1990 की बात है, मैं वजीफे पर काऊंसलिंग की उच्च-शिक्षा के लिये अमरीका गया हुआ था. इस बीच एक सप्ताहांत मैं न्यूयार्क में अपने चाचा के घर था तो सोचा कि जितने वीडियो लिये हैं उनको हिन्दुस्तान के लिये उपयुक्त फार्मैट में बदलवा लेते हैं. जेक्सन हाईट्स (मेरा अनुमान है कि यही नाम था) के एक हिन्दुस्तानी दुकान में वीडियो दे दिया और अगले दिन ले जाने को कह कर उन्होंने एक बिल दे दिया. उस अतिविशालकाय दुकान में दस के करीब हिन्दुस्तानी लोग ग्राहकों की सेवा कर रहे थे.
अगली शाम हम वहां पहुंचे तो बिल दिखाने पर वीडियो मिल गया. बिल पर पच्चीस डॉलर लिखा हुआ था, लेकिन पिछले दिन वहां जो आदमी मिला था उसके कहने के अनुसार वहां खडी स्त्री को मैं ने दस डालर दिये तो वह बिदक गई. मैं ने यकीन दिलाया कि एक दिन पहले जो सज्जन मिले थे उन्होंने तो दस ही बताये थे, लेकिन वह महिला टस से मस न हुई. तब तक मैं अंग्रेजी में बात कर रहा था, लेकिन अचानक मेरे मूँह से हिन्दी में निकल गया कि “अजीब लोग हैं आप, कहते कुछ हैं मांगते कुछ है”. हिन्दी सुनते ही उस स्त्री का चेहरा, हावभाव सब बदल गया.
उस ने एक दम से कहा कि आप ने पहले क्यों नहीं बताया कि आप हिन्दुस्तानी हैं. इसके साथ पच्चीस डालर एकदम दस डालर हो गया. दर असल ठंड के कारण मैं गले से पैर तक का ओवरकोट पहने था और साथ में रशियन केप और सुनहरा चशमा लगा रखा था. उन दिनों एकदम लकदक गोरा था और उच्चारण एकदम अमरीकी उच्चारण था. अत: पहले वह समझ नहीं पाई थी कि मैं हिन्दुस्तानी हूँ. उस ने खुद कहा कि वह समझी कि मैं कोई अमरीकन या रशियन हूँ.
मुझे समझ में नहीं आया कि यदि उनके इलेक्ट्रानिक बहीखाते में पच्चीस लिखें हैं तो दस में देकर वे अपना नुक्सान क्यों कर रहें है. या दस का पच्चीस लिख कर अपने टेक्स का नुक्सान क्यों कर रहे हैं. घर पहुंच कर चाचा के बेटे ने बताया कि जेक्सन हाईट्स के हिन्दुस्तानी दुकानदार दोतीन प्रकार के बिल देते हैं. अमरीकियों से अधिक पैसा लेते हैं, हिन्दुस्तानियों से कम, लेकिन रसीद लगभग सभी को फर्जी देते हैं. टेक्स चोरी जम कर करते हैं.
मैं ने सर पकड लिया. ये भारतीय अमरीका के स्वतंत्र-वाणिज्यव्यापार की सुविधा का उपयोग करके करोडपति बनना चाहते हैं, लेकिन जो देश उनको इतनी सुविधा दे रहा है वहां फर्जी रसीद दे रहे हैं, कानून तोड रहे हैं. [Picture by krossbow]
जेक्सन हाईट्स -ठीक नाम याद है आपको.
नकद १५ डालर का फायदा हिन्दी ने पहुचाया आपको . टैक्स चोरी तो सनातन सत्य है सारे विश्व मे .
अरे यही तो बनारस के दूकानदार भी करते है -चाटवाला भी हमलोगों को जो चाट की प्लेट १० रूपये में देता हैं वही विदेशी सैलानियों को पचास रूपये में !अच्छा ही है न !
विदेशी पर्यटकों के लिए साँची में प्रवेश शुल्क २५० रुपए हैं और हमारे लिए 5. लेकिन मजेदार अनुभव. आभार.
अजी होटलों मे भी यही होता है. देशी और विदेशी पर्यटकों से उसी कमरे के अलग २ चार्ज लिये जाते हैं.
रामराम.
यह अमेरिका में भी ?
कल इंडिया गेट बेटी के लिए फ्रुटी ली तो दुकानदार 12 रुपये माँगने लगा तो हमने कहा कि ये तो 10 की आती है। फिर वो बोला यहाँ 12 की ही मिलती है। हमें दूसरा टेक्स भी तो देना होता है।
अगर इस प्रकार के किस्से मैं लिखने बैठूं तो एक पूरा ब्लाग ह्री इसी पर समर्पित हो जाए. अनिवासी, अश्बेत, श्वेत सबके टेक्स चोरी के तरीके बहुत अलग-अलग हैं – हां करते सब हैं और इन सबसे बडे चोर तो बैंकर्स हैं. 🙂
दादा !यह हॉल साउथ के कुछ राज्यो मे भी है अत दिल्ली मे भी है। मेरा ससुराल मद्रास मे है। वहॉ के रिक्शा चालक तो हिन्दि बोलना नही चाहते अग्रेजी उन्हे आती नही। चन्नाई एयरपोर्ट या रेल्वे स्टेशन से माऊन्ट रोड पहुचना हो तो तीन गुना किराया देना पडता है। रास्ते कि जानकारी नही होते इसलिये फिक्स बात करना ही मुनासिब होता है। अन्न्, मुण, नाल कि सख्या हमे समझ नही पडती। अब क्या करे अमुमन हर व्यक्ती लुटने खसोटनी कि निति पर चल रहे है। हॉ मुम्बई, कोयम्बटुर, त्रिवेन्द्रम, हैदराबाद सहित कुछ शहरो मे ईमानदारी भी पाई गई। जहॉ देश या विदेश अपना या दुसरे मे फर्क महसुस नही किया। यह मेरे व्यक्ती गत अनुभव है।
शास्त्री जी , जो गलत है सो गलत है, हमारे यहां भी लोग बहुत ऎसा करते है, लेकिन उन मे से कोई भी चेन से नही रहता, क्योकि एक अजीब सा डर कानून का रहता है, ओर जिस दिन एक छोटी सी गलती पर पकडेगे… तो यह फ़िर सारा हिसाब किताब कर लेते है. लेकिन कहते है ना कि बिच्छु अपनी आदत नही बदल सकता, इस कारण यह हेरा फ़ेरी करने वाले भी अपनी आदत से मजबुर होते है, इन मे भारतीय ही नही, गोरे भी होते है, अन्य देशो के भी होते है
धन्यवाद
अब जिस को आदत पड़ चुकी है वह तो कभी छूटेगी नही….कहीं भी जाए…
हिन्दुस्तानी दिमाग है। कई जगह तो यह तर्क सुना है कि ये फिरंगी तो हमारा देश लूट गये थे। हम तो थोड़ा सा हिसाब बराबर कर रहे हैं!
देश बदल जाने से फ़ितरत नहीं बदल जाती… हिन्दुस्तानी जहाँ भी जायेगा, “हरकत” दिखाने से बाज नहीं आयेगा… यदि कोई कानून मानना भी पड़े तो “डण्डे” के डर से ही मानेगा, वरना यदि उसे खुल्ला छोड़ दिया जाये तो वह अमेरिका के किसी भी राज्य को बिहार बना सकता है…
गलत करने वाले देश देखकर पैदा नहीं होते। न उनका कोई अलग गाँव-घर होता है। ये हमारे बीच ही घुले-मिले पाये जाते हैं।
विचारणीय आलेख।
@सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
प्रिय सिद्धार्थ जी,
आपकी टिप्पणी के लिये आभार. मेरा प्रयास हमेशा देश के नैतिक निर्माण के लिये पाठको को एक सकारात्मक दिशा देना रहा है. यह कार्य करने के लिये आप जैसे लोगों की टिप्पणी बहुत प्रेरणा देती है.
सस्नेह — शास्त्री
जगह जेक्सन हाईट्स ही है।
अनुचित तो कोई भी करे, कहीं भी करे, अनुचित ही होता है। अनुचित को उचित साबित करने के लिए तर्क जुटाए जा सकते हैं किन्तु ऐसे तर्क वस्तुत: आत्म वंचना ही होते हैं।