जब भी समाज में परिवर्तन की बात की जाती है तो हर कोई मान लेता है कि परिवर्तन जरूरी है. लेकिन गाडी यहां तक पहुंच कर अटक जाती है. लगभग हरेक का प्रश्न होता है कि “सारा समाज गंदगी में लिप्त है, अत: इसे बदलने के लिये एक व्यक्ति क्या कर सकता है”.
इस प्रश्न का आंशिक उत्तर मैं ने क्या फरक पडता है ? में दिया था, लेकिन अभी काफी सारी बातें बची हैं. इस आलेख को लिखने का विचार तब आया जब एक पाठक ने सारथी पर टिपियाया:
अगर उद्यान में कुछ पेड़ पौधों पर कीडे लगने लगे हैं तो ज़रूरत है की ज़्यादा देखभाल की जाए और उद्यान फ़िर हरा भरा किया जाए, पर चूँकि पहले ही कुछ पौधों पर कीडे थे तो सारा बगीचा कीडों को खिला दो, और बगीचा उजाड़ दो.
इंसानी शरीर में हमेशा कुछ न कुछ समस्या रहती है, ज़रूरत है इलाज और सही खुराक की. पर अगर हम कहें की यह तो पहले ही सर्दी जुकाम से पीड़ित था, तो हमने इसे टीबी, निमोनिया, सिफलिस, मेनिन्जाईटिस के कीटाणु इसके शरीर में डाल दिए तो कुछ बुरा नहीं किया. “बीमार के इलाज से अच्छा है की वह मर जाए!”
साफ है कि यदि समाज हम को गलत दिशा में, विनाश की ओर, अग्रसर होता नजर आये तो उसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी जिम्मेदारी से पलायन कर जायें. इसके कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं:
- भीषण आग लगी हो तो काफी कुछ जल जायगा, लेकिन इस कारण लोग उसे बुझाने से पीछे नहीं हटते हैं
- जब प्लेग फैलता है तो बहुत से मारे जायेंगे, और कोई डाक्टर सारे मरीजों को नहीं बचा सकता. लेकिन इसके बावजूद डॉक्टर अपना काम नहीं रोकते
- जब सौ लोग पानी में डूब रहे हों और बचाने वाले सिर्फ पांच हों तो सब को नहीं बचाया जा सकता, लेकिन इस कारण वे बचाव का काम रोक नहीं देते
- अध्यापकगण चाहे जितनी मेहनत कर ले, विद्यालय का हर बच्चा पास नहीं होगा, लेकिन इस कारण अध्यापकगण पढाना बंद नहीं करते
सामान्य जीवन में हमको यही बात याद रखनी है. हम में से कोई भी व्यक्ति कभी भी यह सोच कर “बचाव” का कार्य रोक नहीं देता कि हम सब को नहीं बचा पायेंगे. तो फिर सामाजिक परिवर्तन, क्रातिं, रचनात्मक आंदोलन आदि में ही क्यों यह कह कर रुक जाते कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नहीं चाहते कि समाज सुधरे, लेकिन “एक आदमी क्या कर सकता है” के पीछे छिप तो नहीं रहे.
जरा सुनिये:
- देश में बिजली की कमी है. पडोसी को छोडिये, आप अपने घर में सारे अनावश्यक लट्टू जरूर बंद कर दें.
- देश में पानी की कमी है. पडोसी को छोडिये, आप अपने घर में सब को किफायत का निर्देश दीजिये.
- “आजादी” के नाम पर देश को अराजकत्व की ओर खीचा जा रहा है. गैरों को छोडिये, कम से कम आप इस विषय पर बोलना शुरू कर दीजिये.
एक आदमी बहुत कुछ कर सकता है. बाबा आमटे मेरे आपके समान ही एक व्यक्ति थे. मदर टेरेसा एक व्यक्ति थीं. गांधी बाबा एक व्यक्ति थे. मैं आप शायद वहां तक न पहुंच पायें, लेकिन यह चुप बैठने के लिये पर्याप्त बहाना नहीं है.
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बजा फरमाया आपने -चैरिटी बिगिन्स ईट होम !
अच्छा आलेख है। कठिन परिस्थितियों में तो और भी सक्रिय होने की आवश्यकता होती है न कि निष्क्रिय हो जाने की। यह असंभव नहीं आवश्यक काम है।
@Dr.Arvind Mishra
एक वाक्य में आप ने सब कुछ कह दिया!!
@amar jyoti
“ब”
बहुत ही सही निरीक्षण !!
ache vichar padh kar din ki shuruaat kar raha hoo
सदविचार. चुप तो हम भी नहीं बैठे हैं. 🙂
अरविन्द मिश्रा जी कि बात ही हम भी कहना चाहते थे. आप सौ फीसदी सही कह रहे हैं.
@prabhat
शुक्रिया!!
@समीर लाल
जी, यह स्पष्ट है कि आप “चुप” नहीं बैठे हैं!!
सस्नेह — शास्त्री
@PN Subramanian
शुक्रिया सुब्रमनियन जी
बहुत शुभ विचार शिवरात्रि के इस पावन पर्व पर प्राप्त कर रहा हूं.
धन्यवाद.
@हिमांशु
प्रिय हिमांशु, सारथी पर पधारने के लिये आभार !!
Very well said.
I like the way you present your views.
You are one of those brave people who stand alone in the crowd and later leads the same crowd.
If ‘shastrarth’ is not conducted by A shashtri …then who else will ?..
I silently appreciate your logic and understanding on various social issues.
Thank you
एक आदमी बहुत कुछ कर सकता है. बाबा आमटे मेरे आपके समान ही एक व्यक्ति थे. मदर टेरेसा एक व्यक्ति थीं. गांधी बाबा एक व्यक्ति थे. मैं आप शायद वहां तक न पहुंच पायें, लेकिन यह चुप बैठने के लिये पर्याप्त बहाना नहीं है.
” इन चाँद पंक्तियों मे ही सारे आलेख का सार है….कोई भी इंसान पैदाइशी माहन या बडा नही होता…..उसके कर्म ही उसे वहां तक ले जाते हैं…और चुप बैठना तो कायरता या उस काम के ना होने मे अपनी भागीदारी दर्ज करना जैसा हुआ ना….बहुत कुछ सीख देता है ये आलेख..”
Regards
सही कहा आपने एवम आपकी बात को एक ही वाक्य मे श्री अरविंद मिश्रा जी ने स्पष्ट कर दिया. हम सिर्फ़ उपदेश देने के बजाये सिर्फ़ अपनी शोसल ड्य़ूटी भी इबाह लें तो एक दिन क्रांती हो सकती है.
रामराम.
किसी ने बहुत अनुभव वाली बात कही है –
“यह सोचना गलत है कि कुछ गिने-चुने लोग संसार को नहीं बदल सकते ; वस्तुत: सच्चाई यही है कि मुट्ठी भर लोगों ने ही संसार को बदला है। “
शास्त्री जी, मै आप की बातो से सहमत हूं, अगर एक आदमी भी अपनी आवाज उठाये तो , उस की आवाज सुन कर, सारे नही तो कुछ लोग तो जरुर साथ चलेगे, ओर फ़िर यह कुछ लोग अपनी आवाज उथायेगे तो उन के संग कुछ ओर लोग चलेगे, ओर एक दिन इन कुछ लोगो का समुंदर बन जायेगा, जिसे रोक पाना कठीन होगा, बस हमे कभी दुसरो का मुंह नही देखने चाहिये, किसी से मदद की आशा रख कर नही बेठना चाहिये कर्म करे , कर्म योगी बने तो सफ़लता हमारे कदमो मे होगी.
इस समाज को हम इन कुरितियो से बचा सकते है.
आप के विचार हमेशा की तरह से शक्ति देने वाले है.
धन्यवाद
सैद्धान्तिक रूप से मैं आप के विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ । किसी व्यवस्था को स्थापित करने के लिए कहां से शुरूआत की जाए, यह तय करना कभी आसान नहीं होता है। परन्तु कहीं न कहीं से तो हमें शुरूआत करनी ही होगी।
यह तो आप्त वचन है जैसे गीता। जरूरत इसे जीवन में उतारने की है।
दुरुह अवश्य है किन्तु असम्भव नहीं। आवश्यकता है, सतत् सचेष्ट बने रहने की। कोई भी देश अपने नागरिकों के दम पर ही अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त करता हे। यदि देश में स्थितियां हताशाजनक हैं तो इसके पीछे हम ही हैं। यह सब हमारा ही निर्माण है। हममें से प्रत्येक यही कह कर बच रहा है – ‘मैं अकेला क्या कर सकता हूं?’ किन्तु जब ‘इसी अकेले’ के घर में कोई घुस आता है तो ‘यही अकेला’अपनी जान पर खेल जाता है।
हम अपने देश को जिस दिन अपनी जिम्मेदारी मानना शुरु कर दे्गे उस दिन यह सवाल उइना ही बन्द हो जाएगा।
आज हम ‘किसी’ की प्रतीक्षा कर रहे हैं जबकि यह ‘किसी’ कोई और नहीं, हम खुद ही को बनना होता है।
चुप रहना बहुत खतरनाक है।
किसी बडे शायर ने कहा है
“माना कि इस जमीं को ना गुलजार कर सके हम
कुछ कांटें तो कम कर ही गये गुजरे जिधर से हम”