 35+ सालों से क्लासरूम में पढाता आया हूँ. आज की आप की टिप्पणी में एक बात जरूर इंगित कर दें कि इस तरह के चिंतन-प्रेरण किस्म के आलेख आगे भी देखना चाहेंगे या नहीं।
आपकी यह क्लास हमे-” तो पसन्द आई एकआद बार बन्क किया क्लास को। मजा आ गया। इस क्लास मे सबसे आगे कुछ महिला ब्लोगर बैठी थी एक दिन आई, बाद मे तो वो डायनासोर कि तरह लुप्त ही हो गई।
सरलाबेन बता रही थी कि -बुढाओ क्लास मे, कोनसी भाषा बोलता है अपने तो उपर से जाती है, ठेढी- मेढी भाषा लाला-गुलाबी- च…….. कुवारी……..मनोनियंत्रण गहन-पैठ, कुंवारी……. स्त्री……. चड्डी………कंडोम……
खोपडे मे नही घुस रहेली है बुडाऊ( शास्त्रीजी) सटीया गया लगता है।
अरे! समीर, ताऊ, अरविन्द तुम लोग कैसे झेल लेते हो इस बुढाओ को ?
सरलाबेन अब क्या बताऐ,समझ- वमज तो कुछ नही आता है पर हॉ, हमे मजा आता है बुढाओ शास्त्रीजी कीक्लास मे । इसलिये रात मे ही दरवाजे के सामने आकर बैठ जाते है।
वाह – शास्त्रीजी को वृद्ध बताया जा रहा है। बहुत बड़ा सम्मान है।
@Gyan Dutt Pandey
मैं आप से बाजी मार ले गया ज्ञान जी!!
शास्त्रीजी आप के लेखो से बहुत बल मिलता है, ओर साथ साथ मे अपने अन्दर भी झाकने का मोका मिलता है, यानि कोई बुराई हो तो हमे पता चलती है, ओर आगे का रास्ता दिखता है, * सोने को कितना भी साबून, शेंपो से धो लो वो पवित्र तो आग मे तपने के बाद ही होता है, यानि शुद्ध सोना बनानए के लिये आग मे तो तपना ही पडता है, इस लिये आप के लेखो से हम सब को जो चाहते हओ एक शुद्धता मिलती है.
धन्यवाद
गलती सुधार
हम सब को (जो चाहते हे), उन सब को एक शुद्धता मिलती है.
धन्यवाद
@Gyan Dutt Pandey
वाह – शास्त्रीजी को वृद्ध बताया जा रहा है। बहुत बड़ा सम्मान है।
@Shastri JC Philip
मैं आप से बाजी मार ले गया ज्ञान जी!!
ज्ञानजी सर> शास्त्रीजी का सम्मान मेरे दिल मे है।
अभिनय मे हर पात्र कि भुमिका करनी ही पडती है।
वृद्ध( बुढाओ) शब्द मे मेरा शास्त्रीजी के प्रति प्यार चुपा हुआ है। जैसे आप मेरे आदरणीय है, वैसे ताऊ, वैसे ही शास्त्रीअन्ना।
@HEY PRABHU YEH TERA PATH
“शास्त्रीअन्ना।”
बहुत सुंदर! मजा आ गया!
ज्ञानजी ने शास्त्रीजी को वृद्ध बता दिया है तो अब उन्हें कोई भी अध्यक्ष की कुर्सी से नहीं उठाएगा; है ना शास्त्रीजी:)
@cmpershad
एकदम सही बात है. तो अब बताईये अगली अध्यक्षता कहां करनी है!!
सस्नेह — शास्त्री
असहमति का सम्मान करने और विमत टिप्पणियों को स्थान देने की आपकी बात निस्सन्देह अभिनन्दनीय है।
मैं इस उपयोगी चर्चा से पूरे सप्ताह दूर रहा इसके लिए पछता रहा हूँ। अब मौका मिला है तो एक साथ ही पूरा पढ़ जाउंगा।
आप बहुत लाभदायक दवाएं बनाकर बाँट रहे हैं।
सादर!
Congratulations to all the learned people for this high voltage discussion.
But I want to say to all those who are “Looking After” Indian Culture; and protesting the freedom of living being:-> just look after it within your Home, if possible.
Whatever may be the nudeness around, you can very well protect old values within your family.
Just make sure that none of your family women get “corrupt” by these Western values being displayed openly.( Ask them what they will do if they were free to live, without boundations proposed by you).
I bet that all of you moral policemen are a big failure when it will come to follow the same rules for your own family women.(Please be honest)
If not, then all of our society is going back to the Era of Ram-Rajya( to be very sure).
this right to discuss on this mr. sameer.,,,
i agreed to u