आज जब अनुनाद जी के चिट्ठे पर यूनेस्को का भाषाओं पर खतरे का मानचित्र आलेख दिखा तो एकदम कई बातें याद आ गईं. पहली बात है जब मैं ने नागालेंड और आसपास के प्रदेशों की एक पुस्तक देखी.
भारतीय भाषा की यह पुस्तक अंग्रेजी लिपि में थी. इस सदमें से उभर नहीं पाया था कि उस नागा ने उसे पढ कर सुनाया. यह मेरे लिये दूसरा सदमा था. लिखे अंग्रेजी के उच्चारण में और पढे गये नागा भाषा में कोई समानता न थी. पूछने पर पता चला कि नागालेंड और उसके आसपास के प्रदेशों की भाषाओं की अपनी कोई लिपि न होने के कारण एक शताब्दी पहले कुछ विदेशियों ने उनकी भाषा को अंग्रेजी लिपी प्रदान की. इसके बाद इन भाषाओं का उच्चारण जैसा उनकी विदेशी भाषा में आया वैसा लिख दिया.
फल यह हुआ कि अच्छीभली भारतीय भाषाओं की मट्टीपलीद हो गयी. हिन्दी को अंग्रेजी में लिखने के कुछ नमूने देख लीजिये:
Dund-fund: दंद-फंद
Baroda: बडोदा
Thora-bahut: थोडा-बहुत
किसी भी भाषा के लिये वे लिपियां ही उचित हैं जो उस देश में चलती हैं. इतना ही नहीं, भारतीय लिपियों के लिये देवनागरी सर्वोत्तम है क्योंकि यह लिपि कम से कम 2000 साल के विकास के कारण एकदम परिपक्व अवस्था में पहुंच चुकी है. मराठी, मलयालम आदि भाषाओं से दोचार अक्षर (ळ) ले लें तो इसके साथ देवनागरी अपने आप में एक “परिपूर्ण” लिपि बन जाती है.
अब जरा आते हैं अनुनाद जी के आलेख की ओर: युनेस्को ने जो जानकारी उपलब्ध करवाई है उसके अनुसार कई दर्जन भारतीय भाषायें लुप्त होने के कगार पर है. अनुनाद जी ने इस के मामले में एक सटीक बात याद दिलाई है:
अंग्रेजी के अंधाधुंध उपयोग और गुलाम मानसिकता के चलते हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। सभी भाषा-प्रेमियों के सामने इसका सम्यक और प्रभावी हल निकालने की चुनौती है !
चिट्ठाजगत इस के लिये आसानी से हल निकाल सकता है, बशर्ते कुछ समर्पित चिट्ठाकार आपना जीवन इस कार्य के लिये अर्पित कर दें. करना यह होगा कि जिस संकटग्रस्त भाषा से आप परिचित हैं उसे देवनागरी लिपि प्रदान करके, उसके शब्दभंडार, व्याकरण, एवं कथाकहानियों को सुरक्षित कर दिया जाये. इसके साथ ही अन्य लोगों को उस आंदोलन से जाल के जरिये जोड दें तो वह भाषा अकाल मृत्यु से बच सकती है. [Picture by gopal1035]
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आज अनेक तकनीकी कारणों से भारतीय भाषाओं को रोमन में अभिव्यक्त करने क प्रचलन हो रहा है जो भारतीय भाषाओं के लिए उचित नहीं है।
अंग्रेजी अगर मुझे आती बोलना
तो लोगो की बोलती बंद हो जाती
कोई मुझसे यह नही पूछता
तुम ने कहाँ तक की पढाई
यही वह बिन्दु है जहां से हमें अपनी-अपनी भूमिका निर्धारित करनी है। शुरुआत कोई भी हो, खुद से ही करनी पडती है। ‘बोलचाल की भाषा’ के नाम पर आज हिन्दी शब्दों को विस्थापित किया जा रहा है। इस दुष्कृत्य में हिन्दी के अखबार सबसे आगे हैं। उनकी आखों पर लालच का पर्दा पर पड गया है और वे ‘जिस मां का दूध पी रहे हैं’ उसी मां को निर्वस्त्र का रहे हैं।
क्षरण तेजी से आता है और यदि उसे फैशन का स्वरूप मिल जाए तो यह तेजी सहस्रगुना हो जाती है जबकि सुधार की गति बहुत ही धीमी होती है। स्पष्ट है कि सुधार के लिए अधिक श्रम, अधिक निरन्तरता और अधिक धैर्य की आवश्यकता होती है।
इसे मेरी आत्म प्रशंसा न समझें, मैं अपने आसपास के लोगों से इस बिन्दु पर खूब झगडता रहता हूं। मजे की बात यह कि वे सब मुझसे सहमत होते हैं किन्तु मेरी बात को मानने में उन्हें पुनर्जन्म लेना पडता है। किन्तु अन्तत: वे मान ही लेते हैं।
अलोकप्रिय होने का खतरा उठा कर यह काम करने में मुझे अब आनन्द आने लगा हे। लोग भी मेरी नीयत पर भरोसा करने लगे हैं, इसलिए चिढते अवश्य हैं किन्तु बुरा नहीं मानते।
सचमुच यह तो गंभीर मसला है !
काफ़ी गंभीर बात है. और आपकी राय से मैं सहमत हूं.
रामराम.
एक कारण चर्च का प्रभाव भी रहा है. मैं असम कई वर्षॉं तक रहा हूँ, मेघालय वगेरे में रोमन लिपि ही चलती है. भारत से दूराव का एक कारण यह भी है. भाषाएं जोड़ती है और यहाँ लिपि तोड़ रही है.
चर्च के जिक्र को अन्यथा न लें, देश से बड़ा कोई नहीं और वहाँ जो देखा वह दुखी करने वाला था.
असम की कुछ क्षेत्रिय बोलियाओं ने देवनागरी को अपनाया है.
बैरागी जी से सहमत हूँ, हिन्दी भाषा को विकृत करने में हिन्दी के सबसे बड़े अखबार ही सबसे आगे हैं… “फ़ैशन”(?) के नाम पर साधारण से हिन्दी शब्दों को भी “हिंग्रेजी” में बदल रहे हैं ये…
भारतीय भाषाओँ को यदि जोड़ना है तो एक समान लिपि जो सबको ग्राह्य हो अपनाना चाहिए. इसके लिए सर्वोत्तम तो ब्राह्मी ही होगी. अक्षर कम हैं. सीखने में आसानी होगी. उच्चारण क्षेत्रीय आधार पर करने की छूट भी रहेगी. देवनागरी कोई बहुत पूरानी भी नहीं है जैसा आप सोच रहे हैं., और न ही देवताओं ने प्रदान की है.
बात बिलकुल सही है और यहाँ एक बडा संकट है. अंग्रेजी तो नहीं, पर अंग्रेजियत के आतंक का विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है उसके समानांतर विकल्प खड़ा करना. इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दी भरपूर मज्बूत है, पर उससे जुड़े व्यावसायिक संकट का क्या किया जाए? सरकार पर पुरज़ोर दबाव जब तक नहीं बनाया जाएगा, तब तक यह सब संभव नहीं होगा.
सुब्रमनियमजी, देवनागरी देवताओं ने प्रदान नहीं की है मगर आज सर्वाधिक प्रयुक्त तो हो ही रही है. ब्राह्मी के बारे में आज ऐसा नहीं है. मगर सर्व-सहमती बड़ी चीज है. हम तो सीखने को तैयार हैं.
मेने आज तक सिर्फ़ एक ही देश देखा है, जहां विदेशी ओर वो विदेशी जिन्होने हमे जुते मारे, हमे कुत्ता तक कहा, हम उन की भाषा बोलना अपनी इज्जत समझते है, ओर स्कुलो मे बहुत शान से उस भाषा को सिखाया जाता है, हिन्दी बोलने पर जुर्माना या गले मे पट्टी लटका दी जाती है कि मै मुर्ख हू.
विश्व के कितने देशो मे यह अग्रेजी बोली जाती है?? मै मात्र ८०० कि मी दुर रहता हुं, इग्लेण्ड से लेकिन यहां एक भी गली का नाम अग्रेजी मै नही लिखा, अगर आप स्कुल मे अग्रेजी नही पढ य बोल पाते तो कोई जुर्माना नही, कोई गले मे पट्टी नही बांधेगा कि मै मुर्ख हूं, क्यो कि यह लोग हमारी तरह से गुलाम नही रहे इस लिये, बाते हम आजादी की करते है, लेकिन हमे आजादी के माय्ने ही नही मालुम.
धन्यवाद शास्त्री जी आप ने बहुत ही सुंदर मुद्दा उठाया है.
किसी भी देश और समाज की उन्नति स्वयं की भाषा के माध्यम से ही सरलतापूर्वक् हो सकती है | इसलिए हमें भी अंग्रेजी का मोह त्याग करके हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को संवर्धित करने की ओर कदम बढ़ाना चाहिए
आइए हम सभी अपनी सामर्थ्य भर हिन्दी को अंग्रेजी का मजबूत विकल्प बनाने के अनुष्ठान का व्रत-संकल्प लें।
@जिस संकटग्रस्त भाषा से आप परिचित हैं उसे देवनागरी लिपि प्रदान करके, उसके शब्दभंडार, व्याकरण, एवं कथाकहानियों को सुरक्षित कर दिया जाये. इसके साथ ही अन्य लोगों को उस आंदोलन से जाल के जरिये जोड दें तो वह भाषा अकाल मृत्यु से बच सकती है.
जी हॉ ! आप बिल्कुल सही कह रहे है। काश ऐसा हो हम सभी को सकुन कि अनुभुती होगी।
आप का चिन्तन सही दिशा कि और – भारत और भारतीय भाषाओ कि सुरक्षा के लिये है।
देवनागरी लिपि में दूसरी भाषाओं का साहित्य यदि उपलब्ध कराया जा सके, तो देवनागरी सारे देश को जोड़नेवाली सामान्य लिपि बन सकती है। अभी नेपाली, मराठी, सिंधी, कोंकणी, संस्कृत, हिंदी आदि अनेक भाषाएं इस लिपि में लिखी जा रही हैं। गुजराती, बंगाली, पंजाबी आदि की लिपियां भी उससे बहुत मेल खाती हैं। दक्षिण भारत की लिपियां भी उससे ध्वनि के स्तर पर मिलती-जुलती हैं, हालांकि उनमें एक-दो ऐसी ध्वनियां हैं जो देवनागरी में नहीं हैं, जैसे मलायालम और तमिल का ष़ और मराठी का ळ।
कई ब्लोगर द्विभाषी हैं – वे हिंदी के अलावा कोई अन्य भारतीय भाषा भी जानते हैं। यदि वे अपने ब्लोगों में हिंदी के अलावा किसी अन्य भारतीय भाषा के साहित्य को देवनारी में लिप्यंतरित करके देने लगें, तो इससे बहुत बड़ा उपकार होगा।
खास करके ऊर्दू लिपि में लिखे गए उत्कृष्ट साहित्य को देवनागरी में लाने की बहुत आवश्यकता है।