हिजडे एक ऐसा यथार्थ है जिसे हम स्वीकार करना नहीं चाहते. लेकिन मेरा अनुमान है कि सारथी के इस लेखन-परम्परा द्वारा कम से कम कुछ लोग सच्चाई पहचान जायेंगे. पुनीत ओमर ने अपनी टिप्पणी में कहा है:
बेशक इन्हें भी किसी भी अन्य विकलांग की तरह ही समाज और परिवार का हिस्सा बनाया जा सकता है लेकिन इनसे घ्रणा का प्रमुख कारण है इनका जीविकोपार्जन का तरिका जो की एक परिपाटी के रूप में चला आ रहा है. आज भी जब किसी हिजडे के बारे में कल्पना करें तो हमें हमेशा अजीब सी लाली और झुमके बिंदी से सजे, जोर जोर से ताली बजाते, बसों, ट्रेनों में अश्लील हरकतें करते हुए पैसे वसूलते हुए कुछ लोग ही क्यों स्मरण में आते हैं? इनमे से एक भी कृत्य ऐसा नहीं है जो की उन के विकलांग होने से जुडा हो. फिर भी वो ऐसा करने को मजबूर हैं जो की उन्हें घ्रणा का पात्र बनाता है. आशा है की आने वाली कड़ियों से ज्यादा नहीं तो कमसे कम ५० लोगों की सोच और नजरिया तो बदलेगा ही.
मुझे पूरी उम्मीद है कि ऐसा ही होगा.
मैं लगभग 5 साल की उमर में हिजडों या लैंगिक विकलांगों से परिचित हुआ. ग्वालियर के आसपास किसी मंदिर में इन लोगों का एक समूह था जो नियमित रूप से अपने बंधे बंधाये घरों में जाकर आटा इकट्ठा करता था.
महीने के पहले हफ्ते एक परिचित और बुलंद आवाज सुनाई देती थी जब वह आकर एक श्लोक का उच्चारण करती थी. हाथ में एक तीन से चार इंच मोटी कपडे की धुंआ देती बत्ती होती थी और सर पर एक टोकरी. हमारे सामने का मराठा परिवार (जिनके साथ हमारा अंगन एक हुआ करता था), बडे आदर के साथ एक बडा डब्बा आटा उनको देता था और फिर उस बत्ती के भस्म को आदर के साथ प्राप्त करते थे. एक से अधिक लोग आते थे तो कई बार ये लोग नृत्य करते थे जिस में एक दम भक्ति की भावना प्रगट होती थी. मेरी मां ने बचपन में ही बता दिया था कि ये न पुरुष हैं न स्त्री, और ये किसी धार्मिक समूह के लोग हैं जहां अपना सारा समय पूजापाठ में लगाते हैं.
स्वाभाविक है कि लैंगिक विकलांगों से मेरा परिचय एक स्वस्थ माहौल में हुआ और उनके प्रति एक स्वस्थ नजरिया मन में घर कर गया. इसके बाद घरों में जाकर पैसा वसूल करने वाले हिजडे बहुत देखे. इतना ही नहीं, हमारे पास जो सरकारी अस्पताल था वहां ये लोग लगभग हर दिन प्रसूति वार्ड का चक्कर लगाते थे. यह भी मैं ने देखा है. वहां की नर्सिंग इंचार्ज मेरी दूर की चाची लगती थी. वे अकसर आकर पापा को बडे दुख के साथ बताती थी कि किस तरह लैंगिक विकलांग पैदा होने पर मांबाप उस बच्चे को छूना तक पसंद नहीं करते और किस तरह बच्चे को अस्पताल में छोड कर भाग जाते थे. फल यह होता कि वे विकलांग-कौम को सूचना दे देते और वे लोग उस बच्चे को ले जाकर पालते पोसते थे.
मैं बडा हुआ तो नोट किया कि ग्वालियर में इन लोगों के कई बडे समूह थे जो पेट पालने के लिये कोई भी धंधा नहीं कर पा रहे थे. कोई भी व्यक्ति इन को नौकरी पर नहीं लगाता था. जब से यह बात समझ में आई तो इन लोगों के साथ एक दम सामान्य व्यवहार करने लगा, और पाया कि इनको सामान्य तरीके से लो तो ये लोग भी उसी तरह से सामान्य व्यवहार करते हैं.
शादी के बाद मैं जिस कालोनी में रहता था वहां ये लोग महीने में एक बार सारे घरों का चक्कर लगाते थे. दस से बीस लोगों का समूह रहता था. मेरे घर आते थे तो मैं और पत्नी इनसे एकदम सामान्य तरीके से मिलते थे और अपनी सामर्थ के अनुसार एक राशि दे देते थे. इन में से कभी भी किसी ने भी हमारे साथ न तो पैसे के लिये मोलभाव किया, न कम पैसे होने पर हमें टोका. वे अच्छी तरह जानते थे कि कौन सहृदय है. जब ये घर आते थे तब लोग अपने बच्चों को छुपा लेते थे, लेकिन मैं ने अपने बच्चों को इन से मिलने से कभी नहीं टोका.
रेलगाडी मैं ने पहली बार कोंकण रेलवे द्वारा यात्रा की तो मुम्बई इलाके में तो ये लोग थोक में रेलगाडी में चढे. मेरा व्यवहार एकदम सामान्य रहा अत: इन में से हरेक का व्यवहार मेरे प्रति भी सामान्य रहा. मेरे प्रति इनका व्यवहार देख कर कई यात्रियों ने इसका कारण जानना चाहा तो मैं ने सब को बताया कि आप सही तो जग सही!!
अंत में मैं अपने एक मित्र के पत्र का उल्लेख करना चाहता हूँ जो इस प्रकार है:
आपको बड़ी सहानुभूति हो रही है इन "इश्वरीय अपंगों" के साथ. लगता है कि आप कभी इनके पल्ले नहीं पड़े. चलो ये बात तो ठीक है. लेकिन ये लोग एक सभ्य नागरिक जैसा व्यवहार क्यों नहीं करते? क्यों ये लोग दस दस रूपये के लिए हमें भी शर्मसार करते हैं? भीख ही मांगनी है तो क्यों ये लोग अन्य भिखारियों की तरह नहीं मांगते? इस समाज में इन लोगों के अपने अपने "इलाके" हैं. अगर कोई दूसरे इलाके का हिजडा इनके इलाके में घुस जाता है तो क्या आपको पता है क्या होता है? इनमे खुद ही एकता नहीं है, भाईचारा नहीं है. अगर ये लोग एक होकर आम नागरिकों की तरह सरकार के सामने अपनी मांगें रखें तो क्या ये असंभव है कि सरकार इनकी मांगें ना माने? इनसे अच्छे तो पुलिस वाले भी है, हफ्ता मांगने वाले बदमाश भी हैं; कम से कम वे लोग आम जनता को तो सरेआम परेशान नहीं करते. भले ही वे गरीब ठेली वालों को भी ना बख्शते हों. लेकिन, ये हिजडे तो सभी को एक ही डंडे से हांकते हैं.
मेरे चार आलेखों में इन सब प्रश्नों का जवाब आ चुका है. उम्मीद है आप विषय को सही कोण से देखेंगे. अंत में दो वरिष्ठ मित्रों की टिप्पणियां देखे:
(राज भाटिया) शास्त्री जी. यह तो एक शरीरिक कमी है जेसा कि आप ने लिखा है, कै बच्चे अंधे लगडे लुले भी तो पेदा होते है, या फ़िर किसी दुर्घटना मै किसी का लिंघ खो जाये तो? मुझे समझ नही आता हमारे समाज मै क्यो ऎसे बच्चे को त्याग देते है, इस कमी मै उस बच्चे का क्या कसुर, क्यो नही उसे भी अन्य बच्चो की तरह से आम प्यार मिलता, आम डांट नही मिलती, जिस से वो अपने आप को ओरो से अलग ना सम्झे.
यहां युरोप मे भी ऎसे लोग मिलते है, लेकिन इन की कोई अलग पहचान नही होती, इन्हे कोई अलग हक नही मिलते,कोई इन पर दया भाव नही दिखाता, कोई इन्हे आरक्षण नही मिलता, जिस से यह अपने आप को आम लोगो जेसा ही समझते है, हम सब मै मिलते जुलते है.
लगडे लुले या अन्य शरीरिक कमी के लिये तो आराक्षण मिलना चाहिये लेकिन ऎसी बात पर अगर हम चाहते है कि यह भी हमारे समाज मै घुल मिल जाये तो इन की कोई अलग पहचान नही होनी चाहिये, बल्कि यह भी हमारी तरह हर हक के बराबर हिस्से दार हो, चाहे वो शिक्षा हो या नोकरी, आरक्षण देने से इन की अलग पहचान होगी ओर फ़िर इन्हे वोही मुश्किले आयेगी जिस से यह बचना चहाते है, या समाज जिस से इन्हे बचाना चाहता है.
अन्त मै इतना ही कहुगां कि यह हमारे ही बच्चे है कृप्या इन्हे ना त्यागे, इन्हे अन्य बच्चो की तरह से ही पाले, उतना ही गुस्सा, उतना ही प्यार दे जितना अन्य बच्चो को देते है, ओर जिस के यह हक दार है. इन की आंखॊ मे झांक कर देखो… क्या कहती है यह मासुऊम आंखे.
धन्यवाद, यह सवाल कई बार मेरे दिल मै उठता था, ओर अन्दर तक बेचेन करता है क्यो हमारे समाज मै इन्हे अलग समझा जाता है ?
(दिनेशराय द्विवेदी) हम अन्य विकलांगों को जिस तरह से अपनाते हैं उसी तरह इन शिशुओं को भी अपना सकते हैं। इस तरह के अनेक लोग परिवारों में पलते हैं और जीवन जीते हैं। उन्हें परिवारों द्वारा अपनाने की आवश्यकता है।
लैंगिक विकलांगो द्वारा जबरन लैंगिक विकलांग बनाना अपवाद हो सकता है। लेकिन मैं ने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि परिवार के लोगों द्वारा लैंगिक विकलांग को हिजड़ों को सौंप देने के उपरांत हिजड़ों ने बच्चे को पढ़ाया और वह सरकारी अस्पताल में नर्स का काम कर रहा है, पुरुष वेश में ही। यहाँ तक कि एक महिला नर्स के साथ रहता भी है। क्यों नहीं हम इसी तरह इन्हें समाज में स्वीकार कर सकते?
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Picture by Rajiv Ashrafi
सही मुद्दे पर ध्यानाकर्षण है .यह वाकई सोचने वाली बात है
ओह, आप इस उम्र में ये कैसे कैसे अनुभव लेते रहते हो भगवन ?.. क्या आपको ये शोभा देता है ! न..न..न.. -:)
आपका अनुभव बहुत अच्छा रहा और ये आपके लेख में भी दिखाई देता है . आपका ये प्रयास शायद बहुत लोगों की मानसिकता को बदलने में सफल सिद्ध होगा .
आप को मैं अपने एक आलेख की कड़ी मेल कर रहा हूँ। आप चाहें तो इस का उपयोग कर लें। यह पूर्व प्रकाशित है।
आपके आलेख में इतना विशद अध्ययन रहता है कि पढ़ते समय रोचकता बनी रहती है और आनन्द की प्राप्ति होती है, फिर चाहे विषय कोई भी क्यों न हो.
काश हम सब की सोच बदले, इन्हे भी हम अपनी तरह से समझे. बहुत ही सुंदर.
धन्यवाद
इयर एण्डिग मे व्यस्त था इसलिऐ आपके ब्लोग पर ना आ सका। आज लेख पढा समाज के हर सदस्य के लिऐ आपने विवेक पुर्ण सवाल छोडे है। मै आपके विचारो का पक्षधर हू, इसलिऐ कि आप समाजिक व्यवस्था के हितकारी है।
आपकी यह सोच बहुत से लोगो कि मानसिकता बदलेगी यह मेरा मानना है ।