मेरे पाठकों में से अधिकतर या तो पुरुष हैं या स्त्री. इन में से अधिकतर को लिंगाधारित विषमता का सामना करना नहीं पढता है. पुरुष को पुरुष होने के कारण या स्त्री को स्त्री होने मात्र के कारण समाज में मजाक का पात्र नहीं बनना पडता है. लेकिन समाज का एक तबका ऐसा भी है जिसको हर ओर से उपेक्षा, तिरस्कार, निंदा आदि सहन करना पडता है महज इस कारण कि वे न तो पुरुष हैं न स्त्री.
यह एक जनितक (Genetic) समस्या है जो भारत के उत्तरी प्रदेशों में अधिक दिखता है. जब शुक्राणु का संयोजन होता है उसी क्षण यह तय हो जाता है कि बच्चा नर होगा या मादा. लेकिन इसके बाद काफी जटिल प्रक्रियायों द्वारा उनके लैंगिक अवयवों का निर्माण होता है. न केवल बाह्य अवयव, बल्कि उनसे जुडे आंतरिक अवयवों की भी रचना होती है.
इस जटिल प्रक्रिया को उस भूण के जीन नियंत्रित करते हैं. लेकिन प्रक्रिया अपने आप में इस कदर जटिल है, एवं इतने समय तक चलती रहती है कि उसमें यदा कदा अडचन आ जाती है और अंत में बालक या बालिका के लक्षण स्पष्ट होने के बदले मिलेजुले लक्षणों/अवयवों के साथ जन्म होता है. और इसके साथ जन्म लेती है एक ऐसी विषमता जो आजीवन उस नवजात शिशु को नहीं छोडती.
हिन्दुस्तान के अधिकांश इलाकों में इस तरह के शिशु के (जिस के जननांग स्पष्टतया बालक या बालिका के नहीं होते) जन्मते ही उसे उसका परिवार त्याग देता है. ऐसे शिशुओं को सामान्यतया हिजडा कहा जाता है, एवं उसकी आगे की विधि यह होती है कि उसे अन्य हिजडे पालें. होता भी ऐसा ही है कि अपवादों को छोड कर ऐसे शिशुओं को हिजडे लोग ही ले जाकर पालते हैं.
आगे बढने के पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि चूंकि एक व्यक्ति लिंगनिर्धारण के समय होने वाले जनितक समस्या के कारण हिजडा बन जाता है, अत: यह एक प्रकार की शारीरिक विकलांगता है. जैसे एक बच्चा अंधा, बहरा, या लंगडा पैदा होता है वैसे ही एक लैंगिक विकलांगता के कारण बच्चा इस तरह पैदा होता है. इस कारण हिजडा कहने के बदले इनको “लैंगिक विकलांग” कहना सही होगा, और मैं इसी नामकरण का उपयोग करता हूँ. लेकिन इस आलेख में मैं हिजडा और लैंगिक विकलांग दोनों शब्दों का प्रयोग करूंगा. [क्रमश:]
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Photographs by rahuldlucca
बहुत सही बात कही है बहुत बहुत बधाई
हम अन्य विकलांगों को जिस तरह से अपनाते हैं उसी तरह इन शिशुओं को भी अपना सकते हैं। इस तरह के अनेक लोग परिवारों में पलते हैं और जीवन जीते हैं। उन्हें परिवारों द्वारा अपनाने की आवश्यकता है।
बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने। आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा है।
आप ने सही बात उठायी है। इस विषय पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए।
लैंगिक विंकलांगों को विकलांगों को मिलने वाले आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए. और धनार्जन की वर्तमान व्यवस्था खत्म होनी चाहिए.
ऐसे व्यक्तियों पर दया, गुस्सा अथवा अत्यधिक सहानुभूति नहीं दिखाना चाहिये, इन्हें सामाजिक मनोवृत्ति और कानूनी बदलावों की आवश्यकता है… आजकल पैसा कमाने के चक्कर में अब इनमें भी असली-नकली का खेल शुरु हो चुका है…
गुरूदेव आपने अपनी करुणावश लिखा है और लोगों ने प्रतिक्रियाएं दी है मैं निजी तौर पर सभी टिप्पणीकारों को धन्यवाद करता हूं और इन सभी से निवेदन करता हूं कि मेरी बहन और आपकी मानस पुत्री मनीषा नारायण के ब्लाग पर नजर डालें (http://adhasach.blogspot.com) हमें समस्या तो पता है तो अब उपायों की ओर बढ़ना होगा, कारगर उपाय तलाशने होंगे, कितने लोग लैंगिक विकलांग बच्चे गोद लेना चाहते हैं? क्या किसी ने इनकी संवैधानिक स्थिति के विषय में सूचना प्राप्ति के अंतर्गत सरकार से जानकारी मांगी हैं?
@ संजय बेंगाणी, भाई मेरा लक्ष्य यही है और मैं इसके साथ ही इन बच्चों के सामाजिक सम्मान के लिये भी सतत प्रयासरत हूं जिसमें कि हमारे पितातुल्य सबके “बाबूजी” शास्त्री जी का यदि सहयोग न हो तो हम सब कबके बिखर गये होते….। बाबूजी की करुणा हम सबके प्रयासों को नित्य नवचैतन्य करे रहती है।
आपने बहुत ही लाजवाब विषय ऊठाया इस बार. पर चिपलुणकर जी वाली बात भी सही है.
रामराम.
आदरणीय नमस्कार
जब से आपको पढना शुरू किया है, आपकी बातों पर(मुझे नही पता क्यों) सहज ही विश्वास हो जाता है। अभी तक मेरी विचारधारा यही थी कि हिजडे पैदाईशी नही होते, ये वो पुरुष होते हैं जो जानबूझ कर अपना लिंग बदल या विकृत कर लेते हैं या रूप बदल लेते हैं । श्री रूपेश जी ने भी जब तब लैंगिक विकलांगों का जिक्र किया, तब भी मैं अपने मानसिकता को सही रास्ते पर नही ला पाया। हालांकि मुझे लैंगिक विकलांगों से ना कोई कुंठा, नफरत और ना ही कोई लगाव है। मैं अर्धसत्य का भी नियमित पाठक हूं । क्योंकि कहीं भी कुछ लिखा जाता है तो मैं उसमें से कुछ (जिन्दगी) सीखने की कोशिश करता रहता हूं ।
अब आपने बताया है तो सचमुच विश्वास हो गया है कि यह जन्मजात विकलांगता होती है। मैं आपसे, रूपेश जी से और सभी लैंगिक विकलांगों से अपनी मानसिकता के लिये क्षमाप्रार्थी हूं ।
गम्भीर विवेचन है, आमतौर पर इस विषय पर कहीं भी चर्चा नहीं होती है।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
एक गम्भीर विषय पर सार्थक विवेचन।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
एक गम्भीर विषय पर सार्थक विवेचना।
बेशक इन्हें भी किसी भी अन्य विकलांग की तरह ही समाज और परिवार का हिस्सा बनाया जा सकता है लेकिन इनसे घ्रणा का प्रमुख कारण है इनका जीविकोपार्जन का तरिका जो की एक परिपाटी के रूप में चला आ रहा है. आज भी जब किसी हिजडे के बारे में कल्पना करें तो हमें हमेशा अजीब सी लाली और झुमके बिंदी से सजे, जोर जोर से ताली बजाते, बसों, ट्रेनों में अश्लील हरकतें करते हुए पैसे वसूलते हुए कुछ लोग ही क्यों स्मरण में आते हैं? इनमे से एक भी कृत्य ऐसा नहीं है जो की उन के विकलांग होने से जुडा हो. फिर भी वो ऐसा करने को मजबूर हैं जो की उन्हें घ्रणा का पात्र बनाता है.
आशा है की आने वाली कड़ियों से ज्यादा नहीं तो कमसे कम ५० लोगों की सोच और नजरिया तो बदलेगा ही.
शास्त्री जी. यह तो एक शरीरिक कमी है जेसा कि आप ने लिखा है, कै बच्चे अंधे लगडे लुले भी तो पेदा होते है, या फ़िर किसी दुर्घटना मै किसी का लिंघ खो जाये तो? मुझे समझ नही आता हमारे समाज मै क्यो ऎसे बच्चे को त्याग देते है, इस कमी मै उस बच्चे का क्या कसुर, क्यो नही उसे भी अन्य बच्चो की तरह से आम प्यार मिलता, आम डांट नही मिलती, जिस से वो अपने आप को ओरो से अलग ना सम्झे.
यहां युरोप मे भी ऎसे लोग मिलते है, लेकिन इन की कोई अलग पहचान नही होती, इन्हे कोई अलग हक नही मिलते,कोई इन पर दया भाव नही दिखाता, कोई इन्हे आरक्षण नही मिलता, जिस से यह अपने आप को आम लोगो जेसा ही समझते है, हम सब मै मिलते जुलते है.
लगडे लुले या अन्य शरीरिक कमी के लिये तो आराक्षण मिलना चाहिये लेकिन ऎसी बात पर अगर हम चाहते है कि यह भी हमारे समाज मै घुल मिल जाये तो इन की कोई अलग पहचान नही होनी चाहिये, बल्कि यह भी हमारी तरह हर हक के बराबर हिस्से दार हो, चाहे वो शिक्षा हो या नोकरी, आरक्षण देने से इन की अलग पहचान होगी ओर फ़िर इन्हे वोही मुश्किले आयेगी जिस से यह बचना चहाते है, या समाज जिस से इन्हे बचाना चाहता है.
अन्त मै इतना ही कहुगां कि यह हमारे ही बच्चे है कृप्या इन्हे ना त्यागे, इन्हे अन्य बच्चो की तरह से ही पाले, उतना ही गुस्सा, उतना ही प्यार दे जितना अन्य बच्चो को देते है, ओर जिस के यह हक दार है. इन की आंखॊ मे झांक कर देखो… क्या कहती है यह मासुऊम आंखे.
धन्यवाद, यह सवाल कई बार मेरे दिल मै उठता था, ओर अन्दर तक बेचेन करता है क्यो हमारे समाज मै इन्हे अलग समझा जाता है ?
विषय बहुत गंभीर है , एक किन्नर के बारे में लिखना उसे समझाना आसान कार्य नहीं .
आज कल उत्तर -प्रदेश के कुछ स्थानों पर कृतिम रूप से किन्नरों का जन्म हो रहा है ( जो पैदा एक स्वस्थ शरीर के साथ होते है पर पैसे के लिए कुछ लोग उन्हें किन्नर बना देते है )
अगले लेख का इंतजार रहेगा .
समस्या गंभीर है. एक अकेले रुपेश श्रीवास्तव जी के लिए बहुत भारी भी. जन मानस में एक जाग्रति लानी होगी. अन्य विकलांगों के जैसे इन्हें भी समाज के लिए उपयोगी बनाना होगा. अभी तो उन्हें शोषक ही माना जाता है.
लैंगिक विकलांगता अलग चीज़ है और हिजडे एक अलग जाति है। ऐसे कई लोग हैं जो इस विअकलांगता के कारण ब्याह नहीं करते और जीवन बिता देते हैं। वे हिजडों की तरह कोई स्वांग नहीं करते। जैसा कि सुरेशजी ने कहा, कुछ मर्द भी हिजडों का भेस धारण करके आजीविका का एक स्त्रोत बना लेते हैं।